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'जीत को तय मान कर सवर्णों पर मार रहे दनादन नफरत के तीर'

Special Coverage News
24 July 2017 4:13 AM GMT
जीत को तय मान कर सवर्णों पर मार रहे दनादन नफरत के तीर
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दर्जनों जातियों के दर्जनों छोटे-छोटे दल मिलकर किन्हीं तीन-चार सवर्ण जातियों के एकमात्र दल (भाजपा) को सत्ता से हटाने के लिए लड़ रहे हैं।
दर्जनों जातियों के दर्जनों छोटे-छोटे दल मिलकर किन्हीं तीन-चार सवर्ण जातियों के एकमात्र दल (भाजपा) को सत्ता से हटाने के लिए लड़ रहे हैं। इन दर्जनों दलों की एकजुटता देखकर इनके समर्थकों में भारी जोश है।

जीत को तय मान कर सत्ता में बैठी भाजपा के समर्थक सवर्णों पर वे दनादन नफरत के तीर भी मारे जा रहे हैं। मकसद साफ है कि उस नफरत के जरिये सबको अपना अपना हक हासिल हो जाये और इस प्रक्रिया में हिंसा होती है, तो हो जाये।
जाहिर है, एकजुटता में बड़ी ताकत होती है इसलिए आज नहीं तो कल भाजपा हार भी सकती है। लेकिन क्या तब नफरत के ये तीर चलना बंद हो जाएंगे? बिल्कुल नहीं...बल्कि तब तो ये और चलेंगे। क्योंकि तब सत्ता में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा पाने के लिए एक संघर्ष शुरू होगा, जो भाजपा बनाम दर्जन दलों के बीच नहीं बल्कि इन्हीं दर्जनों दलों और उनके समर्थकों के बीच होगा। यानी संघर्ष सवर्ण बनाम बहुजन नहीं बल्कि बहुजन के इन्हीं दलों और जातियों के बीच ही होगा।
यानी इसे अगर ऐसा समझा जाये कि जातीय युद्ध भड़का कर नफरत के जिन तीरों को ये तीरंदाज चला रहे हैं, एक दिन घूम कर यही तीर इनके पिछवाड़े में भी लगने वाले हैं। क्योंकि तब जातीय युद्ध आज के जातीय युद्ध से कहीं ज्यादा बड़ा और तीव्र होगा। शायद इसे ही गृह युद्ध कहा जायेगा या फिर इसे ही पुनर्मूष्को भव की तरह वापस इतिहास में लौटकर भारत को जातीय रियासतों और सैकड़ों जातीय सामंतों के राज बदलना कहा जायेगा।
जातीय नफरत के तीर चलाने वाले कई योद्धा कहते हैं कि हमें परवाह नहीं। हम तो बहुजन हैं इसलिए जातीय युद्ध हो तो हो ही जाए। जबकि शायद उन्हें पता नहीं है कि वे बहुजन नहीं बल्कि बहुत से जन हैं...और ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली कहावत तो यही बताती है कि बहुत से जन मिलकर एक शांतिपूर्ण राष्ट्र नहीं बना सकते। भारत में तो वैसे भी बहुत से इन्हीं जनों के कारण जनपद या महाजनपद युग सैकड़ों बरस तक रहा है, जिसमें हर जाति के अपने अपने राजा और शहरों-कस्बों के आकार की रियासतें हुआ करती थीं।
अब इन बहुत से जनों को कोई क्या समझाए कि जातीय नफरत के तीर चला कर आप जिस समाज और देश को वापस हिंसा के अंधे कुएं में धकेल रहे हो, उसी समाज में आप, आपके परिजन और बाल-बच्चे और आने वाली नस्लें भी तो रहेंगी। अपने हक के लिए लड़ना कहीं से गलत नहीं है। लेकिन इतिहास के अंधेरों से नफरतों के तीर उठा उठा कर समाज और देश को तोड़ कर आप न तो इस देश और समाज का भला कर रहे हो और न ही अपनी अपनी जातियों का।
