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वकील बने अर्थशास्त्र के डॉक्टर, अर्थव्यवस्था कोमा में, देश सदमे में
अश्विनी कुमार श्रीवास्तव
एक वकील को वित्त मंत्री बनाये जाने का नतीजा शायद यही होना था, जो इस वक्त हो रहा है। वकील, पुलिस या जज कानून बनाना और उसका कड़ाई से पालन करवाना तो सबसे बेहतर जानते हैं लेकिन अर्थशास्त्र का यह मौलिक नियम उन्हें कोई नहीं सिखा सकता कि बाजार में न तो खरीद-बिक्री किसी हाल में रुकनी चाहिए और न ही इंसपेक्टर राज के जरिये बाजार में ऐसी अफरातफरी मचाई जानी चाहिये, जिससे व्यापारी और खरीदार-निवेशक घबरा कर घरों में बैठ जाएं।
वकील बाबू को अर्थशास्त्र का डॉक्टर बनाये जाने के बाद से ही देश की अर्थव्यवस्था और बाजार कोमा में पहुंच गया है। शायद ही कोई ऐसा सेक्टर होगा, जिसके व्यापारी, निवेशक या कर्मचारी इस समय फल फूल रहे होंगे। रियल एस्टेट सेक्टर और उससे जुड़े उद्योग, जैसे कि विनिर्माण, स्टील, सीमेंट, पेंट, इंजीनियरिंग, भवन निर्माण सामग्री, बैंक आदि में तो इस वक्त त्राहि माम् टाइप कातर आवाजें सुनाई भी देने लगी हैं। देश का तकरीबन हर सेक्टर, उसके व्यापारी, उसमें पैसा लगाए बैठे निवेशक, खरीदार-विक्रेता, उसके कर्मचारी...हर कोई मोदी जी और वकील बाबू से त्राहि माम् यानी कि मुझे बचा लो जैसी गुहार लगा ही रहा है।
लेकिन वकील बाबू इसी में खुश हैं कि उनका कानूनी डंडा चला है तो यह तो होना ही था...क्योंकि उनको तो यही सिखाया-समझाया गया है अपनी पढ़ाई के दौरान कि कानून का डंडा पड़ते ही जो जितनी जोर से चीखे, वह उतना ही बड़ा मुजरिम होगा। लिहाजा वकील बाबू को लग रहा है कि इन चीखों में ही उनकी कामयाबी और देश की खुशहाली छिपी है। जबकि एक अर्थशास्त्री कभी ऐसी गलती नहीं करता...वह कभी चंद टैक्स चोरों या काला धन रखने वालों को पकड़ने के लिए देशभर के बाजार और व्यापार में कानून की दहशत फैलाकर अफरातफरी नहीं मचाता।
वैसे, ऐसी मूर्खतापूर्ण गलती तो शायद कोई अच्छा कानूनविद भी नहीं करता। क्योंकि यह कौन सी समझदारी है कि चंद मुजरिमों को पकड़ने के लिए सारे देश की जनता पर ही डंडे बरसाए जाने लगें। नोटबन्दी तो तकरीबन ऐसा ही फैसला था, जिसमें कुछ लोगों के पास मौजूद नकदी को पकड़ने के लिए पूरे देश पर नोटबन्दी का डंडा चला दिया गया था।