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नेहरू की तरह नरेंद्र मोदी के पास बौद्धिक लोगों का वर्ग नही है...
नई दिल्ली: 4 साल सत्ता मे रहने के बावजूद नरेंद्र मोदी अपने खुद का मजबूत एलीट वर्ग (अभिजात वर्ग) तैयार करने मे नाकाम रहे हैं। उनके परम्परागत और सोशल मीडिया मे मजबूत समर्थक हैं। उनके पास कुछ बौद्धिक लोग हैं जो उनके समर्थन मे मुख्यधारा के अखबारो मे कालम लिखते हैं। कार्पोरेट वर्ल्ड मे भी उनके वफादार हैं। मिडिल क्लास मे भी ऐसे लोग जो उनकी प्रशंसा करते हैं।
परंतु इससे मजबूत एलीट वर्ग नही बन जाता। बात सिर्फ मोदी की ही नही, यहाँ तक कि भाजपा, या कहे कि संघ भी बौद्धिक लोग, अकैडमिक्स, कलाकार, वैज्ञानिक, और अन्य का सपोर्ट वर्ग तैयार करने मे नाकाम रहा है।
हालांकि सरकार ने कुछ मशहूर लोगो को संस्थाओ मे शीर्ष पर नियुक्त किया है परंतु इनमे से ज्यादातर ने योग्यता और गुणवत्ता के मामले मे विवाद ही पैदा किया है। मजबूत एलीट वर्ग (power elite) एक सामाजिक परिघटना है जिसका जरूरी नही कि नकारात्मक अर्थ हो। और ध्यान रहे कि "एलीट वर्ग" और एलीटिज्म एक नही हैंं। एलीट वर्ग को ज्ञान और शिक्षा के प्रसार के लिये असल मे एलीटिज्म (अभिजात्यता) से मुक्त होना पड़ता है।
नेहरू युग
जवाहरलाल नेहरू के पास एलीट वर्ग का एक बडा समूह था, जिसमे शामिल थे वैज्ञानिक, कवि, लेखक, तकनीकी विशेषज्ञ, कलाकार, इतिहासविद, ब्यूरोक्रेट्स, और यहाँ तक कि इंड्रस्ट्रियलिस्ट, यानी वो सभी जिनका एक प्रसिद्ध प्रभामंडल था। होमी भाभा से लेकर अमृता प्रीतम, सत्यजीत रे से लेकर निखिल चक्रवर्ती, जामिनी राय और नंदलाल बोस से वी पी मेनन और गिरिजा शंकर बाजपेयी, दिलीप कुमार, राजकपूर और के ए अब्बास आदि सभी नेहरू के स्वभाव से प्रभावित थें।
पश्चिमी बौद्धिक वर्ग और राजनीतिज्ञो मे से भी काफी लोग जैसे जे के गैल्ब्रेथ और चेस्टर बाउल्स, नेहरू से प्रभावित थे। नेहरू की अरबिंदो आश्रम से सम्बद्धता और विनोबा भावे से व्यक्तिगत सम्बंध ने उनके सपोर्ट वर्ग मे एक दार्शनिक-आध्यात्मिक आयाम की अभिवृद्धि की।
इंदिरा सर्किल
इंदिरा गांधी के पास भी बौद्धिक एलीट लोगो का बड़ा सर्किल था जिसमे पी एन हस्कर और रोमेश थापर, इब्राहीम अल्काजी, पुपुल जयकर, कपिल वात्स्यायन, चार्ल्स कोरिआ जैसे आर्किटेक्ट, विक्रम साराभाई जैसे वैज्ञानिक, हरवंश राय बच्चन जैसे कवि, और सतीश गुजराल जैसे आर्टिस्ट थे।
उनके सर्किल मे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातनाम लोग जैसे मिशेल फुट, कैथरीन फ्रैंक, और जुबिन मेहता भी थे। इन्दिरा अक्सर जे कृष्णमूर्ति से मिला करती थी और शांतिनिकेतन जाती थी। इससे उनके चरित्र को एक कल्चरल और अतींद्रिय आयाम मिला। इसके बावजूद कि उन्होने एमरजेंसी घोषित की, उनका सत्ता एलीट वर्ग सुरक्षित रहा जिसने उनकी मौत के बाद राजीव गांधी के लिये एक रेडीमेड बौद्धिक सपोर्ट सिस्टम प्रदान किया।
आरएसएस कल्चर
मोदी ऐसे किसी वर्ग को बनाने मे नाकाम रहे। कुछ लोग कह सकते हैं कि उन्हे सिर्फ 4 साल ही सत्ता मे हुये हैं, इसलिये, ऐसी तुलना अन्याय होगा। परंतु ये भी देखने की बात है कि वो 12 साल गुजरात के मुख्यमंत्री भी रहे हैं और ऐसे मे वो आर्ट, कल्चर और साहित्य की दुनिया से सम्बंध या कम से कम जान पहचान बना सकते थे। नेहरू और इंदिरा ने ये सर्किल प्रधानमंत्री बनने के बाद नही बनाये--एक प्रतिष्ठित सामाजिक वर्ग मे पले बढ़े। पर पावर और राजनीति के बाहर भी अपनी दिलचस्पी बरकरार रखी। जबकि मोदी, अक्सर कहते पाये गये कि "मै दिल्ली के लिये बाहरी हूँ"--शायद ये महसूस करके कि उनके पास कोई एलीट वर्ग का सपोर्ट नही है।
