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कुछ घंटे में ही 'लोकतंत्र की हत्या', 'लोकतंत्र के उत्सव' में बदल गई!

Special Coverage News
9 Aug 2017 12:46 PM GMT
कुछ घंटे में ही लोकतंत्र की हत्या, लोकतंत्र के उत्सव में बदल गई!
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Within a few hours, the 'killing of democracy' has turned into a 'festival of democracy

संदीप देव

कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के राजनीति सचिव अहमद पटेल राज्यसभा में जीतने में सफल रहे। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की लगायी फिल्डिंग को तोड़कर जीतना बड़ी बात है। राजनीति में हार-जीत चलती रहती है, लेकिन जिस तरह से राज्यसभा चुनाव की रोचकता इस बार सामने आयी है, वह राजनीति के प्रति एक सकारात्मक रुख पैदा करता है। शुरु में जब अहमद पटेल के हारने की संभावना दिख रही थी तो टीवी स्टूडियो में बैठे कई पत्रकारों की खीझ, झुंझलाहट, रोष 'लोकतंत्र की हत्या' के रूप में व्यक्त हो रहा था! लेकिन ज्यों ही चुनाव आयोग ने कांग्रेस की मांग को मानते हुए उनके दो विधायकों का वोट रद्द कर दिया, स्टूडियो में बैठी यही पत्रकार जमात, 'लोकतंत्र की जीत हुई', 'चुनाव आयोग असली विजेता साबित हुआ', 'यही हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती है'-जैसे जुमलों को उछालने लगी! कुछ घंटे में ही 'लोकतंत्र की हत्या', 'लोकतंत्र के उत्सव' में बदल गया! आखिर पत्रकारिता छोड़कर अहमद पटेल के लिए दिल्ली के ये लुटियन्स पत्रकार क्यों बैटिंग कर रहे थे! आइए मेरे अपने अनुभव सहित कुछ उदाहरण आपके सामने रखता हूं, आप खुद ही समझ जाएंगे…..

