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क्या वास्तव में गाय को हम माता मानते हैं? - ज्ञानेन्द्र रावत
कल गोपाष्ठमी थी। गोपाष्ठमी का त्यौहार वैसे हर साल आता है लेकिन पिछले कुछेक बरसों से गाय माता के प्रति देश में कुछ ज्यादा ही प्रेम कहें या अपनत्व उमड़ता दिखाई दे रहा है। कारण कुछ भी हो लेकिन यह एक अच्छा संकेत है जिसकी प्रशंसा तो अवश्य की जानी चाहिए। वह बात दीगर है कि इसके निहितार्थ कुछ भी और ही क्यों न हों। देखा जाये तो इस अवसर पर हिंदू धर्मावलम्बी कहें या हिंदू धर्म रक्षक बड़े गर्व के साथ गाय की पूजा करते पाये गये। कहीं गौशालाओं में गायों को हरा चारा खिलाते देखे गये, कहीं रोली-कुंकुम से उसका टीका करते दिखे तो कहीं समारोह आयोजित कर उसमें उसे सजा संवार कर, उस पर रेशमी चादर डाल उसकी आरती उतारते देखे गये। यही नहीं इसमें तो विधायक, मंत्री, सांसद, मुख्य मंत्री तक पीछे नहीं रहे। और तो और वाकायदा गौमाता को पूजते,हरा चारा खिलाते और उसके ऊपर रेशमी शाल ओढ़ाकर खुद को सबसे बड़ा गौभक्त साबित करने हेतु फोटो खिंचाने में भी वह पीछे नहीं रहे। वहीं इसके विपरीत भारतीय संस्कृति की प्रतीक देवी तुल्य परमपूज्या गौमाता कूड़े-कचरे के ढेरों पर अपनी भूख मिटाने की ख़ातिर मुंह मारती भी देखी गयी। ऐसा अचानक कल ही दिखा हो, ऐसा भी नहीं है, यह तो हमारे देश में किसी भी कस्बे-शहर-महानगर में आये-दिन अक्सर देखा जा सकता है। यह कोई नयी बात नहीं है। दुखदायी तो यह है कि जिस गाय को माता माना जाता है, उसे पुण्य दायिनी माना जाता है, उसका दूध अनेकानेक गुणों से युक्त होता है, आयुर्वेद के अनुसार उसका मूत्र-गोबर तक अनेकों बीमारियों को दूर करने में सहायक होता है और जिसकी ख़ातिर एक दूसरे की हत्या तक करने को हिंदू धर्म रक्षक उतारू हो जाते हैं, उसे सड़कों पर ,चौराहों पर खुलेआम कूड़े के ढेरों पर मुंह मारते,सब्जी मंडियों में ठेलों पर सब्जी पर मुंह मारते,ठेले वालों के डंडे खाते या जमीन पर पड़े पत्तों-ठूंठों को खाते देख उन्हें लाज नहीं आती। क्या यह गर्व का विषय है या उस समय उनका गर्व कहां चला जाता है। इससे क्या उनके सम्मान में वृद्धि होती है। जिसे वह माता कहते नहीं थकते, उस गौमाता की यह दुर्गति क्या उनका अपमान नहीं है। यदि इसे वह अपमान नहीं, मान समझते हैं, तो उनको गाय को माता कहने का भी कोई अधिकार नहीं है।
अब यहां यह सवाल उठता है कि गाय को सुबह दूध दुहकर पूरे दिन गली, बाजार, चौराहों पर कूड़े के ढेरों पर जहां सुअर भी मुंह मारते रहते हैं, वहां मुंह मारने को खुला छोड़ता कौन है। जाहिर है जो उसे पालता है, वही उसे पूरे दिन खुले में छोड़ता है। क्या वह गोपालक उसके दूध का ही हकदार है, उसके चारे-पानी का हकदार क्यों नहीं। होता अक्सर यह है कि सारे दिन घूम घूमकर कूड़े-कचरे, प्लास्टिक की थैलियां खाकर, अपना पेट भरकर शाम को वह फिर अपने पालक के घर आ जाती है और पालक फिर उसका दूध दुह कर चैन की नींद सो जाता है। और जब वह दूध देने में असमर्थ हो जाती है और बूढ़ी हो जाती है, तो वही उसे बेकार मानकर बेच देता है, यह जानते समझते हुए कि अब खरीदने वाला उसका क्या करेगा। विचारणीय यह है कि क्या कोई अपनी माता को बेचता है, क्या यही गौमाता की नियति है जिसके बारे में वह दुंदुभि बजाता रहता है कि यह हमारी माता है , यह हमारी संस्कृति और धर्म की प्रतीक है और क्या यही उसका धर्म है? अब सवाल यह भी अहम है कि उस गाय को पालता कौन है। जाहिर है उसे पालते भी वही हैं जो धर्म की दुहाई देते नहीं थकते और उसके नामपर हत्या करना अपना धर्म समझते हैं। जबकि हकीकत यह भी है कि दूसरे धर्म के लोग जो गाय को पालते हैं, वह कभी उसे बाहर खुला नहीं छोड़ते हैं और उनके चारे-पानी ,देखभाल की पूरी बखूबी व्यवस्था भी करते हैं। ऐसा मेंने खुद देखा भी है और इसके प्रमाण भी हैं। यह एक कटु सत्य है जिसे नकारना आसान नहीं है।
