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...यह भूल मत जाना कि 'दलित' हो तुम?

Special Coverage News
31 July 2017 5:46 AM GMT
...यह भूल मत जाना कि दलित हो तुम?
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BJP अध्यक्ष अमित शाह जिस भी प्रदेश में जाते हैं वहां दलित के घर का लज़ीज खाना अवश्य खाते हैं..
जग मोहन ठाकन (वरिष्ठ पत्रकार)

यों तो कांग्रेस द्वारा शुरू की गयी कई योजनाओं को भाजपा भी ज्यों का त्यों या थोड़े परिवर्तन के साथ अपना रही है. चाहे जी एस टी हो, एफ डी आई हो या बैंकों की मनमोहन सरकार द्वारा चलाई गयी नो फ्रिल अकाउंट की तर्ज पर जन धन खाता योजना. हाँ इतना अवश्य है कि जहाँ कांग्रेस योजना शुरू तो करती थी, क्रियान्वयन भी करती थी, परन्तु उनको ढोल नहीं बजाना आता. भाजपा इस वाद्य यंत्र को पीटने में एकदम माहिर है.

हरिजनों को लुभाने के लिए राहुल गाँधी ने दलितों के घर भोज की नई पहल की थी. परन्तु यूपी या अन्य चुनाओं में यह पहल कांग्रेस के पक्ष में कोई खास करिश्मा नहीं दिखा पाई. हाल में भाजपा ने इसे ढोल नगाड़ों के साथ अपनाया है. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जिस भी प्रदेश में जाते हैं वहां दलित के घर का लज़ीज खाना अवश्य खाते हैं. यह खाना कितना दलित के घर में बना होता, इस पर लोग प्रारम्भ से ही सवाल उठाते रहे हैं. मीडिया द्वारा या इन्टरनेट पर जो तस्वीरें परोसी जा रही है वे संदेह ज्यादा पैदा करती हैं कि इतना उम्दा व साफ़ सुथरा तथा नये एवं चमकीले बर्तनों में परोसा जा रहा यह खाना किस गरीब दलित के घर में बनता है ? इतने सुन्दर बर्तन किस गरीब दलित के घर में उपलब्ध हैं ? यह एक सामाजिक शोध का विषय है. अगर हमारे देश का गरीब दलित इतना ही सक्षम या समृद्ध है तो फिर उसे क्यों दलित कहा जा रहा है ?

मीडिया द्वारा शेयर किये गए चित्रों में बिश्लेरी वाटर की बोतल का पानी किस दलित हरिजन के घर में उपलब्ध है, यह भी विचारणीय है. क्या यह सब ताम झाम स्वप्रायोजित तो नहीं ? लोगों का तो यही मानना है कि सब माल मसाला, बर्तन, पानी और व्यवस्था आने वाले नेता लोग अपने साथ लाते हैं. अगर दलित का कुछ है तो केवल घर, जिसमे पहले से ही एंटी सेप्टिक तरल छिड़क कर साफ़ सुथरा और जीवाणु रहित कर लिया जाता है ताकि आने वाले स्व-मेहमान कम होस्ट किसी छूत–अछूत बीमारी की चपेट में ना आ जाएँ.

आखिर यह दलित है कौन ?

दलित का शाब्दिक अर्थ है – दलन किया हुआ . इसमें हर वह व्यक्ति शामिल किया जा सकता है जो शोषित है, पीड़ित है, दबा हुआ है, मसला हुआ है, रौंदा हुआ है, कुचला हुआ है. दलन कम से कम तीन रूप में तो होता ही है. आर्थिक , सामाजिक तथा साइकोलॉजिकल.
विकिपीडिया के अनुसार – दलित हज़ारों वर्षों तक अस्पृश्य या अछूत समझी जाने वाली उन तमाम शोषित जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त होता है जो हिन्दू धर्म शास्त्रों द्वारा हिन्दू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित की गयी हैं.
किसने रचे ये हिन्दू धर्म शास्त्र ? क्यों किया गया ऐसा अमानवीय वर्गीकरण ?
प्रारम्भ से ही सत्ता व सम्पति हेतु संघर्ष होते रहे हैं. चाहे यह आदिम काल हो, चाहे मध्य काल हो जब बाहरी आक्रमण कारी भारत में हमला करने आये या चाहे वर्तमान काल जब चीन जैसे पडोसी देश जो अपने व्यापार व सत्ता को बढाने हेतु भारत को आँखें दिखा रहे हैं. सम्पति व सत्ता पर काबिज लोग ही ज्ञान पर कब्ज़ा धारी होते चले गए. वे ही अपने मालिकाना हक़ को मजबूत करने के मकसद से ऐसे ग्रंथों व धर्म शास्त्रों की रचना करने लगे ताकि आम अज्ञानी, 'हैव नोट्स' तथा वंचित तबके को अपने आधीन रखकर उनसे सेवा सुश्रुषा कारवाई जा सके. इन्ही 'हैव्ज' ने 'हैव नोट्स' को और अधिक कमजोर व असहाय बनाने के लिए इनका हर तरह से शोषण शुरू कर दिया तथा इनको प्रयाप्त मेहनताना भी नहीं दिया ताकि यह वर्ग सदा के लिए इनकी मेहरबानी का मोहताज़ बना रहे. आज भी भारतीय परिवेश में इस व्यवस्था के पोषक पुष्ट बने हुए हैं.

