संपादकीय

अमर उजाला ने हिरासत में मौत की खबर नहीं है 'आतंकी ढेर करने' की खबर लीड बन गई

अमर उजाला ने हिरासत में मौत की खबर नहीं है आतंकी ढेर करने की खबर लीड बन गई
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Amar Ujala said that there is no news of custodial death, the news of 'killing of terrorists' became a lead.

रविवार के दिन खबरें कम होती हैं और कम हैं। ऐसे में दिल्ली में प्रदूषण की खबर सिर्फ हिन्दुस्तान टाइम्स में लीड है। इसके अनुसार हवा की गुणवत्ता और खराब हुई, कोहरे ने विमान परिचालनों को प्रभावित किया – खबरें हैं। इंडियन एक्सप्रेस की आज की लीड है, जम्मू कश्मीर में घात लगाकर हमले के बाद मामले की जांच के लिए उठाये गये तीन असैनिक मृत पाये गये, पांच जख्मी (घायल) हैं। रिश्तेदारों ने यंत्रणा देने का आरोप लगाया है। इंडियन एक्सप्रेस के साथ आज यह खबर द हिन्दू में भी है। यहां उपशीर्षक है, आतंकी हमले के बाद आठ लोगों को हिरासत में लिया गया था। इनमें से पांच अस्पताल में दाखिल हैं। क्या हुआ होगा, समझना मुश्किल नहीं है।

इंडियन एक्सप्रेस की इस खबर का फ्लैग शीर्षक है, पीडि़त का भाई जो सीमा सुरक्षा बल में है, ने कहा यह देश के लिए काम करने का ईनाम है। अमर उजाला की लीड आज इससे मिलती जुलती है, पर समझ में नहीं आती है। आपको समझ में आये तो जरूर बताइये। अमर उजाला की खबर पर आने से पहले बता दूं कि द हिन्दू की लीड भी इंडियन एक्सप्रेस वाली खबर है। अमर उजाला की खबर (लीड) का शीर्षक है, जम्मू कश्मीर में सुरक्षा बलों ने दो आतंकी ढेर किये, घुसपैठ की कोशिश नाकाम। मैं दोनों अखबारों की खबरों को पूरा पढ़े बगैर यह अनुमान लगा रहा हूं कि दोनों अलग खबरे हैं। अगर मैं सही हूं तो एक पत्रकार या पाठक के रूप में मेरा सवाल है कि दोनों अखबारों ने दूसरी खबर क्यों नहीं छापी। यह कैसे तय हुआ कि यह पहले अखबार की लीड है और दूसरी (दोनों अखबारों के लिए) शीर्षक लायक भी नहीं है।

मेरा मानना है कि यह तय करना ही संपाकीय विवेक और जिम्मेदारी है पर लगभग एक ही तरह की दो खबरों को एक साथ छापने के सामान्य सिद्धांत का क्या हुआ? दोनों खबरों के दो अखबारों में छपने से लगता है कि एक अखबार तो आतंकी हमले की जांच के मामले में संभावित पुलिसया मनमानी या हिरासत में पिटाई आदि के मामले को कम महत्व दे रहा है तीन मौतों के बावजूद। वही बात दूसरी खबर के साथ है, यह सरकार या सरकारी कार्रवाई का प्रचार लग रहा है। कुल मिलाकर, एक अखबार ने सरकार की मनमानी या आलोचना वाली खबर तो नहीं ही छापी है प्रशंसा वाली खबर को लीड बना दिया। हिरासत में तीन मौत का मामला देश में कहीं हो, गंभीर है। कश्मीर में आतंकी वारदात की जांच में उठाये गए असैनिकों के साथ हो और गंभीर है। और ऐसी खबर के साथ इतना लचर रुख बताता है कि आम खबरों के मामले में मीडिया सरकार विरोधी खबर तो नहीं ही छापता है, सरकार का समर्थन करने वाली खबर को ज्यादा महत्व देता है।

इस स्थिति में अमर उजाला का उपशीर्षक भी रेखांकित करने लायक है, पुंछ हमले के दो दिन बाद सेना की बड़ी कार्रवाई, साथी ले भागे आतंकियों के शव। कहने की जरूरत नहीं है कि सेना की बड़ी कार्रवाई के नाम पर उसकी पीठ थपथपाई गई है। मामला यह है कि पुंछ हमले के बाद फिर हमले की कोशिश हुई। इस बार उन्हें सफलता नहीं मिली, खबर पर यकीन किया जाये तो उनके दो लोग मारे गये लेकिन साबित करने या यकीन दिलाने के लिए शव नहीं है। हमलावर साथियों के शव अपने साथ ले जाने में कामयाब रहे। मैं इस खबर की सत्यता पर शक नहीं कर रहा हूं पर एक हमले में नुकसान उठा चुकी सतर्क सेना ने अगर दूसरे हमले को नाकाम कर दिया तो यह चाहे जितनी बड़ी उपलब्धि हो, हमले की उनकी कोशिश बताती है कि आपकी तैयारियों का डर उन्हें नहीं है और शव ले जाकर वे अपनी मजबूती दिखा चुके हैं। नवोदय टाइम्स ने भी सेना की कार्रवाई को ज्यादा महत्व दिया है जबकि हिरासत में मौत का मामला इसमें नहीं है।

