राष्ट्रीय

क़तर और सऊदी में टकराव् बढ़ता जा रहा है

क़तर और सऊदी में टकराव् बढ़ता जा रहा है
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Qatr and Saudi are clashing up

क़तर और सऊदी अरब की लड़ाई लंदन तक पहुंच गयी है. सऊदी अरब की और से एक सम्मलेन क़तर विरोध में किया जा रहा है तो क़तर भी सऊदी अरब के अंदर विरोधी मुहीम चला रहा है. ईरान की समाचार एजेन्सी के मुताबिक़ ब्रिटेन की राजधानी लंदन की गलियों में पिछले सप्ताह अरब देशों के झगड़े की गूंज सुनाई दी. इस विवाद के दोनों पक्षों ने एक दूसरे के विरोधी धड़ों को उकसाया. लंदन में क़तर के विद्रोही नेताओं की बैठक हुई जिसके बारे में कहा जाता है कि उसका आयोजन सऊदी अरब और इमारात ने मिल कर करवाया था.


दूसरी घटना सऊदी अरब के भीतर हुई जहां सोशल मीडिया पर विरोधियों ने 15 सितम्बर के नाम से आंदोलन छेड़ा और राजधानी रियाज़ सहित कई क्षेत्रों में प्रदर्शनों का आहवान किया. इस पूरे प्रकरण के लिए क़तर को ज़िम्मेदार माना गया. यह दोनों ही कार्यक्रम विफल हो गए और अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सके. लंदन में जो सम्मेलन क़तर सरकार के विरोधियों का हुआ और जिसमें यह मांग की गई कि क़तर की वर्तमान सरकार को बदला जाए जो आतंकवाद का समर्थन कर रही है और शैख़ अब्दुल्लाह बिन अली आले सानी को इस देश का शासन सौंपा जाए, वह उतनी सफल नहीं हो पायी जितनी सफलता की उम्मीद सऊदी अरब और इमारात को थी. हालांकि उसमें ब्रिटेन और अमरीका की कुछ बड़ी हस्तियों ने भी भाग लिया. दूसरी तरफ़ सऊदी अरब के भीतर प्रदर्शनों की जो काल दी गई वह भी अधिक सफल नहीं हो पायी.



इन दोनों प्रकरणों के पीछे कौन है यह अंदाज़ा लगाना बिल्कुल आसान है. सऊदी अरब के अलअरबिया टीवी चैनल और इमारात के अरब स्काई न्यूज़ ने क़तर के विरोधियों के सम्मेलन को ख़ूब करवेज दी और वहां दिए गए भाषणों को प्रसारित किया. दूसरी ओर क़तर के अलजज़ीरा टीवी चैनल ने सऊदी अरब में प्रदर्शनों की काल पर अनेक रिपोर्टें प्रसारित कर डालीं. दोनों देशों ने विरोधी स्वर दबाने के लिए ताक़त का इस्तेमाल किया. क़तर ने जैसा कि ख़बरें मिल रही हैं, बनी मर्रा क़बीले के एक बड़े सरदार और उनके लगभग बीस क़रीबी लोगों की नागरिकता समाप्त कर दी क्योंकि उन्होंने वर्तमान सत्ताधारी परिवार का विरोध किया था और सऊदी अरब का समर्थन किया था. सऊदी अरब ने भी बड़े पैमाने पर गिरफ़तारियां कीं. गिरफ़तार होने वालों में दो मुफ़्ती सलमान अलऔदा और औज़ अलक़रनी भी शामिल हैं.


आर्थिक विशेषज्ञ एसाम ज़ामिल और किंग फहद के बेटे अब्दुल अज़ीज़ फ़हद को भी नज़रबंद कर दिया गया है. कई महिलाओं, कवियों और बुद्धिजीवियों के जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया गया है. यह गिरफ़तारियां इस लिए हुईं कि इन लोगों ने क़तर सऊदी अरब विवाद में ख़ुद को निष्पक्ष ज़ाहिर करने की ग़लती कर दी. सऊदी अरब और क़तर की सरकारों के विरुद्ध जो कार्यक्रम तैयार किया गया वह सफल तो नहीं हुआ लेकिन इस पर मीडिया में बड़ी चर्चा रही. ब्रिटिश मैगज़ीन इकानोमिस्ट ने क़तरी विरोधियों के सम्मेलन पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की और न्यूयार्क टाइम्ज़ ने सऊदी अरब के 15 सितम्बर आंदोलन के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की.


जब सऊदी अरब ने अपने सबसे बड़े मुफ़्ती शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह आले शैख़ का सहारा लिया तो इसका मतलब यह है कि इन दोनों प्रकरणों ने दोनों ही सरकारों को चिंता में ज़रूर डाल दिया है. इन दोनों मामलों को मामूली मानने की ग़लती नहीं करना चाहिए क्योंकि जब तक विवाद जारी रहेगा तब तक इस प्रकार की घटनाएं होती रहेंगी और शायद आगे चलकर यही घटनाएं अधिक गंभीर और संगठित रूप में हों इस लिए कि इनकी प्रयोजक सरकारों के पास धन बहुत ज़्यादा है और साथ ही इंतेक़ाम की भावना भी बहुत गहरी है. सबसे बढ़कर यह कि दोनों देशों में लोकतंत्र और आज़ादी जैसी कोई चीज़ नहीं है और न ही मानवाधिकारों का कोई सम्मान है.


सऊदी अरब और क़तर का विवाद अब इस क्षेत्र के दायरे से निकल चुका है और लगातार बढ़ रहा है. हमको यह तो पता है कि विवाद के पिछले 100 दिन कैसे गुज़रे लेकिन यह नहीं पता है कि आने वाले 100 दिन कैसे गुज़रेंगे. हम बस यह अनुमान लगा सकते हैं कि लंदन में क़तर सरकार के विरोधियों का जो सम्मेलन हुआ है वह पहला और आख़िरी साबित नहीं होगी. इसी तरह सऊदी अरब के भीतर जो विरोधी आंदोलन छेड़ा गया वह भी पहला और आख़िरी नहीं होगा.


शिव कुमार मिश्र

शिव कुमार मिश्र

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