होना तो यह चाहिए कि हमारे देश के हिंदू धर्म रक्षक गोपालक अफ्रीकी देश सूडान के मुंदरी समुदाय के लोगों से कुछ सीखें जो वास्तव में गाय को मां ही नहीं मानते, उसे मां की तरह पूजते भी हैं और उसकी रक्षा के लिए अपनी जानतक दे देते हैं। जंगली जानवरों से उसकी रक्षा वे एके 47 लेकर करते हैं। दर असल यह दक्षिणी सूडान का एक छोटा गौपूजक समुदाय है जो गायों को अंकोले वातुसी कहते हैं। इनकी जान गायों में बसती है। गाय ही इनके लिए सब कुछ है। यह गायों को मवेशियों का राजा माना जाता है। गायों के लिए मुंदरियों का पूरा जीवन समर्पित होता है। गायों की देखभाल इनके बच्चे - बूढ़े सभी करना अपना धर्म समझते हैं। देखा जाये तो गाय इनकी आर्थिक धुरी ही नहीं, सामाजिक प्रतिष्ठा की परिचायक भी है। सारे धार्मिक -सांस्कृतिक, पारिवारिक क्रियाकलाप जैसे जन्म-विवाह आदि कार्य में वहां गायों की प्रमुख भूमिका होती है। गायों की कीमत यहां इंसानों से भी ज्यादा है। यहां लड़की की शादी उस परिवार में की जाती है जो लड़की के परिवार वालों को दो सौ गायें उपहार में देता है। यह लोग गाय के मूत्र से स्नान करते हैं। इनका मानना है कि गाय का मूत्र सारी बीमारियों से छुटकारा दिलाता है। कहा तो यह भी जाता है कि दक्षिणी सूडान के इस इलाके में कड़ी धूप के चलते अत्याधिक गर्मी और दूसरे कारणों से इन्फैक्शन के खतरे से बचने के लिए गाय के गोबर के कण्डे को जलाकर उसकी राख को पाउडर की तरह यह लोग न केवल अपने शरीर पर मलते हैं, बल्कि उसको गाय के शरीर पर भी मलते हैं। यह मुँदरी लोग गाय के मूत्र से अपने बाल तक धोते हैं।असलियत में गाय के मूत्र में अमोनिया की मौजूदगी से बालों का रंग लाल हो जाता है। लाल बाल वालों को इनके समाज में बहुत ही पवित्र माना जाता है। ऐसी इस समाज की मान्यता है। यदि किसी कारण गाय की मृत्यु हो जाती है तो यह फूट-फूटकर रोते हैं और कुछ समय तक तो खाना-पीना भी छोड़ देते हैं। यह इनके गायों के प्रति असीम प्रेम का परिचायक है। यह गाय की मृत्यु को अपने सगे-सम्बंधी की भी मौत से ज्यादा दुखदायी मानते हैं। गायों के साथ इनका अपनत्व इसी से जाहिर होता है कि वे कहीं भी हों, मुंदरियों की एक आवाज़ सुनते ही जबाव दे वे इन्हें अपने को सुरक्षित होने का एहसास करा देती हैं।
दरअसल बातें और दावे कुछ भी किए जायें, समूची दुनिया में गाय को इतना महत्व और सम्मान देने के मामले में सूडान के इस मुँदरी समुदाय का कोई सानी नहीं है। हमारे यहां दिखावा भले कुछ करें, हम सूडान के मुँदरी समुदाय के मुकाबिले गाय की महत्ता का पूजा-अर्चना के बहाने केवल और केवल ढोंग ही करते हैं, वह भी अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि की ख़ातिर। इसमें दो राय नहीं कि वह चाहे देश के हिंदू धर्मावलम्बी हों या राजनीतिज्ञ, गाय उनके लिए एक मोहरे के सिवाय कुछ नहीं। सब झूठ और फरेब की साजिश का ही एक हिस्सा है। धर्म के जरिये सब अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं और इस बारे में यदि प्रख्यात पत्रकार श्री नरेश कौशल की माने तो गाय के बहाने गौरक्षक सत्ता की मलाई खाने कहें या यों कहें कि उसे हड़पने में लगे हुए हैं। गोपाष्ठमी का पर्व तो उनके लिए स्वार्थ सिद्धि का एक साधन मात्र है, इसके सिवाय कुछ नहीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)