जाति के ये नफरती योद्धा खुद को बाबा साहब अंबेडकर और महात्मा गांधी से भी बड़ा ज्ञानी और कर्मवान महापुरुष मानने लगे हैं। इन्हें यकीन हो गया है कि न सिर्फ महात्मा गांधी इनकी राजनीतिक सोच-समझ और इतिहास के ज्ञान आगे बौने हैं बल्कि बाबा साहब अंबेडकर भी वह नहीं कर पाये, जो फिलहाल नफरत फैलाकर ये कर ले रहे हैं।
इन्हें कैसे यह समझाया जाए कि अंबेडकर और गांधी, दोनों ही महापुरुषों ने हजारों बरसों से जातीय युद्ध की इसी उर्वरा जमीन को संविधान से चलने वाले एक सभ्य, विकसित, शांतिपूर्ण और ताकतवर देश में बदल दिया है, जो सिर्फ और सिर्फ प्रेम, सौहार्द और एकजुटता के गीत गाने से ही संभव है।
और ऐसा भी नहीं है कि बिना नफरत के तीर चलाये, कोई जाति अपना हक नहीं ले सकती। क्या गांधी ने इस देश के बच्चे बच्चे की आजादी के हक की लड़ाई नहीं लड़ी या फिर क्या अंबेडकर ने पढ़ लिख कर अपने मनमुताबिक संविधान बनाकर, सदन के जरिये लोकतांत्रिक तरीके से अपने समुदाय के हक की लड़ाई नहीं लड़ी? दोनों ही महापुरुषों ने जिस जिस मकसद से लड़ाइयां लड़ीं और जीतीं, उसमें कहीं नफरत नहीं थी। दोनों ने ही हर तरह की हिंसा का विरोध करते हुए कानून सम्मत और इंसानियत भरे अहिंसक तरीकों से इस देश के हर व्यक्ति को एकजुट रखने की कोशिश करते हुए अपना अपना मकसद हासिल किया। ताकि यह देश भी बचा रहे और इस देश में रहने वाले समाज के बीच शांति और सौहार्द भी बना रहे।
और पहले तो इस देश की हर जाति, हर समुदाय, हर प्रान्त और भाषा-भाषी को यह समझना होगा कि यह देश या यहां की सरकार या उसका तंत्र सबको सत्ता के शीर्ष पर एक साथ नहीं बैठा सकता। चूंकि यह देश बहुलता और विविधता भरा है तो यहां यूं ही सत्ता का परस्पर जातीय या प्रांतीय, भाषा-भाषीय या सामुदायिक-धार्मिक संघर्ष चलता ही रहना है। हमें इसकी आदत डालनी होगी। और वह ऐसे कि भाजपा के आने का अर्थ उसके विरोधियों को यह नहीं लगाना है कि अब सवर्णों का राज है या फिर मायावती या लालू-मुलायम के सत्ता में आने का अर्थ यह नहीं समझना है कि अब दलितों या पिछड़ों का राज है। यह बात जरूर है कि सरकारी नौकरियों में भर्ती या ट्रांसफर-पोस्टिंग में भ्रष्टाचार या जातीय पक्षपात के जरिये जब भी किसी जाति विशेष की तरफदारी का आरोप सपा, बसपा या भाजपा पर लगता है तो इन दलों के खिलाफ जातीय नफरत बढ़ जाती है। लेकिन इसी लिए उन दल की सत्ता भी तो चली जाती है।
लिहाजा दल कोई भी आये, दिलों में बंटवारा मत होने दीजिए। नफरत कहीं से किसी का कोई भला नहीं करने वाली, यह अकाट्य सत्य गांठ बांधकर रख लीजिए। तभी तो प्रेम को सर्वोपरि रखते हुए कहा गया है कि those who live by the sword die by the sword.... यानी जो तलवार या नफरत का सहारा लेकर जीते रहे हैं, उनको भी यही नफरत एक दिन समूल नष्ट कर देगी।
अश्वनी कुमार श्रीवास्तव
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