मैं दिल्ली के एक बड़े अखबार में कार्यरत था। जानबूझ कर उस अखबार का नाम नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि फिर मेरे वरिष्ठों का भेद खुल जाएगा। यह कांग्रेस संचालित यूपीए-2 का दौर था। मेरे अखबार का पूरा टोन कांग्रेसी था। यहां तक कि 2009 में जब कांग्रेस दोबारा से सत्ता में लौटी थी तो हमारे एक संपादक ने पूरे कार्यालय में जबरदस्त मिठाई बंटवायी थी। अपने पत्रकारिता के जीवन में पहली बार खुलेआम मैंने देखा था कि संपादकों की कोई पार्टी होती है! अन्यथा यह जानता था कि संपादक अपनी विचारधारा का प्रकटीकरण खबरों में तो करता है, लेकिन खुलेआम अपने मातहतों के बीच इसे उजागर करने से बचता है! लेकिन यूपीए के समय वह पर्दा भी हट गया था!
तो उस अखबार में कांग्रेस, खासकर गांधी परिवार के बारे में एक शब्द भी लिखना गुनाह था। स्पष्ट आदेश था कि भाजपा के खिलाफ खबर लाइए, जबकि उस समय भाजपा विपक्ष में थी और कांग्रेस चालित यूपीए-2, कॉमनवेल्थ गेम्स, 2जी, एयरसेल-मैक्सिस, कोयला खदान आवंटन, एंथ्रेक्स-देवास, अगस्ता वेस्टलैंड जैसे घोटालों के जरिए लूट मचाए हुए थी। रविवार का दिन था। हमारे वरिष्ठ संपादकों की उस दिन छुट्टी होती थी। उस छुट्टी का फायदा अकसर उठाकर मैं सत्ता के भ्रष्टाचार को उजागर करता रहता था। अपने अखबार में मैं सीएजी, रेलवे, मेट्रो, विमानपत्तन प्राधिकरण, स्वास्थ्य और स्पेशल असाइमेंट कवर किया करता था।
हमारे संपादक का स्पष्ट आदेश था कि आप आरटीआई का उपयोग खूब करें और उसके जरिये खबर निकाला करें। मैं अकसर सत्ता के भ्रष्टाचार को खोलने के लिए आरटीआई का उपयोग करता था। पत्रकारिता के बारे में कहा जाता है कि यह 'एंटी-स्टेबलिस्मेंट' है, लेकिन कांग्रेस के सत्ता में रहते ही यह 'प्रो-स्टेबलिस्मेंट' हो जाता है! आखिर क्यों सीएजी की रिपोर्ट से पहले किसी मीडियाहाउस या पत्रकार ने यूपीए के इतने बड़े-बड़े घोटालों को नहीं खोला था? कहां गयी थी उनकी खोजी पत्रकारिता? आज 'आयुष मंत्रालय में मुसलमानों को नौकरी नहीं' जैसे झूठ की खोज करने वाले खोजी पत्रकार चिदंबरम के भ्रष्टाचार को खोलने के लिए यूपीए के समय शिथिल क्यों पड़े थे? यह बड़ा और पत्रकारिता की साख से जुड़ा सवाल है? सीएजी की रिपोर्ट में तो कई मीडिया हाउस के नाम साफ-साफ लिखे थे, जो यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार में पार्टनर थे! 2जी स्पेक्ट्रम लूट में पत्रकारों की दलाली खुलकर जनता ने देखी और सुनी है। स्वयं मेरे तब के अखबार प्रबंधन का नाम भी 2जी लूट में सामने आया था। यह अलग बात है कि उसे दबा दिया गया!
आगे बढ़ते हैं! आरटीआई एक्टिविस्ट गोपाल प्रसाद मेरे मित्र हैं। वह आरटीआई लगाते और कई बार आरटीआई लगाने में मेरी सलाह भी लेते थे। विमान पत्तन प्राधिकरण देखने के कारण उससे जुड़ी अन्य एजेंसियों को भी मैं ही कवर करता था। इसमें एक सीआईएसएफ भी थी, जिसके पास दिल्ली के एयरपोर्ट आईजीआई की सुरक्षा व्यवस्था थी। आईजीआई की सूची मेरे हाथ लगी, जिसमें उन वीआईवी का नाम था, जिन्हें एसपीजी कवर मिला हुआ था। इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा में ऐसे लोगों को सुरक्षा जांच में छूट मिली हुई थी। उसमें रॉबर्ट वाड्रा का नाम भी था। अन्य लोगों के पद का नाम लिखा था, लेकिन रॉबर्ट वाड्रा के लिए उसका नाम लिखा था।
मैं जब वह रिपोर्ट लेकर अपने अखबार के दफ्तर में आया और उसे लिखा तो मेरे संपादक ने रोक दिया कि यह खबर नहीं जाएगी। मैं बहुत दुखी हुआ। झल्लाया! चीखा! लेकिन फिर एक चालाकी करते हुए आरटीआई एक्टिविस्ट गोपाल प्रसाद को इस संबंध में आरटीआई लगाने के लिए प्रश्न लिखवाए, अपने कार्यालय मंे ही बैठकर। बाद में आरटीआई के जरिए वह खबर बाहर आयी और गोपाल ने उसे पीटीआई को जारी किया। मेरे संपादक ने एक अखबार में उसे छापने से मना किया था, गोपाल के आरटीआई की वजह से वह एक दिन सारे अखबार, वेब, टीवी चैनल पर आ गया! इस तरह से लिया मैंने लिया अपना बदला!
