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वकील बने अर्थशास्त्र के डॉक्टर, अर्थव्यवस्था कोमा में, देश सदमे में

Special Coverage News
26 July 2017 3:12 AM GMT
वकील बने अर्थशास्त्र के डॉक्टर, अर्थव्यवस्था कोमा में, देश सदमे में
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जनता द्वारा नकारे वकील को वित्त मन्त्री बनाकर, देश का सत्यानाश कर दिया!

अश्विनी कुमार श्रीवास्तव

एक वकील को वित्त मंत्री बनाये जाने का नतीजा शायद यही होना था, जो इस वक्त हो रहा है। वकील, पुलिस या जज कानून बनाना और उसका कड़ाई से पालन करवाना तो सबसे बेहतर जानते हैं लेकिन अर्थशास्त्र का यह मौलिक नियम उन्हें कोई नहीं सिखा सकता कि बाजार में न तो खरीद-बिक्री किसी हाल में रुकनी चाहिए और न ही इंसपेक्टर राज के जरिये बाजार में ऐसी अफरातफरी मचाई जानी चाहिये, जिससे व्यापारी और खरीदार-निवेशक घबरा कर घरों में बैठ जाएं।



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वकील बाबू को अर्थशास्त्र का डॉक्टर बनाये जाने के बाद से ही देश की अर्थव्यवस्था और बाजार कोमा में पहुंच गया है। शायद ही कोई ऐसा सेक्टर होगा, जिसके व्यापारी, निवेशक या कर्मचारी इस समय फल फूल रहे होंगे। रियल एस्टेट सेक्टर और उससे जुड़े उद्योग, जैसे कि विनिर्माण, स्टील, सीमेंट, पेंट, इंजीनियरिंग, भवन निर्माण सामग्री, बैंक आदि में तो इस वक्त त्राहि माम् टाइप कातर आवाजें सुनाई भी देने लगी हैं। देश का तकरीबन हर सेक्टर, उसके व्यापारी, उसमें पैसा लगाए बैठे निवेशक, खरीदार-विक्रेता, उसके कर्मचारी...हर कोई मोदी जी और वकील बाबू से त्राहि माम् यानी कि मुझे बचा लो जैसी गुहार लगा ही रहा है।


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लेकिन वकील बाबू इसी में खुश हैं कि उनका कानूनी डंडा चला है तो यह तो होना ही था...क्योंकि उनको तो यही सिखाया-समझाया गया है अपनी पढ़ाई के दौरान कि कानून का डंडा पड़ते ही जो जितनी जोर से चीखे, वह उतना ही बड़ा मुजरिम होगा। लिहाजा वकील बाबू को लग रहा है कि इन चीखों में ही उनकी कामयाबी और देश की खुशहाली छिपी है। जबकि एक अर्थशास्त्री कभी ऐसी गलती नहीं करता...वह कभी चंद टैक्स चोरों या काला धन रखने वालों को पकड़ने के लिए देशभर के बाजार और व्यापार में कानून की दहशत फैलाकर अफरातफरी नहीं मचाता।


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वैसे, ऐसी मूर्खतापूर्ण गलती तो शायद कोई अच्छा कानूनविद भी नहीं करता। क्योंकि यह कौन सी समझदारी है कि चंद मुजरिमों को पकड़ने के लिए सारे देश की जनता पर ही डंडे बरसाए जाने लगें। नोटबन्दी तो तकरीबन ऐसा ही फैसला था, जिसमें कुछ लोगों के पास मौजूद नकदी को पकड़ने के लिए पूरे देश पर नोटबन्दी का डंडा चला दिया गया था।


बहरहाल, अगर सिर्फ रियल एस्टेट सेक्टर की ही बात की जाए तो यहां तो फिलहाल जबरदस्त उठापटक का दौर चल रहा है। एक तरफ तो यूनिटेक के डायरेक्टर्स और आम्रपाली के एमडी, अन्य डायरेक्टर और अधिकारियों की गिरफ्तारी जैसी खबरें आने लगी हैं तो दूसरी तरफ रियल एस्टेट सेक्टर को नियंत्रित करने वाला नया कानून रेरा यानी रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी के आने के बाद देशभर से न जाने कितने बिल्डरों की गिरफ्तारी की आशंका भी जताई जा रही है।

बिक्री भी पिछले तीन साल से तकरीबन न के बराबर है और इसीलिए प्रॉपर्टी के दाम या तो स्थिर हैं या नीचे जा चुके हैं। निर्माण सामग्री की कीमतें आसमान पर होने के कारण शायद ही कोई ऐसा प्रोजेक्ट हो जहां निर्माण कार्य तेज गति से चल पा रहा हो इसलिये ज्यादातर रियल एस्टेट कंपनियों के मौजूदा प्रोजेक्ट भी लगभग अटके ही पड़े हैं। नोटबन्दी, बेनामी सम्पति पर हमला, ब्लैक मनी की तलाश और जीएसटी पर मची अफरातफरी ने प्रॉपर्टी की खरीद-बिक्री को लगभग शून्य पर पहुंचा दिया है।
जाहिर है, रियल एस्टेट उद्योग की इस बदहाली की कीमत सिर्फ रियल एस्टेट कंपनियों को ही नहीं चुकानी पड़ रही है बल्कि इससे जुड़े तमाम उद्योगों के ठप होने, इन सभी उद्योगों के लाखों कर्मचारियों की छंटनी या नौकरी पर तलवार लटकने, होम लोन पर ही टिके देश के बैंकों के डूबने और देश की जीडीपी/ अर्थव्यवस्था के नीचे जाने की तस्वीर भी सामने आ ही रही है।

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वकील बाबू की नासमझी का शिकार हुए लोग फिलहाल तो अपना-अपना दर्द संभालने और किसी तरह अपना अस्तित्व बचाये जाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन मोदी जी और वकील बाबू शायद यह भूल रहे हैं कि देश की जिस जनता के पेट पर लात मारकर भी वह चैन की बंसरी बजा रहे हैं, उसी जनता के दरबार में उन्हें अपना सर झुकाकर फिर एक बार 2019 में भी झोली फैलानी है। जाहिर है, तब यह जनता उनकी झोली में वोट की भीख देगी या पिछवाड़े पर लात, इस राज का खुलासा भी जनता अब तभी ही करेगी।


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