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'विपक्षहीन भारत' मीडिया का नया शिगुफा

Vikas Kumar
16 Aug 2017 4:19 AM GMT
विपक्षहीन भारत मीडिया का नया शिगुफा
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माजिद अली खां (राजनीतिक संपादक) : केंद्र में सरकार बनाने के बाद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी जिस प्रकार पूरे देश के हर राज्य में भाजपा या भाजपा समर्थित सरकार बनाने के लिए प्रयासरत् है इसी समय मीडिया में भाजपा नेताओं के यह बयान भी सुनाई दे रहे हैं कि भारत अब विपक्षहीन रहेगा। यानी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में विपक्षहीन सरकार रहेगी। विपक्षहीन सरकार और तानाशाही में क्या फर्क है यह सोचने का विषय है। लेकिन देश की राजनीतिक स्थिति पर अगर गौर करने के बाद देखा जाए कि क्या वास्तव में देश विपक्षहीन होता जा रहा है या यह केवल मीडिया का एक दुष्प्रचार है जो नरेंद्र मोदी सरकार के हाथों की कठपुतली मात्र बनकर देशहित को भी भूल चुकी है।

अगर देश के अलग अलग हिस्सों में नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि विपक्षहीन भारत की बात केवल धोखा और जनता को भ्रमित करने की साजिश है। इस बात का आधार यह है कि अगर सर्वे किया जाए तो हर जिले में गैर भाजपा दलों का कोई न कोई बड़ा और लोकप्रिय नेता जिलें में मौजूद है जबकि भाजपा का हर जिले में कोई न कोई लोकप्रिय नेता मौजूद हो यह जरूरी नहीं। लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत हासिल कर लेना इस बात का सबूत नहीं कि भाजपा को देश की दो तिहाई वोटरों को समर्थन मिल गया है जबकि आंकड़े बताते हैं कि केवल तीस प्रतिशत लोग यानी एक तिहाई लोगों को ही भाजपा अपने पक्ष में कर पाई। दो तिहाई लोगों को समर्थन आज भी भाजपा के खिलाफ है। फिर यह सवाल पैदा होता है कि दो तिहाई लोगों के खिलाफ होने के बावजूद भी भाजपा इतना बहुमत कैसे जुटा पाई इसका सीधा सवाल यह है कि जिस प्रकार मीडिया ने लोकसभा चुनाव में गैर भाजपाई वोटरों को भ्रमित किया तथा दुष्प्रचार के माध्यम से लोगों में भय फैलाया तथा धार्मिक उन्माद को भी हवा दी गई और लगभग एक तिहाई लोगों को भाजपा के पक्ष में मोडऩे में सफल हो गयी। दो तिहाई गैर भाजपाई वोटरों को आपस में बंट जाना ही भाजपा की जीत का आधार बन गया। फिर यह सवाल पैदा होता है कि आखिर दो तिहाई वोटरों का किसी एक दल में विश्वास क्यों पैदा नहीं हुआ यह सोचने का प्रश्न है।

कांग्रेस की कपटाचारी नीति

दरअसल देश में सबसे बड़ी पार्टी तथा सबसे अधिक राज करने वाली कांग्रेस इतनी कमजोर कैसे हो गई कि विपक्षहीन भारत जैसे वाक्य जनता के बीच उछाले जा रहे हैं। इसका सीधा जवाब है कांग्रेस की कपटाचारी नीति। कांग्रेस को देश के धर्मनिरपेक्ष रूप का प्रतीक माना जाता रहा है। देश के अधिकांश जनता धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करती रही है और कांग्रेस को समर्थन देती रही है। लेकिन कांग्रेस खुद को धर्मनिरपेक्ष रखने में नाकाम रही। कभी गरम हिंदुत्व कभी नरम हिंदुत्व के सहारे वह अपने धर्मनिरपेक्ष छवि को दागदार बनाती रही। यही वजह रही कि धीरे धीरे वह लोगों में अपना विश्वास खोती रही। हर राज्य में क्षेत्रिय दलों को कांग्रेसी वोटरों को समर्थन मिलता रहा। और आज हालत यह हो गई कि कांगे्रस एक बेजान जीव की तरह एक तरफ पड़ी हुई। कांग्रेस के बेजान हो जाने से ऐसा नहीं है कि लोग धर्मनिरपेक्ष नहीं रहे लेकिन विकल्पहीनता का शिकार होकर अपने आप को संगठित नहीं कर पा रहे हैं। कांग्रेस को अगर अपना वजूद बचाना है तो खुद को सिकुलर साबित करना होगा। अपनी कपटाचारी नीतियों को छोडऩा होगा और जनता के सामने पूरे विश्वास के साथ यह दिखाना होगा कि वह वास्तव में धर्मनिरपेक्षता की अलंबरदार है

क्षेत्रीय दलों का मिशन से भटकना

कांग्रेस के कमजोर होने के बाद सिकुलर वोटरों का एक बड़ा हिस्सा क्षेत्रीय दलों के समर्थन में खड़ा हो गया। क्षेत्रीय दलों ने विभिन्न राज्यों में अपनी सरकारें बनाई तथा चलाई और लोगों को फायदा भी पहुंचाया। लेकिन धीरे धीरे पैसे की चाहत इन दलों के नेताओं में बढ़ती गई। इसका परिणाम यह हुआ कि वह किसी न किसी घोटाले में लिप्त हो गये तथा कुछ के खिलाफ सीबीआई में जांच भी चल रही है। क्षेत्रीय दलों के नेताओं द्वारा की गई इस बेइमानी ने भी लोगों को इन दलों से दूर करना शुरू किय जिसका फायदा सीधा भाजपा को यह पहुंचा कि उसके खिलाफ दो तिहाई वोट होने के बाद भी वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।

लेकिन इस सबके बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि देश विपक्षहीन लोकतंत्र के रूप में तबदील हो रहा है, करना सिर्फ इतना है कि सिकुलर लोगों को इकट्ठा होना पड़ेगा तथा जो दल भी सिकुलरिज्म के नाम पर अपने राजनीति कर रहे हैं उन्हें पक्का सिकुलर बनना होगा। कथनी और करनी के अंतर को बिल्कुल खत्म करना होगा।

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