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कार्ल मार्क्स ने कहा था- धर्म अफीम के समान है . पर कोई व्यक्ति क्यों अफीम का प्रयोग करता है , कब शुरू करता है इसका सेवन और कब तक रहता है इसके नशे का आदि ? यदि यही प्रश्न हम धर्म , सम्प्रदाय , पंथ या डेरे से जोड़कर देखें , सोचें ; तो कहीं ना कहीं कोई ना कोई कारण तो इसकी जड़ या परिस्थिति जन्य हालात में जरूर दृष्टिगोचर होगा , जो हमें सीधे सीधे नंगी आँखों से भले ही दिखाई नहीं पड़ता , अपितु इसके लिए हमें अपने तथा 'सब्जेक्ट' के अन्तःकरण में झांकना होगा . यहाँ मुझे मेरे ही एक हिंदी अध्यापक का प्रसंग याद आ रहा है . उस समय अध्यापक 'सर' नहीं , गुरू जी होते थे और एक विद्यार्थी के लिए आदर्श भी . जब मैंने अपनी शिक्षा पूरी कर जीवन यापन की नाव में सवारी प्रारम्भ कर दी थी तब एक दिन गुरु जी से अचानक मुलाकात हो गयी . श्रद्धावश मेरे हाथ गुरूजी के चरण स्पर्श करने हेतु नीचे झुके तो पाया कि गुरूजी शराब के नशे में धत थे . उन्हें इस हालत में देखकर मुझे आश्चर्य भी हुआ और दुःख भी . मैंने गुरूजी से प्रश्न किया –गुरूजी आप और शराब पीये हुए ? गुरु जी ने एक लम्बी आह भरी और मेरे सर पर हाथ रखकर कहा –तू नहीं समझ पायेगा मेरे हालात को . तू क्या सोचता है कि मैं इसके लाभ हानि के ज्ञान बिना शराब पी रहा हूँ ? मुझे इसका भला बुरा सब ज्ञात है फिर भी मैं पी रहा हूँ तो जरूर कोई भारी मजबूरी या विवश करने वाली स्थिति है . खैर उस समय तो मैं गुरु जी को प्रणाम कर वापस मुड़ लिया परन्तु अब कई बार सोचता हूँ -कोई ना कोई तो ऐसी वजह रही होगी जिसके आगे गुरु जी को यह विनाश कारी रास्ता चुनना पड़ा होगा . यही यक्ष प्रश्न उठ खड़ा होता है जब हम देखते हैं कि लाखों लोग क्यों किसी डेरे या बाबा के चंगुल में फंसकर अपना समय और जीवन व्यर्थ कर रहे हैं ? क्यों वे इतने उन्मादी हो जाते हैं कि डेरे या बाबा के एक इशारे भर से मरने मारने को तैयार हो जाते हैं ? क्यों अपने आप को सत्संगी कहने वाले प्रेमी दानव बन सब कुछ तहस नहस करने पर उतारू हो जाते हैं ? क्यों उन्हें समाज की मर्यादा , लोकलाज व कानून की सत्ता का भय नहीं रहता ? इन प्रश्नों की तह में जाने से पहले हमें इन डेरों तथा बाबाओं के पनपने की वजह तलाशनी होगी .
"गुरू गोबिंद दोऊ खड़े , काके लागु पाय ,
बलिहारी गुरू आपनो गोबिंद दियो मिलाय"