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डॉ कफील का न तो निलंबन हुआ है और न ही बर्खास्तगी, फिर इतना होहल्ला क्यों?

डॉ कफील का न तो निलंबन हुआ है और न ही बर्खास्तगी, फिर इतना होहल्ला क्यों?
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Dr. Kafeel has neither been suspended nor dismissed
कफील का न तो निलंबन हुआ है और न ही बर्खास्तगी, बस उन्हें उस विभाग के नोडल अफसर पद से हटाया गया है, जिसमें 63 बच्चे मारे गए हैं। लेकिन जब से कफील पर यह सांकेतिक कार्यवाही हुई है, सोशल मीडिया पर भाजपा विरोधियों ने ऐसी हाय-तौबा मचा दी है, मानों कफील को ही सारी हत्याओं के दोषी मानकर फांसी पर चढ़ाने का फरमान जारी हो गया हो। एक से बढ़कर एक रुदन सुनने को मिल रहे हैं और देशभर के सारे मुसलमानों पर हमले की तरह इसको दिखाया जा रहा है। वैसे भी, मुसलमानों पर हमला हो न हो, मौका मिलते ही मुसलमानों पर हमले का मुद्दा हाथ आते ही सारे प्रगतिशील, वामपंथी, सेक्युलर, भाजपा विरोधी मिलकर एक ही सुर में चीखने लगते हैं.

कहीं ये सारे मूर्धन्य विद्वान अगर कफील को उनके ही हाल पर छोड़कर मारे गए बच्चों के दोषियों को पकड़ने और प्रदेश में स्वास्थ्य सेवा की बदहाली को सुधारने के लिए इतना चीखते तो शायद योगी सरकार भी दबाव में आकर जनता की भलाई के लिए कोई कदम उठा ही लेती। लेकिन न स्वास्थ्य सेवा में सुधार और न ही 63 बच्चों के हत्यारों को सजा...इनमें से कोई मुद्दा ही नहीं है इन भाजपा विरोधियों के लिए। सबसे बड़ा मुद्दा तो अब कफील ही हैं। कुछ कफील प्रेमी तो इस हद तक आगे बढ़ गए हैं कफील कफील चिल्लाने में कि मांग कर रहे हैं कि कफील को दिल्ली में नौकरी दी जाए। कफील दिल्ली में नौकरी पा जाएं, बस इन कूढ़मगजों को 63 बच्चों की मौत के बाद इतनी ही मांग सरकार से पूरी करवानी है।
दरअसल, यही सबसे बड़ी खामी है भाजपा विरोध या प्रगतिशीलता/वामपंथ की हमारे देश में....सारी प्रगतिशीलता/वामपंथ और भाजपा विरोध अल्पसंख्यकों के नाम पर मुस्लिमपरस्ती में तब्दील हो जाता है। और इसी मुस्लिमपरस्ती का नतीजा है कि देश में लगातार हिन्दू चरमपंथ बढ़ता ही जा रहा है। जितना तो हिंदुओं को मोदी, योगी और संघ एकजुट नहीं कर पा रहा है, उससे कहीं ज्यादा तो ये लोग भाजपा विरोध, प्रगतिशीलता और वामपंथ के नाम पर मुस्लिम परस्ती करके कर देते हैं।
मैं जब आईआईएमसी में पत्रकारिता पढ़ रहा था तो वहीं जेनएयू में वामपंथी संगठनों से भी जुड़ा हुआ था। एक वामपंथी सांस्कृतिक संगठन में तो बाकायदा हर रोज ही मैं कार्यक्रम, बैठक आदि में शामिल होता था। नुक्कड़ नाटक आदि भी करता था। वामपंथ की तरफ मेरा रुझान इसलिए हुआ था और आज भी है क्योंकि मुझे वामपंथ में ही शोषण से लड़ने और आर्थिक /सामाजिक समानता लाने का दम दिखता है। वामपंथ में धर्म का न तो कोई स्थान है और न ही धर्म वहां चर्चा का विषय ही है। धर्म को तो अफीम मानकर शोषणकारी व्यवस्था का जनक ही माना गया है।
