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O Modi! why did you do this to me ?
जब किसी व्यक्ति की आखिरी ट्रैन भी छूट जाए। गंतव्य तक जाने का और कोई साधन नही हो तो उस व्यक्ति के पास किसी बेंच पर रात गुजारने के अलावा कोई विकल्प नही बचता है।
यही भाजपा के परिदृश्य से अलग हुए आडवाणी जी के साथ हुआ है। उनके पास कोविंद का समर्थन करने के अलावा और कोई विकल्प बचा ही नही था। वे इंतजार करते रहे कि नामांकन के लिए उनसे आने की हाथा जोड़ी की जाएगी। लेकिन जब किसी का बुलावा नही आया तो मजबूरीवश वे मोदी द्वारा आयोजित नामांकन समारोह में शरीक होने के लिए पहुँच ही गए। अगर वे नही जाते तो उन पर यह तोहमत लगाई जाती कि राष्ट्रपति का उम्मीदवार नही बनाने से उन्होंने नामांकन समारोह का बहिष्कार किया। इससे उनकी रही सही इज्जत का भी फालूदा हो जाता। मन मारकर ही सही, उन्होंने समारोह में पहुँच कर अपनी सदाशयता का परिचय दिया। इसी प्रकार मुरली मनोहर जोशी भी पहुँचने को विवश हुए।
यह चर्चा बड़े जोरो से थी कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह, अरुण जेटली, वेंकट नायडू और खुद रामनाथ कोविंद आडवाणी के घर जाकर उन्हें ससम्मान नामांकन समारोह में लाएंगे। इससे आडवाणी का सम्मान तो बरकरार रहता ही, मोदी के कद में भी इजाफा होता। लेकिन मोदी ने ऐसा करना भी मुनासिब नही समझा।
अगर आडवाणी भाजपा से बगावत करके स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में नामांकन दाखिल करते तो उनकी जीत सुनिश्चित थी। ऐसे में विपक्ष भी मीरा कुमार का नामांकन वापिस लेकर आडवाणी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो जाता। इससे मोदी को अच्छी तरह पटखनी दी जा सकती थी। विपक्ष ने इसके लिए भरपूर कोशिश भी की। एक बार को आडवाणी ने ऐसा मन भी बना लिया, लेकिन उन्होंने अपनी पुत्री प्रतिभा की सलाह पर एन वक्त अपना निर्णय बदल लिया।
लेखक महेश झालानी के अपने विचार है
शिव कुमार मिश्र
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