संघ हालांकि खुद को सांस्कृतिक संगठन कहता है और नये आदर्श के तौर पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद थोपना चाहता है, परंतु हकीकत मे क्लासिकल या आधुनिक आर्ट और साहित्य मे इसका कोई वजूद नही है।
ऐसे बौद्धिक सूखेपन मे संघ के सदस्य विकृत विचार और काल्पनिक महिमामंडन मे जीते हैं--जैसे कि एवियेशन साइंस के प्रमाण मे मनगढंत पुश्पक विमान, प्राचीन प्लास्टिक सर्जरी के लिये गणेष के सर का ट्रानस्प्लांट आदि। वे इतिहास और विज्ञान की किताबो को मिथक से भरना चाहते हैं। यहाँ तक कि चार्ल्स डार्विन को भी इस पागलपन को शिकार होना पड़ा।
इनका दिमाग पद्मावत और वंदे मातरम के बाहर कुछ भी समझ नही पाता। और यहाँ तक कि इस इतिहास मे भी इन्हे मायथालोजी और कविता में फर्क समझ नही आता। ये वंदे मातरम नही गा सकते जैसा कि एक भाजपा नेता ने साबित किया जब टीवी पर उसे गाने के लिये कहा गया। उन्हे ये तक नही पता कि किसने इसे लिखा और कब। पर वो अयोध्या मे राम मंदिर और मध्यप्रदेश मे नाथूराम गोडसे मंदिर प्राथमिकता से बनाना चाहते हैं।
एम एफ हुसैन की कला प्रदर्शनी मे तोड़फोड़ , गुलाम अली के गज़ल कंसर्ट पर हमला, आमिरखान और शाहरूख खान की पूरी तरह मूर्खतापूर्ण आरोप पर निंदा, बियर बार मे महिलाओ के प्रवेश पर पाबंदी, कालेज जाने वाली लडकियो के स्कर्ट पहनने पर रोक, बीफ और अन्य नानवेज खाने को बैन करना, और ज्यादातर पश्चिमी बौद्धिक और आर्टिस्टिक परम्पराओ और विज्ञान के प्रति घृणा दिखाना उनके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अंग है।
संघ के पूरे चरित्र और आदर्श मे किसी भी तरह की दिमागी और रचनात्मक चीज का घोर अभाव है। उन्होने तय कर लिया है कि वो मेंटली और फिलास्फिकली विकसित नही होंगे। उन्होने पक्का कर लिया है कि तमाम ज्ञान सिर्फ वेद और पुराणो मे है और इसलिये किसी नये ज्ञान पर समय बेकार करने की जरूरत नही है।
उन्हे इतनी सी बात समझ में नही आती कि प्राचीन भारतीय दर्शन और कला, यहाँ तक कि संस्कृत भाषा पर लगातार जारी अध्ययन, नेहरू और इंदिरा के समय मे प्रदान किये गये प्रमोशन और प्रोत्साहन का परिणाम है। नेहरु और इन्दिरा ने ज्ञान के प्रति अपने आधुनिक विचारो और उदार दृष्टिकोण को परम्परा के अध्ययन में आड़े नही आने दिया। आश्रम और मंदिर जाने से उनके सेक्युलर प्रतिबद्धता पर असर नही हुआ।
नेहरू ने खुद अपनी भव्य पुस्तक "डिस्कवरी ऑफ इंडिया" मे प्राचीन इतिहास पर शानदार लेख लिखे हैं। उन्होने गंगा, हिमालय, भारतीय भूगोल और पारिस्थिति को महिमामंडित किया है। इसकी तुलना मे गोलवलकर और भागवत ने कुछ भी ऐसा नही लिखा है।
इसके बावजूद, संघ और मीडिया मे उनके अनुयायी राष्ट्र्रिय दर्शन, बौद्धिकता, सामाजिक और सांस्कृतिक डिबेट को हाईजैक करते हैं।
सभ्य व्यवहार का पतन, जो कि अभी नया सोशल नार्म बनता जा रहा है, मध्ययुगीन प्रतीको की तरफ बढने की ज़िद का परिणाम हैं। आधुनिकता, सभ्यता, उदारता, वैज्ञानिक सोच, वैश्विक ज्ञान और परम्पराओ का सम्मान, कला और साहित्य की प्रशंसा, सत्ताधारी आदर्शो से आना चाहिये।
(कुमार केतकर)