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प्राचीनकाल में हमारे मुनियों ने अन्तर्ग्रही प्रवाहों की गति को देख-परख कर ही हमारे पर्व-त्योहारों का निर्धारण किया था। इसके लिए उन्होंने मुख्यत: चार बातों पर ध्यान दिया था। पहली उत्तरायण-दक्षिणायण की गोलार्द्ध स्थिति, दूसरी चन्द्रमा की घटती-बढ़ती कलाएं, तीसरा नक्षत्रों का भूमि पर आने वाला प्रभाव और चौथा सूर्य की अंश किरणों का मार्ग।
इन सब का हमारी शरीरगत ऋतु अग्नियों के साथ संबंध होने से क्या परिणाम होता है? मन की गति इनके अनुसार किस तरह परिवर्तित होती है? इन सूक्ष्म तत्वों का त्योहारों के निर्धारण से गहरा संबंध था। इन सबका मनुष्य के जीवन और मूल्यों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। माघ के महीने में सूर्य का महत्व बढ़ जाता है, क्योंकि उसकी गति उत्तरायण की ओर बढ़ती है और ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर भी हम सब को कह रहा हो, अंधकार को छोड़ प्रकाश की ओर बढ़ो। इस क्रम में मकर संक्रांति को सूर्य (सविता) के अमृत तत्व के अवगाहन (निमज्जन) पर्व की संज्ञा दी गई है। शास्त्रकारों का मत है कि इस पर्व की खोज छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित मधुविधा के प्रवर्तक महर्षि प्रवाहण ने की थी। उन्होंने अपनी साधना के अनन्तर इसी दिन पंचम अमृत को प्राप्त किया था।
शिशिर ऋतु में वातावरण में सूर्य के अमृत तत्व की प्रधानता रहती है। मकर संक्रान्ति के अवसर पर शीत अपने यौवन पर होता है। शाक, फल, वनस्पतियां इस अवधि में अमृत तत्व को अपने में सर्वाधिक आकर्षित करती हैं और उसी से पुष्ट होती हैं। शीत के प्रतीकार तिल, तेल, तूल (सई) बताए गए हैं। इनमें तिल मुख्य है। इसलिए पर्व के सब कृत्यों में तिलों के प्रयोग की विशेष महिमा गाई गई है। यह पर्व हिन्दुओं के लिए बहुत ही मंगलमय माना गया है।
इसीलिए यह पर्व लगभग देश के हर प्रांत में बहुत धर्मनिष्ठा, भक्ति, उत्साह और आनंद के साथ मनाया जाता है। लाखों श्रद्घालु गंगा में स्नान करते हैं। पंजाब में यह पर्व लोहड़ी और माघी के नाम से प्रसिद्ध है, जबकि दक्षिण भारत में पोंगल के नाम से। भारत के लिए यह पर्व सर्वप्रांतीय है। साधना विज्ञान के मर्मज्ञों के अनुसार शिशिर ऋतु में माघ मास का महत्व सबसे अधिक है। इसी कारण वैदिक काल में इस महीने का उपयोग प्राय: सभी लोग आध्यात्मिक साधनाओं के लिए करते थे।
ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि यह परम्परा रामायण एवं महाभारत काल में भी प्रचलित थी। रामायण काल में तीर्थराज प्रयाग में महर्षि भारद्वाज का आश्रम एवं साधना आरण्यक था। उनके सान्निध्य में माघ महीने में भारत वर्ष के अनेक क्षेत्रों के आध्यात्मिक जिज्ञासु साधक एकत्रित होते थे। वे प्रयाग में एक मास का कल्पवास करते थे और चन्द्रायण तप के साथ मधुविधा की साधना करते थे। तुलसीदास के रामचरित मानस में इसका उल्लेख यों मिलता है- माघ मकर गत रवि जब होई, तीरथ-पतिहि आव सब कोई। आगे फिर कहा है- ऐहि प्रकार भरि माघ नहाही, पुनि सब निज-निज आश्रम जाहीं। अर्थात माघ महीने में सभी साधक-तपस्वी प्रयाग में आकर अपनी साधना पूरी करते थे और फिर यथाक्रम वापस लौटते थे।
यह प्राचीन प्रथा आज भी देखी जा सकती है। जब पृथ्वी एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करती है, तो उसे संक्रांति कहते हैं। छह मास सूर्य क्रांतिवृत्त से उत्तर की ओर उदय होता है और छह मास तक दक्षिण की ओर निकलता रहता है। प्रत्येक छह मास की अवधि का नाम अयनकाल है। सूर्य के उत्तर की ओर उदय की अवधि को उत्तरायण और दक्षिण की ओर उदय की अवधि को दक्षिणायन कहते हैं। उत्तरायण काल में सूर्य उत्तर की ओर से उदय होता हुआ दिखता है और उसमें दिन का समय बढ़ता जाता है। दक्षिणायन में सूर्योदय दक्षिण की ओर दृष्टिगोचर होता है और उसमें रात्रि की अवधि बढ़ने लगती है। मकर राशि की संक्रान्ति के समय से प्रकाश की मात्रा बढ़ने लगती है, इसलिए उत्तरायण विशेष महत्वपूर्ण माना जाता है और उत्तरायण के आरम्भ दिवस मकर संक्रान्ति को भी अधिक महत्व दिया जाता है।