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जाति और सामाजिक समरसता का भ्रमजाल - नेहा दाभाड़े

Majid Khan
26 Oct 2017 12:30 PM GMT
जाति और सामाजिक समरसता का भ्रमजाल - नेहा दाभाड़े
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ऊँची जाति के कुछ लोगों ने भदरानिया, गुजरात के जयेश सौलंकी की इस माह की शुरूआत में हत्या कर दी गई। उनका दोष यह था कि वे ऊँची जातियों द्वारा आयोजित एक गरबा कार्यक्रम देखना चाहते थे। उनका सिर दीवार से टकरा-टकरा कर उनकी जान ले ली गई। जयेश सौलंकी दलित थे और वे एकमात्र ऐसे युवा नहीं हैं, जिनका उनकी जाति के कारण इतना भयावह अंत हुआ। गांधीनगर में तीन दलित युवकों पर इसलिए हमला किया गया क्योंकि उन्होंने मूंछे रखने की हिम्मत दिखाई थी। दलितों के विरूद्ध इस तरह की हिंसा और प्रताड़ना के खिलाफ सरकार की ओर से एक शब्द भी नहीं कहा गया।

गुजरात में अनुसूचित जातियों के सदस्यों के विरूद्ध हिंसा में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। सन 2016 में ऐसी 1,321 घटनाएं दर्ज की गईं जबकि 2015 में इनकी संख्या 1,009 थी। इस प्रकार, ऐसी घटनाओं की संख्या में एक वर्ष में 31 प्रतिशत की वृद्धि हुई। ऐसा नहीं है कि गुजरात इस मामले में अनोखा हो। पूरे देश में दलितों पर अत्याचार की घटनाओं में सन 2015 के मुकाबले सन 2016 में छह प्रतिशत की वृद्धि हुई। सन 2015 में ऐसी घटनाओं की संख्या 38,564 थी जो 2016 में बढ़कर 41,014 हो गई। उत्तरप्रदेश में सबसे अधिक (10,457) ऐसी घटनाएं हुईं। इसके बाद, बिहार (5,701), राजस्थान (5,134), मध्यप्रदेश (5,123) और आंध्रप्रदेश (2,343) का नंबर था। दलितों पर अत्याचार की कुल घटनाओं में से 70 प्रतिशत इन पांच राज्यों में हुई।

जाति व्यवस्था और उसके कारण होने वाला भेदभाव, भारत का एक कुरूप चेहरा है। स्वतंत्रता के 70 साल बाद भी भारत की आबादी का 16 प्रतिशत हिस्सा भेदभाव और प्रताड़ना झेल रहा है। ऐसा दावा किया जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है और भारत, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। परंतु इस विकास और इस लोकतंत्र का उन दलितों के लिए क्या अर्थ है जिन्हें खुलेआम जान से मारा जा रहा है और जिन पर क्रूर हमले हो रहे हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 17, अछूत प्रथा का निषेध करता है। अछूत प्रथा, जातिगत भेदभाव का सबसे वीभत्स स्वरूप है। जाहिर है कि राज्य का यह कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि जाति व्यवस्था का कलंक इस देश से मिटे। राजनीतिक पार्टियों ने दलितों का केवल चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल किया है और उनके असली हितों को वे नज़रअंदाज़ करती आई हैं।

अब, जबकि हिन्दुत्व की विचारधारा से प्रेरित और संचालित सरकार भारत पर शासन कर रही है तब यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम जाति व्यवस्था के मुद्दे पर हिन्दुत्ववादी संगठनों की सोच को समझें। हिन्दुत्ववादी संगठन ज़ोर-शोर से अंबेडकर जयंती मनाने लगे हैं और वे ऐसे कई प्रतीकात्मक कार्य कर रहे हैं जिनका लक्ष्य दलितों को अपने पक्ष में लामबंद करना है। परंतु इससे दलितों को क्या लाभ होगा यह समझना मुश्किल है। यह लेख जाति व्यवस्था के बरक्स हिन्दुत्व संगठनों की सोच को समझने का प्रयास है।

सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि जाति और हिन्दू धर्म का अटूट रिश्ता है। जाति, हिन्दू धर्म की मूल संकल्पना का भाग है। दुनिया में केवल हिन्दू ही ऐसा धर्म है जिसमें सामाजिक पदक्रम, धर्म का हिस्सा है। इस श्रेणीबद्ध पदक्रम और उससे जन्मी असमानताओं के कारण एकता खण्डित होती है। अंबेडकर ने लिखा था ''मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि हिन्दू धर्म और सामाजिक एकता परस्पर असंगत हैं। हिन्दू धर्म सामाजिक अलगाव में विश्वास रखता है जो सामाजिक फूट का दूसरा नाम है। अगर हिन्दू एक होना चाहते हैं तो उन्हें हिन्दू धर्म को त्यागना होगा। हिन्दू धर्म का उल्लंघन किए बगैर वे एक नहीं हो सकते। हिन्दू धर्म, हिन्दुओं की एकता में सबसे बड़ी बाधा है। हिन्दू धर्म अपने अनुयायियों में एक समूह होने का भाव पैदा नहीं कर पाता और यही भाव सामाजिक एकता का आधार है। इसके विपरीत, हिन्दू धर्म लोगों को एक-दूसरे से अलग होने के लिए आतुर बनाता है।''

यह स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म को जाति व्यवस्था से अलग नहीं किया जा सकता। हिन्दुत्व संगठनों की जाति व्यवस्था और दलितों के प्रति दृष्टिकोण को उनकी 'सामाजिक समरसता' की रणनीति के आधार पर समझा जा सकता है। साफ है कि सामाजिक समरसता का सिद्धांत, जाति व्यवस्था पर प्रश्न नहीं उठाता और ना ही उस सामाजिक पदक्रम को समाप्त करने की बात कहता है जो जाति व्यवस्था के मूल में है। जाहिर है कि हिन्दुत्व संगठनों का यह दृष्टिकोण, अंबेडकर, जो जाति के उन्मूलन की बात कहते थे, से तनिक भी मेल नहीं खाता। हिन्दुत्व संगठन, जाति व्यवस्था को कायम रखना चाहते हैं। वे उसे चुनौती नहीं देते। आश्चर्य नहीं कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह कहा था कि जाति, हिन्दू समाज में वही भूमिका अदा करती है जो खेतों में क्यारियों की होती हैं। जाति, हिन्दू समाज को व्यवस्थित और संगठित बनाए रखती है।'' उन्होंने लखनऊ में मुख्यमंत्री कार्यालय में प्रवेश करने के पहले उसका शुद्धिकरण करवाया था। उन्होंने कुशीनगर जिले के मुसहर दलित परिवारों में साबुन और शैम्पू वितरित करवाए थे ताकि वे अपने शरीर को साफ कर उनकी सभा में आ सकें।

हिन्दुत्व संगठन, हिन्दू धर्म का महिमामंडन करते हैं और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहते हैं। परंतु उनके लिए भी हिन्दू राष्ट्र और जाति के बीच सामंजस्य स्थापित करना बहुत मुश्किल है। अंबेडकर की यह मान्यता थी कि हिन्दू धर्म को जाति से मुक्त नहीं किया जा सकता और इसलिए वे बौद्ध बन गए थे। हिन्दुत्व संगठन अंबेडकर, रविदास और अन्य दलित नायकों की जयंतियां मनाकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि वे दलितों के सच्चे शुभचिंतक हैं। परंतु इन प्रतीकात्मक कार्यक्रमों और वक्तव्यों के बाद भी उनकी असली वफादारी किसके प्रति है, यह स्पष्ट है। जब भी सामाजिक न्याय की बात होती है तब वे ऊँची जातियों के पक्ष में खड़े दिखते हैं। अंबेडकर यह मानते थे कि शिक्षा और रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवाए बिना दलितों की मुक्ति संभव नहीं है और ना ही इसके बिना देश में आर्थिक प्रजातंत्र स्थापित किया जा सकता है। पददलित वर्गों को समान अवसर उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई। परंतु हिन्दुत्ववादी चिंतक लगातार यह मांग करते रहे हैं कि आरक्षण को समाप्त किया जाए। आरएसएस के प्रवक्ता मनमोहन वैद्य ने जयपुर साहित्य उत्सव को संबोधित करते हुए कहा, ''कभी न कभी जाति-आधारित आरक्षण को समाप्त करना होगा। डॉ. अंबेडकर का कहना था कि अगर ऐसी नीति चिरकाल तक लागू रहती है तो वह किसी देश का भला नहीं कर सकती। उसे समाप्त करना ही होगा और एक ऐसा समय आएगा जब सबको रोज़गार के अधिक अवसर उपलब्ध होंगे।'' आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने भी आरक्षण की नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहा कि इस व्यवस्था का इस्तेमाल राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए किया जा रहा है।

