राष्ट्रीय

उपचुनाव में हार कर योगी के गढ़ गोरखपुर और मौर्य के गढ़ फूलपुर का किला गंवाने के फायदे!

उपचुनाव में हार कर योगी के गढ़ गोरखपुर और मौर्य के गढ़ फूलपुर का किला गंवाने के फायदे!
x

वरिष्ठ पत्रकार अश्वनी श्रीवास्तव

कॉन्सपिरेसी थ्योरी: उपचुनाव में हार कर योगी के गढ़ गोरखपुर और मौर्य के गढ़ फूलपुर का किला गंवाने के फायदे क्या हुए और क्या नुकसान हुआ, उसका विश्लेष्ण!

1- अब दो उपमुख्यमंत्री और एक मुख्यमंत्री वाली अजीबोगरीब सरकार में एक उपमुख्यमंत्री और खुद मुख्यमंत्री अपना-अपना दुर्ग गंवा बैठे तो इन तीनों में सबसे ताकतवर, मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार और 2019 के लिए यूपी का खिवैया कौन होगा?
जवाब आसान है- बचा हुआ एक उपमुख्यमंत्री यानी दिनेश शर्मा। दिनेश शर्मा कौन हैं? इसका जवाब भी बहुत आसान है- सरकार का मुखिया चुने जाने के वक्त संघ की पहली और एकमात्र पसंद, जिसे संघ ने ही उपमुख्यमंत्री बनाया था। बाकी के दो यानी योगी और मौर्य तो उस वक्त जबरन गले पड़ गए थे इसलिए उन्हें मन मसोस कर सत्ता सौंपनी पड़ी।
2- इस हार से अब विपक्ष भी ईवीएम के मसले पर कुछ बोलने की स्थिति में नहीं रह गया। क्योंकि यदि वह इस जीत पर जश्न मना रहा है तो जाहिर सी बात है कि 2019 में करारी पराजय मिलने के बाद ईवीएम पर किस मुंह से सवाल उठाएगा। यानी कि सरकार अब बिना किसी रोक-टोक या विरोध के 2019 का पूरा चुनाव ईवीएम से करा सकती है। ईवीएम पवित्र हो गयी, यह सबसे बड़ा फायदा है इस हार का।
....ये तो थे दो बड़े फायदे। अब जरा नुकसान पर भी नजर डाल लीजिये।
1- इस हार का असर 2019 के चुनाव पर पड़ेगा। सपा-बसपा का गठबंधन हो जाएगा, विपक्ष एकजुट हो जाएगा और भाजपा के वोटर व कार्यकर्ता का मनोबल कमजोर हो जाएगा। यह नुकसान जबरदस्त है बशर्ते अगर ऊपर जो फायदे गिनाए गए हैं, उनमें से ईवीएम वाला फायदा गिना ही न जाये।
अर्थात ईवीएम पर लगने वाले सभी आरोपों को असत्य मानते हुए उसे पवित्र मान लिया जाए। और क्या पता ऊपर बताया गया फायदा ही सत्य हो...तब तो यह नुकसान नहीं बल्कि स्क्रिप्टेड हार ही हो सकती है। बहरहाल, ईवीएम का सच क्या है, अब यह सवाल पूछने वाला कोई है ही नहीं।
क्योंकि जिसे पूछना है, वह तो ईवीएम से मिली जबरदस्त जीत के जश्न में ही डूबा है। तो फिर सानू की...होण दो जश्न...बजने दो ढोल-ताशे। असी भी नाचेंगे....2019 की करारी पराजय मिलने तक तो नाच ही सकते हैं😉😉😉
2- लोकसभा में दो सीट कम हो गईं। यह भी नुक्सान तो है...मगर चंद महीनों का ही तो है। इस बार 300 से ऊपर सीट लाकर यह दो सीट हारने की भरपाई भी हो ही जाएगी। बीजेपी के चाणक्य, जिन पर ईवीएम सेट करने का आरोप लगता रहा है, वह चुनाव से एक बरस पहले से ही सीट बता तो रहे हैं कि इस बार बीजेपी 350 सीट लाएगी।
कोई इस पर ध्यान नहीं दे रहा लेकिन मैं तो उस वक्त से इन्हें गंभीरता से लेने लगा हूँ, जब से यह लगभग हर चुनाव में बीजेपी कितनी सीट लाएगी, यह पहले ही घोषणा कर देते हैं। लोग नाहक ही इन पर आरोप लगाते हैं कि यह ईवीएम सेट करते हैं इसलिए इन्हें पहले से पता होता है कि कितनी सीट आएगी और चुनाव से तथा मतदान से पहले ही यह सर्वे आदि के जरिये इन नतीजों का माहौल बना देते हैं। मैं इस पर यकीन नहीं करता...कतई नहीं। क्योंकि यदि ऐसा होता तो भला गोरखपुर और फूलपुर जैसी अहम लोकसभा सीट ये हारते....
बेहरहाल, नफा-नुकसान गिना दिया। अब खुद ही दिमाग लगा कर तय कर लीजिए कि जिसको राजनीति का चाणक्य कहा जाता है, वह इसमें से क्या चुनता। हार कर होने वाले फायदे या जीत कर होने वाले नुकसान? क्या चाणक्य महोदय इस उपचुनाव से पहले जीत-हार के नफा-नुकसान का आंकलन करने बैठे नहीं होंगे? और यह राजनीति है...यहां सत्ता में आने के लिए ऐसे ही षड्यंत्र रचे जाते हैं। हारना भी कई बार इसी तरह के षड्यंत्र की कामयाबी के लिये जरूरी हो जाता है।

Next Story