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इन सब सवालों को छोड़कर 'हैप्पी वुमेन डे' की बात अभिजातवर्गीय महिलाओं की किट्टी पार्टी जैसी बात है.
ये बोलने वाली भी एक खास प्रजाति है जिसे बुर्जुआ मीडिया के प्रचार की वजह से यही लगता है कि ये इंटरनेशनल वुमेन कैपिटलिस्ट डे जैसी कोई चीज है. पर इनकी तमाम हैप्पीनेस रफूचक्कर हो जाती है जब इन्हें इस महान दिन का सच बताया जाये कि ये तो असल में अन्तर्राष्ट्रीय श्रमजीवी महिला दिवस है. जिसकी शुरुआत मजदूर और महिला मुक्ति की रोजा लक्ज़ेमबर्ग, क्लारा जेटकिन, अलेक्सांद्रा कोलोन्ताई, जैसी योद्धाओं के नेतृत्व में की गई थी और लेनिन ने इसे 1922 में कम्युनिस्ट हॉलिडे बताया था. (हाय, यहां भी लेनिन!)
वैसे भी आज वुमेन हैप्पीनेस की हालत ये है कि पूंजीवादी आर्थिक संकट और उसके नतीजे में विकराल बेरोजगारी की मुसीबत सबसे अधिक महिलाओं को ही झेलनी पड़ रही है. भारत में तो अधिकतर स्त्रियां खुदमुख्तारी के बजाय परनिर्भरता की ओर जा रही हैं. महिलाओं की श्रमबल में भागीदारी दर 2005 के 35% से घटकर 2017 में सिर्फ 25% रह गई अर्थात काम करने लायक उम्र की केवल एक चौथाई महिलाएं ही कुछ ऐसा काम करती हैं. जिसके लिए उन्हें मजदूरी/वेतन का भुगतान हो. इसमें भी अक्सर उन्हें पुरुषों के समान कार्य के बदले 20-40% कम मजदूरी प्राप्त होती है. साथ ही यौन एवं अन्य किस्म का शोषण.
ऐसा नहीं कि शेष स्त्रियां काम नहीं करतीं. खाये-अघाये अभिजात तबके की कुछ महिलाओं को छोड़कर अधिकांश स्त्रियां दिन-रात देहतोड़, दिमाग को कुंद कर देने वाला बेहद भारी श्रम करती हैं. पर ये सामाजिक श्रम नहीं, बिना भुगतान वाला, आत्मनिर्भर के बजाय परमुखापेक्षी बनाने वाला श्रम है. जबकि इसमें सिर्फ घरेलु काम नहीं बल्कि पारिवारिक दायरे के भीतर ही किया गया सामाजिक उत्पादन भी होता है.
गहरे आर्थिक संकट की वजह से अब पूंजीवाद स्त्रियों के सामाजिक श्रम के दायरे में आने से भयभीत है. उनके घरेलु दायरे में रहते ही आज बढ़ती बेरोजगारी के एक बड़ा सवाल बन गई है, वह अब स्त्रियों की आजादी, समानता और आत्मनिर्भरता के नहीं, बल्कि अत्यंत प्रतिक्रियावादी धार्मिक, जातिवादी, पितृसत्तात्मक सांस्कृतिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार में लगा है.
इन सब सवालों को छोड़कर 'हैप्पी वुमेन डे' की बात अभिजातवर्गीय महिलाओं की किट्टी पार्टी जैसी बात है.
मुकेश असीम
शिव कुमार मिश्र
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