हिन्दुत्व संगठनों की दलित हितों के प्रति प्रतिबद्धता, केवल जु़बानी जमा खर्च तक सीमित है। दलितों को न्याय और समानता दिलवाना उनके एजेंडे में नहीं है। दलितों को आर्थिक न्याय उपलब्ध करवाने में राज्य बहुत मददगार साबित हो सकता है। वह उनकी बेहतरी और भलाई के लिए धन उपलब्ध करवा सकता है। परंतु इस मामले में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का ट्रेक रिकार्ड निराशाजनक है। सन 2017-18 के केन्द्रीय बजट में अनुसूचित जाति उपयोजना के लिए कुल बजट की मात्र 2.5 प्रतिशत धनराशि आवंटित की गई जबकि दिशानिर्देषों के अनुसार, इस उपयोजना के लिए 4.25 प्रतिशत धनराशि उपलब्ध करवाई जानी थी। दलितों के कल्याणार्थ चलने वाली योजनाओं की संख्या 294 से घटकर 256 रह गई है।

यह दावा किया जाता है कि सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर किए गए प्रयासों के कारण जाति और उस पर आधारित भेदभाव अब इतिहास बन गए हैं। परंतु यह सही नहीं है। आज़ादी के बाद से समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव और छुआछूत के प्रभाव को समझने के लिए कई अध्ययन किए गए हैं। हम यहां जाने-माने अध्येता प्रोफेसर सुखदेव थोराट के शोध प्रबंध ''वाय अनटचेबिलिटी एंड एट्रोसिटीज़ परसिस्ट डिस्पाइट लॉज़'' के कुछ हिस्से उद्धृत कर रहे हैं। यद्यपि शोध प्रबंध में केवल महाराष्ट्र राज्य की चर्चा है परंतु इससे यह अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है कि देश में अब भी छुआछूत किस हद तक विद्यमान है। प्रो. थोराट ने जिन अध्ययनों का हवाला दिया है उनमें निम्न शामिल हैं:

वाई तालुका सर्वेक्षण 1958

इस सर्वेक्षण में वाई में महारों को जिस भेदभाव का सामना करना पड़ता था, उसका अध्ययन किया गया। सर्वेक्षण में यह पाया गया कि महारों की पीने के पानी तक पहुँच पर अनेक रोक हैं। उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने की इजाज़त नहीं है और होटलों में उन पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए जाते हैं। किसी भी सर्वेक्षित गांव में सभी समुदायों के लोग मिलकर भोजन नहीं करते। केवल कुछ गांवों में चंद महत्वपूर्ण मौकों पर ऊँची जातियों के लोग महारों के साथ कभी-कभी एकाध कप चाय पी लेते हैं। सत्रह में से सोलह गांवों में महारों को नाई की सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं।