यह तो हो नहीं सकता कि 'हैव्ज' के घर टट्टी साफ़ करने वाले उनके पैरों को महफूज रखने हेतु जूत्ता बनाने व गांठने वाले या उनके सेवादार के रूप में काम करने वाले ने किसी धर्म शास्त्र का लेखन किया हो जो समाज का इस घटिया ढंग से बंटवारा करता हो. अगर किसी बाल्मीकि ने कोई लेखन किया भी है तो समाज को अच्छा सन्देश देने तथा समाज में समरूपता बनाने हेतु ही किया है. परन्तु इन 'हैव्ज' एवं तथा कथित धर्म के ठेकेदारों ने बाल्मीकि द्वारा लिखे ग्रन्थ को उन्ही की ही आगामी पीढ़ी को इस ग्रन्थ को पढ़ने सुनने तथा छूने तक को भी बहिष्कृत एवं वंचित कर दिया.

उन्हें जहाँ यह ग्रन्थ रखा गया वहां जाने से भी रोक दिया गया. उनको स्पष्ट निर्देश दे दिए गए कि तुम्हारा प्रवेश का क्षेत्र केवल 'टट्टी रूम' तक ही सीमित है. भले ही किताबी कानून कुछ भी कहता रहे , यह रोक अब भी जारी है. उनको बार बार कदम कदम पर याद दिलाया जाता है कि तुम दलित हो , इससे आगे बढ़ने का तुम्हारा ना कोई हक़ है ना कोई अधिकार क्षेत्र?

आज भी भले ही कोई दलित जाति का व्यक्ति कितना ही अपना आर्थिक आधार पुष्ट करले. चाहे अपने आर्थिक व ज्ञान अर्जन के आधार पर कितना ही सक्षम हो जाए. परन्तु ये समाज के सत्ता काबिज लोग अभी भी साइकोलॉजिकली उसे बार बार कदम कदम पर दलित होने का एहसास करवाने से नहीं चूकते. उन्हें पता है कि सभी प्रकार की गुलामी से मानसिक गुलामी अधिक भारी है. यही कारण है कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियों द्वारा देश के सर्वोच्च पद पर चुनाव में खड़े किये गए उम्मीदवारों तक को भी बार बार यह एहसास करवाया जाता है कि उनकी पार्टी दलित हितैषी है और इसी लिए एक दलित को इस पद पर चुनाव लडवाया जा रहा है.

आज के तकनिकी एवं भौतिक संसाधन प्रमुखता वाले दौर में भले ही कुछ दलित जातियों के व्यक्तियों ने अर्थ के साधनों पर मजबूत पकड़ बनाकर अपने आर्थिक आधार को पुष्ट बना लिया हो भले ही उन्होंने अपने मजबूत शिक्षा, आर्थिक व बुद्धिबल के आधार पर उच्च जातियों से सामाजिक रिश्ते कायम कर लिए हों, परन्तु अभी भी वो धर्म व समाज के तथाकथित ठेकेदार उन्हें साइकोलॉजिकली इतना डिप्रेस करने का प्रयास करते हैं ताकि वे उनके सामने गर्दन ना उठा सकें. उन्हें हर कदम पर याद दिलाया जाता है...यह मत भूलो कि दलित हो तुम?
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