यह तो मैं पहले से जानता था कि गांधी परिवार के खिलाफ इस अखबार में खबर नहीं जाएगी, लेकिन मैं अपना प्रयास नहीं छोड़ता था! पत्रकार हूं, अंदर चिकोटी काटती रहती थी! एक दिन रविवार का फायदा उठाकर आरटीआई से ही मैंने एक खबर लिखी कि 'राहुल गांधी दलितों की बात तो करते हैं, लेकिन आजादी के बाद से एक भी सरकारी योजना ऐसी नहीं बनी, जो अंबेडकर के नाम पर हो।' उस दिन रविवार को भी संपादक आ गये थे और उन्होंने उस खबर को रोक दिया। लेकिन मेरे तत्कालीन बॉस ने यह समझा कि संपादक ने पहले पेज पर उस खबर को जाने से रोका है, इसलिए उन्होंने कहा कि इस खबर को अंदर ले लो। यानी संपादक ने तो पूरी खबर रोकी थी, लेकिन समझ के फेर के कारण वह खबर अंदर के पेज पर चली गयी और अच्छे से प्रकाशित भी हो गयी।
अगले दिन तो मेरी शामत आ गयी। मेरे यहां संपादकों की पूरी टोली थी। चूंकि पद लिखूंगा तो पत्रकारिता से जुड़े लोग समझ लेंगे, इसलिए यही समझ लीजिए कि उनमें से एक संपादक ने मुझे बुलाकर खूब झाड़ा और कहा, 'तुमने तो खबर लिख दी, अब अहमद भाई को जवाब मुझे देना है!' 'अहमद भाई?' मैंने जानबूझ कर कहा, 'क्या हमारे कोई नये संपादक आए हैं?' 'मैं अहमद भाई पटेल की बात कर रहा हूं', उन संपादक ने झुंझलाते हुए कहा! कहा, 'अखबार केवल तुम्हारे रिपोर्ट से नहीं चलती है। इसे चलाना पड़ता है। आइंदा गांधी परिवार के खिलाफ एक भी खबर बिना दिखाए मत भेजना।' मैंने कहा-'मैंने अपने तत्कालीन बॉस को दिखा दी थी।' उन्होंने कहा-'हां गलती तुम्हारी नहीं, उन्हीं की है।' बाद में मेरे तत्कालीन बॉस की खूब क्लास लगी!
फिर एक दिन एक दूसरे महान कांग्रेसी संपादक महोदय मेरे पास आए और चिढ़ते हुए बोले, 'अंबेडकर से बड़ा लगाव है न तुम्हें? आज दिल्ली में अंबेडकर की मूर्ति लगी है क्यों नहीं कोई खबर लिखी?' मैं हंस पड़ा, और कहा, 'सर अंबेडकर से मुझे कोई लगाव नहीं है।' 'फिर उस दिन वह खबर क्यों लिखी थी'? उन्होंने कहा! मैंने कहा-'आरटीआई से खबर लिखने की यहां आजादी है, इसलिए लिखी थी।' वह झुंझलाते हुए वहां से निकल गये।
पूरे पत्रकारिता जीवन में पहली बार स्पष्ट रूप से और साफ-साफ पता चला कि सोनिया गांधी के राजनीति सलाहकार अहमद पटेल दिल्ली की लुटियन्स मीडिया के 'सुपर एडिटर' हैं! आप सभी को याद होगा कि 'कैश फॉर वोट' का स्टिंग तब के राज्यसभा के विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने तब के तत्कालीन सीएनएन-आईबीएन ग्रुप से कराया था। तब उसके संपादक राजनदीप सरदेसाई होते थे। उन्होंने खबर चलाने से पूर्व अपने चैनल पर इसका खूब प्रचार भी किया था, लेकिन आखिर समय में उसे चैनल पर नहीं चलाया गया। इसकी वजह से परमाणु विधेयक पर चर्चा के दौरान ही भाजपा सांसदों को लालकृष्ण अडवाणी जी संसद में ले आए थे और वहीं करोड़ों रुपये का नोट पेश कर दिया था। तब मीडिया के बीच यह चर्चा आम थी और यह आरोप भी खूब लगा था कि उस सीडी में अहमद पटेल और अमर सिंह सांसदों को खरीदते हुए दिख रहे थे, जिसके कारण उसे दबाया गया। आरोप यह था कि संसदीय लोकतंत्र को काला करने वाले अध्याय में शामिल अपने सुपर एडिटर' को तब का चैनल एडीटर बचा रहा था!
इसलिए कल रात जब अहमद पटेल की हार की संभावना से कुछ पत्रकारांे के चेहरे पर हवाईयां उड़ी हुई देखी और उनके जीतते ही उनकी खुशी देखी तो मुझे अतीत अचानक से याद आ गया। यह अहमद पटेल की जीत की खुशी से अधिक लुटियन्स पत्रकारों के 'सुपर एडिटर' की जीत की की खुशी थी! जाते-जाते, मेरे एक वरिष्ठ साथी ने राहुल वाली खबर के दिन मुझे पड़ी डांट के दौरान सांत्वना देते हुए कहा था, आज अहमद पटेल के कारण ही सारे संपादक लग्जरी लाइफ एंज्वाय करते हैं! यहां तक कि कई पत्रकार अपने क्रेडिट कार्ड का बिल भरवाने तक के लिए अहमद भाई के चक्कर लगाते रहते हैं! तो तुम क्यों बेवजह पंगा लेते हो! चुपचाप नौकरी करो और मस्त रहो!
तो जिस अहमद भाई पर 10 साल तक पत्रकारों को धन-कुबेर बनाने का आरोप है, उनके पक्ष में सोनिया गांधी की रहस्यमी बीमारी, सोनिया-राहुल की गुप्त विदेश यात्रा, रॉबर्ट वाड्रा और प्रियंका के वीआईपी जीवन की हकीकत यदि इन्होंने दबा दिया तो क्या गुनाह किया? ये तो भी उस 'सुपर एडिटर' की नौकरी ही कर रहे हैं! यह खुशी उस अहमद पटेल की जीत से अधिक उस 'सुपर एडिटर' की जीत का है, जो दिल्ली की लुटियन्स मीडिया का माई-बाप है!

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