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वाराणसी हादसा: यहाँ सिर्फ इसी केंद्रबिंदु पर बात होती है कि सरकार किसकी है और विपक्ष में कौन है? घटिया राजनीत का उदाहरण

वाराणसी हादसा: यहाँ सिर्फ इसी केंद्रबिंदु पर बात होती है कि सरकार किसकी है और विपक्ष में कौन है? घटिया राजनीत का उदाहरण
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वरिष्ठ पत्रकार अश्वनी कुमार श्रीवास्तव की कलम से
राजनीति ने हमारे समाज में लोगों को किस कदर मानसिक रूप से विक्षिप्त कर दिया है, यह बनारस में पुल हादसे से पता चल रहा है। पुल का स्लैब अचानक गिरा, लोग उसके नीचे दबकर मर गए। निसंदेह यह लापरवाही या किसी भयंकर चूक से हुआ हादसा है। यह भी हो सकता है कि निर्माण के लिए चढ़ाए जा रहे स्लैब गिरने की वजह घटिया निर्माण सामग्री का इस्तेमाल, भ्रष्टाचार, दिन में भारी ट्रैफिक के बीच इस तरह के खतरनाक काम करने में नियमों की अक्षम्य अनदेखी या जानलेवा लापरवाही हो... या फिर यह भी हो सकता है कि 2019 के चुनाव से पहले अपने संसदीय क्षेत्र में विकास कार्य पूरा कराने की मोदी की जिद से उपजा दबाव इस हादसे की वजह बन गया हो....



...लेकिन वजह कोई भी हो मगर फेसबुक पर हर किसी ने इस दुखद और बेहद दर्दनाक हादसे को अपने-अपने लक्ष्यों को साधने के लिए बतौर तीर इस्तेमाल करने में कहीं कोई चूक नहीं की। कोई इस हादसे को लेकर योगी सरकार की ऐसी-तैसी कर रहा है तो कोई संसदीय क्षेत्र की वजह से मोदी को लेकर अपना पुराना स्यापा चालू कर चुका है। कोलकाता में मोदी के एक पुराने बयान के वीडियो चलाये जा रहे हैं, जिसमें मोदी ने खुद इसी तरह की मानसिक विद्रूपता का परिचय देते हुए कोलकाता पुल हादसे पर ममता को घेरा था। वह भी यह असंवेदनशील बयान देकर कि चुनाव से पहले पुल गिरना ईश्वरीय संदेश है बंगाल के मतदाताओं के लिए।

तो तमाम ऐसे पुरोधा भी हैं, जो इसी बहाने आरक्षण का मुद्दा गरमाने में जुटे हैं यह कहकर कि आरक्षण वाले पुल बनाएंगे तो ऐसा ही होगा...जबकि इस पुल हादसे में जिनके खिलाफ खुद सरकार ने अभी तक कार्यवाही की है, वह सब गैर आरक्षित वर्ग के ही अधिकारी हैं।

जाहिर है, जब मोदी/योगी/भाजपा विरोधी इस हादसे के तीर से अपने-अपने लक्ष्य साधेंगे तो मोदी/योगी/भाजपा समर्थक भी तो बचाव में उलजुलूल तर्क गढ़ेंगे ही। इसी लिए कहीं किसी अखबार से खबर आ रही है कि ग्रहों के प्रकोप से ऐसा भीषण हादसा हुआ तो कहीं कोई कह रहा है कि यह सब कांग्रेस के जमाने से चले आ रहे भ्रष्टाचार का ही नतीजा है।

मेरा कहना यह है कि क्या हम हर हादसे, हर मुसीबत, हर प्रकोप, मुश्किल, बीमारी या महामारी या किसी भी अन्य संकट की घड़ी में भी अपना राजनीतिक चश्मा उतारकर चीजों को नहीं देख सकते? क्या दुनिया में हर चीज देखने के लिए पहले हमें यह तय करना पड़ेगा कि हम कौन से खेमे में खड़े हैं? मोदी/योगी/भाजपा या उसके विरोध में ही से किसी एक खेमे में खड़े होकर ही क्यों हमें अपनी प्रतिक्रिया देनी होती है या अपनी सोच-विचार तय करनी होती है।
इस तरह के विक्षिप्त आचरण से तो हम यूँ हादसों और मुसीबतों के दुष्चक्र में फंसते चले जायेंगे। कभी हम वास्तविक, वैज्ञानिक और तार्किक कारणों को जान ही नहीं पाएंगे और ऐसे ही गाल बजाते रहेंगे।

क्योंकि इस हादसे का एक पहलू यह भी तो हो सकता है कि किसी इंजीनियरिंग नासमझी या किसी अन्य तकनीकी गलती से यह घटना घट गई हो। वरना जिस सेतु निगम की दशकों पुरानी साख दुनियाभर में फैली हो, वह ऐसी भयंकर चूक कैसे कर बैठा।

मैं अक्सर टीवी पर पश्चिमी देशों में हुए ऐसे ही भीषण हादसों पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम देखता रहता हूँ, जिसमें वे इन हादसों की वैज्ञानिक और तकनीकी पड़ताल करते हैं। बाकायदा खोजी एवं जांच टीमें विज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर यह जानने की पुरजोर कवायद करती हैं कि आखिर गलती कहाँ, कैसे और क्यों हुई? क्या यह सिर्फ मानवीय भूल थी, या भ्रष्टाचार था... या फिर विज्ञान/तकनीक के किसी पहलू को न समझ पाने या उसको इग्नोर करने के कारण यह हादसा हो गया। हो सकता है कि 100 टन वजनी बीम को जिन तरीकों से उठाया जा रहा हो, उसमें कोई वैज्ञानिक या तकनीकी चूक हो गयी हो, जिसे खुद वहां के इंजीनियर ही उस वक्त न जान पाए हों।

लेकिन यहां तो सिर्फ और सिर्फ इसी केंद्रबिंदु पर बात होती है कि सरकार किसकी है और विपक्ष में कौन है। हद है जाहिलियत भरे इस समाज की मानसिक विद्रूपता पर...

अश्वनी कुमार श्रीवास्तव

अश्वनी कुमार श्रीवास्तव

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