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सूरत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस बयान से लोगों को राहत मिली है कि सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने के लिए उनकी सरकार काम कर रही है। आज के समय में जिसके पास अकूत आय नहीं हो उस परिवार में कोई गंभीर बीमारी का शिकार हुआ दवाइयों तथा अन्य चिकित्सा सामग्रियों के खर्च से उसकी कमर टूट जाती है। अगर कोई बीमार है तो उसका इलाज कराना है चाहे आपकी जो मजबूरियां हों। दवाइयों एवं अन्य चिकित्सा सामग्रियों के दाम इतने ज्यादा हो गए हैं कि आम आदमी के लिए इस ढांचे में इलाज करना ही मुश्किल है। हालांकि नरेन्द्र मोदी की सरकार ने करीब 700 दवाओं को सस्ता किया है।
लेकिन कम ही डॉक्टर हैं जो उस सूची से दवाइयां लिखते हैं। डॉक्टरों, अस्पतालों और दवा निर्माता कंपनियों की दुरभिसंधि के कारण आम आदमी इलाज के नाम पर इतना शोषित हो रहा है जिसकी शायद पहले कल्पना तक नहीं की गई हो। अगर डॉक्टर जेनेरिक दवाइयां लिखें तो वह कम दामों में मिल सकती हैं। किंतु डॉक्टर मूल जेनेरिक की जगह उसके वो विकल्प लिखते हैं जिनके साथ उनके किसी न किसी प्रकार के व्यावसायिक संबंध हैं। इसमें प्रधानमंत्री का यह कहना भविष्य के लिए उम्मीद पैदा करती है कि देश के डॉक्टर जेनेरिक दवाएं लिखें, इसके लिए जल्द कानून बनेगा। इस कानून को जितनी जल्दी सामने लाया जाए उतना ही अच्छा।
हालांकि केवल कानून बनाने से ही सब कुछ ठीक हो जाएगा ऐसा नहीं माना जा सकता है। जिस ढंग से कमीशन और अन्य उपहारांें की आदत डॉक्टरों के बड़े वर्ग को पड़ चुकी है उसे एक झटके से दूर नहीं किया जा सकता। कहने का तात्पर्य यह कि जेनेरिक दवाइयों को प्रचलन में लाने का कदम भी स्वास्थ्य क्षेत्र में व्याप्त व्यापक भ्रष्टाचार के विरुद्व एक बड़ी लड़ाई का काम है। इसमें विजयी होना कितना कठिन है इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है।
हो सकता है जेनेरिक दवाइयों को प्रचलन में लाने से कई दवा कंपनियों के सामने बंदी का खतरा पैदा हो जाए। ऐसा कौन चाहेगा कि उसकी कंपनी बंद हो जाए। फिर जो अस्पताल और डॉक्टर उनकी दवाइयों के कमीशन से मोटी कमाई कर रहे हैं वे कानून बनते ही अपने आप ऐसा करना बंद नहीं कर सकते। जाहिर है, इसे एक युद्ध की तरह लेना होगा। कितु इसे हर हाल में करना ही होगा। आम आदमी को उसकी जेब के अनुरुप स्वास्थ्य सेवाएं मिल जाएं इस लक्ष्य को पाने के लिए यह जरुरी है।
अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार