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पढ़िए जॉन एलिया की ऩज्में..

Desk Editor
24 Aug 2021 9:23 AM GMT
पढ़िए जॉन एलिया की ऩज्में..
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दिल सहमा हुआ सा है, तो फिर तुम कम ही याद आओ..

नज़्में....


शायद

मैं शायद तुम को यकसर भूलने वाला हूँ

शायद जान-ए-जाँ शायद

कि अब तुम मुझ को पहले से ज़ियादा याद आती हो

है दिल ग़मगीं बहुत ग़मगीं

कि अब तुम याद दिलदाराना आती हो

शमीम-ए-दूर-माँदा हो

बहुत रंजीदा हो मुझ से

मगर फिर भी

मशाम-ए-जाँ में मेरे आश्ती-मंदाना आती हो

जुदाई में बला का इल्तिफ़ात-ए-मेहरमाना है

क़यामत की ख़बर-गीरी है

बेहद नाज़-बरदारी का आलम है

तुम्हारे रंग मुझ में और गहरे होते जाते हैं

मैं डरता हूँ

मिरे एहसास के इस ख़्वाब का अंजाम क्या होगा

ये मेरे अंदरून-ए-ज़ात के ताराज-गर

जज़्बों के बैरी वक़्त की साज़िश न हो कोई

तुम्हारे इस तरह हर लम्हा याद आने से

दिल सहमा हुआ सा है

तो फिर तुम कम ही याद आओ

मता-ए-दिल मता-ए-जाँ तो फिर तुम कम ही याद आओ

बहुत कुछ बह गया है सैल-ए-माह-ओ-साल में अब तक

सभी कुछ तो न बह जाए

कि मेरे पास रह भी क्या गया है

कुछ तो रह जाए

अजनबी शाम

धुँद छाई हुई है झीलों पर

उड़ रहे हैं परिंद टीलों पर

सब का रुख़ है नशेमनों की तरफ़

बस्तियों की तरफ़ बनों की तरफ़

अपने गुलों को ले के चरवाहे

सरहदी बस्तियों में जा पहुँचे

दिल-ए-नाकाम मैं कहाँ जाऊँ

अजनबी शाम मैं कहाँ जाऊँ


सज़ा

हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम

हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं

तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम

मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं

तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो अज़ाब में

और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं

तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं

पस सर-ब-सर अज़िय्यत ओ आज़ार ही रहो

बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िंदगी से तुम

जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो

तुम को यहाँ के साया ओ परतव से क्या ग़रज़

तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो

मैं इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-मेहर ही रहा

तुम इंतिहा-ए-इश्क़ का मेआ'र ही रहो

तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई

इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो

मैं ने ये कब कहा था मोहब्बत में है नजात

मैं ने ये कब कहा था वफ़ादार ही रहो

अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मिरे लिए

बाज़ार-ए-इल्तिफ़ात में नादार ही रहो

जब मैं तुम्हें नशात-ए-मोहब्बत न दे सका

ग़म में कभी सुकून-ए-रिफ़ाक़त न दे सका

जब मेरे सब चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं

जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं

फिर मुझ को चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं

तन्हा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं

Desk Editor

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