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Archived
उत्तराखंड के सीएम की नोट बंदी की सभा में मौजूद लोंगों की संख्या जान उड़ गये शाह और मोदी के होश
शिव कुमार मिश्र
9 Nov 2017 4:07 AM GMT
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एक साल पहले आज ही के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी का फैसला लेकर पूरे देश को चौंका दिया था. रातों रात अफरातफरी मचाने वाले इस फैसले के बाद बैंक और एटीएम में लंबी कतारें भी लगी और कई लोगों को उन कतारों में अपनी जान भी गंवानी पड़ी. लेकिन कहीं न कहीं आम जनता इस बात को लेकर जरूर खुश थी कि जिन तिजोरियों का कोई हिसाब-किताब किसी के पास नहीं था, अब उनसे काला धन बाहर आएगा.
नोटबंदी इस फैसले के पक्ष में लोग खड़े थे तो दूसरी और विपक्ष इस फैसले को तानशाही फरमान बता कर सड़कों पर उतर आया था. इसके बाद एक बार फिर प्रधानमंत्री देश के सामने आये और सिर्फ 50 दिन का समय मांग कर देश की जनता को एक सही दिशा देने का वादा किया.
आज नोटबंदी के फैसले को एक साल हो गया है और दोनों ही पक्ष चाहे वो सत्ता के हों या फिर विपक्ष में खड़े विरोधी दल हों, फिर से आमने-सामने खड़े हैं. देश के तमाम राज्यों की तरह उत्तराखंड में भी पक्ष और विपक्ष इसी मुद्दे को लेकर जनता की अदालत में खड़े हैं, जहां उत्तराखंड की अस्थाई राजधानी देहरादून में कांग्रेस पार्टी ने हज़ारों की संख्या में जुलूस निकालकर इसका विरोध किया तो वहीं दूसरी ओर बीजेपी ने नोटबंदी के फैसले के पक्ष में विचार गोष्ठी का आयोजन किया.
खाली कुर्सियों के बीच हुई मुख्यमंत्री की गोष्ठी
बीजेपी ने आज देहरादून के एक बड़े सभागार में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत और प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट के नेतृत्व में जिस गोष्ठी का आयोजन किया. आश्चर्यजनक रूप से उस पूरी विचार गोष्ठी में सिर्फ 43 लोग ही उनको सुनने के लिए पहुंचे थे. सीएम की सभा में 100 लोग भी जमा न हो पाना सरकार और संगठन पर कहीं न कहीं सवालिया निशान जरूर खड़ा कर देता है. हालांकि किसी तरह से कुछ स्कूली बच्चों को सभागार में बुलाकर खाली पड़ी कुर्सियों को भरने की कोशिश भी की गयी लेकिन बच्चों की संख्या भी कम रही.
कार्यक्रम के बाद मुख्यमंत्री त्रिवेन्द सिंह रावत को कुछ कार्यकर्ताओं और खाली पड़ी कुर्सियों के बीच ही अपना भाषण संपन्न करना पड़ा. मुख्यमंत्री तो मीडिया से बात किये बगैर ही सभागार से चले गए लेकिन खाली पड़ी कुर्सियों पर बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष ने सफाई देने की कोशिश जरूर की जो नाकाफी साबित हुई.
देश की दिशा को बदल देने वाले प्रधानमंत्री के फैसले के पूरे एक साल पर जहां तमाम कार्यकर्ताओं को जमावड़ा लगना चाहिए था वहां का हाल पूरी तरह से बेहाल नज़र आया. इस मौके पर त्रिवेंद्र सरकार के प्रति इतनी नीरसता अच्छा संकेत तो बिल्कुल भी नहीं है.
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