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कमजोर हाथों से यह सत्ता हर बार संकीर्ण मनोवृतियों तथा दिशाहीनता के दलदल में फिसलती चली जाती है!

कमजोर हाथों से यह सत्ता हर बार संकीर्ण मनोवृतियों तथा दिशाहीनता के दलदल में फिसलती चली जाती है!
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With weak hands, this power slips into the swamps of narrow minds and directionlessness every time.
ठोस सामाजिक बदलाव के बिना बड़ा से बड़ा राजनैतिक बदलाव बहुत छोटा और बहुत तुच्छ महसूस होता है। अगर वर्तमान सामाजिक परिदृश्य से ये "छोटापन और तुच्छता" हटना है और राष्ट्रीय चेतना सबल होनी है, तो राजनैतिक बदलाव के जो प्राधिकृत चेहरें हैं जो सत्ता-परिवर्तन का प्रतिनिधित्व भी करते हैं, उन्हें इस बहुत बड़े मक़सद का सदैव पवित्र स्मरण होना चाहिए।

अगर किसी कारणवश वे स्वयं अपनी इस महती भूमिका से अंदर हीं अंदर असहज अनुभव कर रहे हों या चारित्रिक अपर्याप्तता से कुंठित अनुभव कर रहे हों, तब भी इस भूमिका के लिए उनपर चैतन्य लोगों द्वारा एक परोक्ष दबाव अवश्य बनाना होगा अन्यथा चिर-परिचित राजनैतिक प्रपंचों की धूल मासूम जन-आकांछाओं को ढक लेगी, आम लोगों की वेदना कई गुना ज्यादा बढ़ जाएगी और बार-बार ठगे जाने का एहसास गहरा हो जाएगा।


सत्ता जिन हाथों में हो, उसे किसी भी दशा में लोभ, लालच, डर, दबाव या भ्रमवश काँपना नही चाहिए। राजनैतिक सत्ता से सामाजिक बदलाव तक की यात्रा के लिए चारित्रिक दृढ़ता पहली शर्त होती है अन्यथा कमजोर हाथों से यह सत्ता हर बार संकीर्ण मनोवृतियों तथा दिशाहीनता के दलदल में फिसलती चली जाती है। घिसे-पिटे फार्मूले को रणनीति कहा जाने लगता है। छोटी-छोटी सफलताओं को ऐतिहासिक बताने की प्रवृति बढ़ जाती है।


संगठन में व्यक्तियों की निजी उठापटक से समाज के सामने उपस्थित विराट ऐतिहासिक अवसर का सत्यानाश होने लगता है।
सच तो यह है कि वह समाज बड़ा अभागा है जिसमे समय समय पर बड़े राजनैतिक परिवर्तन तो हो जाते हों, लेकिन जहां सुखद सामाजिक बदलाव मानो ठहर गया हो। मुझे ऐसा लगता है कि सकारात्मक सामाजिक बदलाव के प्रति समर्पित लोगों के समूह को इस गंभीर विसंगति पर मंथन करके समाधान की तरफ बढ़ना होगा।
शिव कुमार मिश्र

शिव कुमार मिश्र

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