नासिक व बुलढाना अछूत प्रथा सर्वेक्षण 1962

यह सर्वेक्षण सन 1962 में गोखले इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिकल साईंस एंड इकोनोमिक्स द्वारा पच्चीस गांवों में करवाया गया था। इस अध्ययन से यह पता चला कि अछूत प्रथा बड़े पैमाने पर सभी गांवों में व्याप्त है। लगभग 85 प्रतिशत गांवों में दलितों के घर अलग-थलग थे, 80 प्रतिशत गांवों में उन्हें सार्वजनिक स्त्रोतों से पानी भरने की इजाजत नहीं थी। लगभग 65 प्रतिशत गांवों में उन्हें धार्मिक संस्थाओं और मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता था और 90 प्रतिशत गांवों में सभी जातियों के लोग मिलकर भोजन नहीं करते थे।

हरिजन सेवक संघ सर्वेक्षण, 1970

इस सर्वेक्षण के अंर्तगत उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी महाराष्ट्र के 192 गांवों का अध्ययन किया गया। सर्वेक्षण से यह सामने आया कि 84 प्रतिशत गांवों में दलितों की बस्ती अलग थीं, 75 प्रतिशत गांवों में दलितों को सार्वजनिक कुंओं से पानी भरने नहीं दिया जाता था और कुछ गांवो में उन्हें बहुत दूर से पानी लाना पड़ता था। लगभग 73 प्रतिशत गांवों में दलितों को सामूहिक भोजों में आमंत्रित नहीं किया जाता था और 33 प्रतिशत गांवों में उनका होटलों में प्रवेश वर्जित था। जिन गांवों में उन्हें होटलों में प्रवेश दिया भी जाता था वहां भी उनके बैठने के लिए अलग स्थान निर्धारित था और 66 प्रतिशत गांवों में दलितों को धोबी और नाई अपनी सेवाएं उपलब्ध नहीं करवाते थे।

हरिजन सेवक संघ व गोखले इंस्टीट्यूट सर्वेक्षण

यह सर्वेक्षण महाराष्ट्र के आठ जिलों के 206 गांवों (4,776 परिवारों) में किया गया। सन 1970 के दशक मंा किए गए दो अध्ययनों से यह सामने आया कि 85-90 प्रतिशत गांवों में दलितों के घर, गांवों से बाहर थे और इस तरह का भेदभाव पारंपरिक था। दोनों सर्वेक्षणों से यह पता चला कि 70-75 प्रतिशत गांवों में अछूत प्रथा का पालन किया जाता था और अछूतों को पानी के स्त्रोतों से अपनी आवश्यकता पूरी करने, मंदिरों में प्रवेश करने और सामूहिक भोजों व सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने की इजाजत नहीं थी। इन सर्वेक्षणों से यह भी सामने आया कि नल से पानी लेने के मामले में भेदभाव कुछ कम हुआ था। कुछ गांवों में दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने की इजाज़त तो थी परंतु वे मंदिर के गर्भगृह में नहीं घुस सकते थे और ना ही भगवानों की मूर्तियों को छू सकते थे।

यह भी पता चला कि 60-65 प्रतिशत गांवों में धोबी और नाई, दलितों को अपनी सेवाएं नहीं देते थे। केवल 40 गांवों में, जो आकार और आबादी में बड़े थे, दलितों की इस तरह की सेवाओं तक पहुंच थी। पंचायत और ग्रामीण सहकारी समितियों जैसे सरकारी संस्थाओं में से 30-35 प्रतिशत में अछूत प्रथा का पालन किया जाता था।