दिलचस्प यह है कि अमर उजाला ने इंडियन एक्सप्रेस वाली खबर को दूसरे पैरे में छापा है लेकिन शीर्षक या उपशीर्षक में उसका जिक्र नहीं है। दूसरी ओर, इंडियन एक्सप्रेस की खबर बताती है कि सेना के वाहनों पर घात लगाकर हमले के मामले में उठाये गये आठ लोगों में से तीन के शव मिले हैं और इसे लेकर इलाके में भारी नाराजगी है। इंडियन एक्सप्रेस ने इसी कारण इस खबर को इतना महत्व दिया है। अमर उजाला ने सेना की बहादुरी को तो लीड बना दिया लेकिन हिरासत में मौत के आरोप से लेकर लोगों की नाराजगी की खबरों को नजरअंदाज किया है या कम महत्व दिया। जहां तक सरकारी प्रचार की बात है, हिन्दी अखबारों के शीर्षक अक्सर खासतौर से उल्लेखनीय होते हैं। अमर उजाला में दो कॉलम की एक खबर का शीर्षक है, नकली दवा खरीद मामले में सीबीआई जांच की सिफारिश। एलजी वीके सक्सेना ने शिकयतों के बाद उठाया कदम। एक अलग बॉक्स की खबर है, 10 प्रतिशत से अधिक नमूने फेल।

कहने की जरूरत नहीं है कि शिकायतों के बाद दिल्ली के उपराज्यपाल ने कदम उठाया, 10 प्रतिशत नमूने फेल हुए - यह सब तो ठीक है। पर क्या भाजपाई राज्यों में ऐसी शिकायत नहीं आती है और नहीं आती है तो भी क्या राज्यपाल को जांच नहीं कराना चाहिये। हो सकता है आप कहें कि राज्यपाल का यह काम नहीं है कि वे अपने स्तर पर बगैर शिकायत जांच करवाए। पर तब सवाल यह भी है कि दिल्ली के राज्यपाल के पास शिकायत क्यों आती है और आती है तो उसे संबंधित मंत्री के पास क्यों नहीं भेजा जाता है और राज्यपाल ही कार्रवाई कर रहे हैं तो क्या किसी भाजपा राज्य में राज्यपाल के पास शिकायत नहीं आना सामान्य है। मेरी समझ से इसका कारण दोनों हो सकता है - 1) जनता को शिकायत ही नहीं है और 2) शिकायत पर कार्रवाई नहीं होती है इसलिए शिकायत नहीं आती है। स्थिति जो हो, दिल्ली में उपराज्यपाल के पास शिकायत आना अपने आप में महत्वपूर्ण है। राज्य सरकार को बदनाम करने वाली ऐसी खबरों के मुकाबले बेहतर होता कि अखबार जनता की शिकायत पर राज्यपाल की कार्रवाई से पहले खबर देते। ठीक है कि यह आदर्श स्थिति है पर अभी जो स्थिति है उसमें क्या अखबार के लिए निष्पक्ष दिखने की कोशिश की भी जरूरत नहीं है?

ऐसे में टाइम्स ऑफ इंडिया की आज की सेकेंड लीड का शीर्षक है, जांच में सिल्कयारा टनल धंसने के कई कारण मिले। यह एक गंभीर खबर है और इसकी चर्चा दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं होने का मतलब आप समझ सकते हैं। जम्मू और कश्मीर में तीन असैनिकों को हिरासत में मार डालने का आरोप हिन्दुस्तान टाइम्स में भी है। यह खबर रिश्तेदारों के हवाले से है। इंडियन एक्सप्रेस में सिल्कयारा टनल में सुरक्षा का मामला हो या हिरासत में पिटाई से तीन असैनिकों की मौत का मामला हो खबरें इंडियन एक्सप्रेस में नहीं है। एक्सप्रेस में उसकी अपनी खबरें ज्यादा हैं ऐसे इन दो में से एक या दोनों को पहले पन्ने की सिंगल कॉलम की खबर, मराठा कोटा पर सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार की याचिका पर सुनवाई करेगी को हटाया जा सकता है। जो भी हो, यह मेरी पसंद है और अखबार ने ऐसा करके किसी कायदे-कानून या घोषित नियमों का उल्ल्ंघन नहीं किया है।


संजय कुमार सिंह

संजय कुमार सिंह

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