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कब तक सूनी होती रहेगी मां की गोद, कब तक उजड़ता रहेगा मांग से सिंदूर..?

Arun Mishra
24 April 2017 2:19 PM GMT
कब तक सूनी होती रहेगी मां की गोद, कब तक उजड़ता रहेगा मांग से सिंदूर..?
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निंदा के अलावा और क्या कर सकती है सरकार?
(बुर्कापाल की घटना पर त्वरित टिप्पणी पूरन साहू)

राजनांदगांव। छत्तीसगढ़ के बस्तर-सुकमा बुर्कापाल में 24 मार्च को सीआरपीएफ के करीब दो दर्जन जवानों के शहादत की खबर...। अब प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, गृह मंत्री राम सेवक पैंकरा और देश के गृह मंत्री राजनाथ सिंह यहीं कहेेगें न कि हम घटना की निंदा करते हैं... नक्सलियों की कायराना हरकत है.. हम देखते हैं, हम ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे...कोई ठोस रणनीति बनाएंगे फला...फला और कई बातें। ज्यादा सेे ज्यादा जनता को दिखाने के लिए मुख्यमंत्री और उनके मंत्री यहां-वहां के आयोजित कार्यक्रमों को रद्द कर देंगे, टाल देंगे, श्रद्धांजली सभाएं होगी, मोमबत्ती जलाकर शहीदों को नमन किया जाएगा, सरकार के विपक्षी लोग हल्ला मचाएंगे क्योंकि उनकी आदत सी हो गई है, बाद में वे भी खामोश...., सिवाय इसके और कुछ नहीं होगा।

दो दिनों तक ये खबर अखबार की सुर्खियां बनी रहेंगी बाद में हालात जस के तस। आखिर कब तक चलता रहेगा यह दौर? आखिर क्यों नहीं बन पा रही है नक्सलियों से निपटने के नाम पर ठोस रणनीति... इस पर ङ्क्षचतन करें तो यह बात साफ तौर पर छनकर सामने आती है कि यहां नक्सली उन्मूलन के नाम का एक बड़ा बजट सरकार में बैंठे सफेद पोशों के अलावा, एसी कमरे में बैठकर नक्सल उन्मूलन की रणनीति बनाने वालों के लिए गाढ़ी कमाई का एक बड़ा जरिया बना हुआ है। वे स्वयं नहीं चाहते कि छत्तीसगढ़ में नक्सली समस्या जड़ से खत्म हो। यदि समस्या खत्म हो जाएगी तो नक्सल उन्मूलन में आने वाले बड़े बजट का वे दुरूपयोग कैसे कर पाएंगे? कैसे लग पाएंगी उनकी गाड़ी नक्सल सर्चिंग में? बंद हो जाएगी उनकी ठेकेदारी? बंद हो जाएंगे नक्सल उन्मूलन के नाम पर होने वाली सामग्रियों की खरीदी में कमीशनखोरी? और भी कई बाते हैं जो कहीं नहीं जा सकती?

खैर केद्र और छत्तीसगढ़ सरकार की नक्सल मामले में रणनीति बनाने की बात 'बाजारू"हो गई है वे कहते रहेंगे और लोग मरते रहेंगे...., एक मां की गोद सुनी होती रहेगी, मांग से सिंदुर उजड़ता रहेगा, बाप बेटे को और भाई-भाई को कंधा देते रहेगा...एक बच्चे के सिर से बाप का साया उठता रहेगा इससे इस देश और प्रदेश की सरकार को कोई फर्क पडऩे वाला नहीं हैं। आखिर में क्या करेंगे वे ऐसी घटनाओं के लिए बनी योजनाओं के तहत किसी को बीमा का चेक दे देंगे तो किसी को अनुकंपा में नौकरी..? अहंम सवाल यह है कि आखिर नक्सल समस्या से निपटने की ठोस रणनीति क्यों नहीं बन पाती, आखिर क्यों और क्यों? जब देश में बड़े-बड़े हर समस्या का हल निकाला जा सकता है तो नक्सल समस्या ऐसी कौन से बीमारी हो गई हैं जिसका इलाज आज तक संभव नहीं हो पाया?

प्रदेश में गुप्त सूचना तंत्र पूरी तरह से फेल
लगातर नक्सली घटनाओं को देखकर, सुनकर ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ में सरकार और पुलिस का गुप्त सूचना तंत्र तो पूरी तरह से फेल है। आईबी हो, एलआईबी हो या सेंट्रल एलआईबी या अन्य सूचनातंत्र। यूं कहें तो पूरी तरह से फेल है। हां इन एजेंसियों के पास इस बात की सूचना जरूर रहती है सीएम के खिलाफ क्या हो रहा है, सांसदों के खिलाफ क्या हो रहा है। मंत्रियों को कौन घेरने जा रहा है, कौन आया, कौन गया, कौन जाने वाला है, जोगी क्या कर रहा है, फला, फला और अन्य कई बातें, पर इस बात की सूचना नहीं रहती कि नक्सली हलचल कहां हैं, उनकी रणनीति किधर बन रही है ताजा हालात कैसे हैं? यदि ऐसी एजेंसियां पूरी ईमानदारी से काम करती तो क्या आए दिन शहीदों को नमन और शहीदों श्रद्धांजली की नौबत आती? कतई नहीं। आज बस्तर में जो हालत है उसमें जर्नलिजम पर भी पुलिस और सरकार का भरोसा नहीं रहा है। ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जब नक्सल मामले की सच्चाई का पर्दाफाश करने वालों को सलाखों के पीछे जिंदगी गुजारनी पड़ी है।

आखिर में चार पंक्तियाँ
मैं कतका करो बखान ओ मोर धरती मइया जय होवे तोर..
*मोर छंईया-भुईंया जय होए तोर...
शहीदों को श्रद्धांजली...नमन
रिपोर्ट : आनंद प्रकाश
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