मराठवाड़ा सर्वेक्षण, 1991

यह सर्वेक्षण मराठवाड़ा के बीड़, उस्मानाबाद, नांदेड़ और लातूर क्षेत्रों के 95 गांवों में किया गया। इस सर्वेक्षण में मुख्यतः महारों, मांगो और ढोरों को शामिल किया गया।
सर्वेक्षण से यह पता चला कि दलितों के साथ गांवों की पंचायतों में बैठक व्यवस्था के मामले में भेदभाव किया जाता था। कई मामलों में उन्हें पंचायतों की बैठकों में आमंत्रित ही नहीं किया जाता था। दलितों को उन जल स्त्रोतों से पानी भरने की इजाजत नहीं थी जिनसे ऊँची जातियों के लोग पानी भरते थे। जिन 95 गांवों में सर्वेक्षण किया गया, उनमें से 77 (81 प्रतिशत) में दलितों का मंदिरों को प्रवेश वर्जित था। लगभग 50 प्रतिशत गांवों में दलित अपने पारंपरिक कार्य करने के लिए मजबूर थे। महार सड़कों पर झाड़ू लगाते थे, गोबर इकट्ठा करते थे, रात में गांवों में चैकीदारी करते थे और मृत मवेशियों के शव ठिकाने लगाते थे। जो दलित ऊँची जाति के लोगों के खेतों में काम करने से इंकार करते थे उनकी पिटाई की जाती थी और उन्हें गांवों में कोई काम नहीं देता था। विवाह जैसे सामाजिक कार्यक्रमों में दलितों को आमंत्रित तो किया जाता था परंतु 95 में से 70 गांवों में उन्हें अलग बिठाया जाता था और वे तभी भोजन कर सकते थे जब ऊँची जातियों के लोग भोजन कर लें।

अछूत प्रथा और जातिगत भेदभाव सर्वेक्षण, 2013-16

कुछ 52 मामलों के अध्ययन से यह सामने आया कि दलितों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कई तरह की रोक थीं। दलित महिलाओं के साथ जबरदस्ती संबंध बनाए जाते थे और दलित, सामाजिक और सांस्कृतिक त्यौहारों को सार्वजनिक स्थानों पर नहीं मना सकते थे। उन्हें कई पेशे अपनाने की इजाजत नहीं थी और सरकारी योजनाओं तक उन्हें समान पहुंच हासिल नहीं थी। ग्राम पंचायत के दलित सदस्यों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं किया जाता था।

आर्थिक भेदभावः नमूना सर्वेक्षण, 2015

सन 2015 में किए गए इस सर्वेक्षण में बीड़ जिले के दो तालुकों ग्योराई और पराली के 425 परिवारों के 1713 अनुसूचित जातियों के व्यक्तियों को शामिल किया गया। इससे यह पता चला कि दलितों के साथ आर्थिक भेदभाव किया जाता है। यह भेदभाव दलित किसानों, वेतनभोगियों और व्यापारियों तक से किया जाता है।

खेतिहर मजदूरों के साथ रोजगार और मजदूरी के मामले में भेदभाव होता है। लगभग 41 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि उनकी जाति के कारण ऊँची जातियों के लोग उन्हें काम नहीं देते। लगभग 17 प्रतिशत ने कहा कि एक ही तरह के काम के लिए ऊँची जाति के व्यक्ति को अधिक और नीची जातियों के लोगों को कम मजदूरी मिलती है। लगभग 56 प्रतिशत ने यह शिकायत की कि उन्हें आठ घंटे या अधिक की बेगार करनी पड़ी।

इन सभी सर्वेक्षणों से यह पता चलता है कि केवल दलितों के घर भोजन करने, किसी दलित को राष्ट्रपति बनाने या अयोध्या के राम मंदिर के शिलान्यास में किसी दलित को पहली ईंट रखने देने जैसे प्रतीकात्मक कार्यों के अतिरिक्त हिन्दुत्व संगठनों ने कभी जाति व्यवस्था को चुनौती नहीं दी। यही जाति व्यवस्था, दलितों के साथ भेदभाव का आधार है। अगर दलित अपने अधिकारों की मांग करते हैं या उन नियमों का उल्लंघन करते हैं जो ऊँची जातियों ने उनके लिए बनाए हैं, तो उन पर हमले होते हैं। उन्हें अब भी मंदिरों, पीने के पानी के स्त्रोतों, रोज़गार के अवसरों और स्वास्थ्य सेवाओं तक समान पहुंच हासिल नहीं है। उन्हें गांवों में अलग-थलग रहना पड़ता है। सामाजिक समरसता, केवल एक खोखला नारा है जिसका उद्देश्य दलितों को हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में सहभागी बनाना है। हिन्दू राष्ट्र में असमानता, भेदभाव और दलितों के खिलाफ हिंसा जारी रहेगी।

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