लेकिन वहां भी मैंने एक बात गौर की कि 'हिन्दू कॉमरेड' तो खुल कर अपने धर्म, धार्मिक रीति-रिवाज, ग्रंथ या धार्मिक/जातीय शोषण के खिलाफ बेहद जोरों शोरों से आवाज उठाते थे, कार्यक्रम करते थे और आंदोलन तक करते थे। लेकिन हमारे 'मुस्लिम कॉमरेड' कभी भी नाम लेकर अपने धर्म ग्रंथ, मान्यताओं, रीति-रिवाज आदि को नहीं गरियाते थे। यही नहीं, उन्हें सारा शोषण या बुराई केवल हिन्दू धर्म में ही दिखता था। भले ही वे हिन्दू कॉमरेड की तरह शराब आदि पीकर पूजा पाठ या नमाज आदि से दूर नजर आते थे लेकिन वे भीतर से अपना मजहब कभी छोड़ नहीं पाते थे। यही वजह थी कि वहां के वामपंथी संगठनों के बीच कश्मीर, फिलस्तीन या दुनिया के अन्य हिस्सों के मुसलमानों पर होने वाले जुल्म ही तकरीबन हर रोज गहरा मुद्दा बनाये जाते थे।
हद तो तब हो गई, जब 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद गिराए जाने को लेकर काला दिवस मनाए जाने की तैयारी वहां महीनों पहले से होने लगी। मुझे तो वैसे भी मुसलमानों पर दुनियाभर में होने वाले जुल्म के मुद्दे ही नहीं समझ में आ पाते थे इसलिए 6 दिसंबर को काला दिवस का कांसेप्ट तो बिल्कुल ही बाउंस कर गया। लिहाजा मैंने संगठन की बैठक में इसका विरोध किया। मेरा सवाल यह था कि आखिर कश्मीर, फिलस्तीन के मुसलमानों पर होने वाले जुल्म को हम वामपंथी नजरिये से कैसे मसला बना सकते हैं? यह तो विशुद्ध धार्मिक मसला है या फिर राजनीतिक...वामपंथ तो पूरी तरह से समाज के आर्थिक वर्गीकरण की राजनीतिक विचारधारा है तो फिर इसमें मुसलमान, कश्मीर, फिलस्तीन, बाबरी मस्जिद जैसे अति संवेदनशील धार्मिक मसले क्या कर रहे हैं? एक वामपंथी भला क्यों इस बात को लेकर परेशान रहे कि हिंदुओं ने बाबरी मस्जिद गिरा दी या ईसाई या यहूदी दुनियाभर के मुसलमानों पर अत्याचार कर रहे हैं? अगर धर्म के आधार पर ही शोषक और शोषित वर्ग तय करना है तो फिर हम हिन्दू होते हुए कश्मीरी पंडितों के लिए परेशान क्यों न हों? क्यों न हम भी यही दावा करें कि वह बाबरी मस्जिद नहीं बल्कि राम मंदिर है?
जाहिर है, वामपंथ अगर धर्म या जाति के आधार पर ही मुद्दे उठाएगा तो फिर यह वामपंथ कहाँ रहा?
बहरहाल, इन्हीं सब वजहों से अंततः मेरा मोहभंग वामपंथ से हो ही गया। उसके बाद मैं कोई पंथी नहीं हो पाया। शिशु मंदिर में ही पढ़ने के बावजूद संघी मैं कभी बन ही नहीं सकता था क्योंकि इसके लिए कुछ न पढ़ना, कुछ न सोचना, खुद को श्रेष्ठ समझना और बाकियों को हिकारत की नजर से देखकर उनसे नफरत करना जरूरी है...और यह मुझसे कभी नहीं हो पायेगा। कांग्रेसी भी इसलिए नहीं बन सकता था क्योंकि एक ही परिवार की मानसिक गुलामी या राजशाही का मैं सख्त विरोधी रहा हूँ। समाजवादी भी नहीं हो सकता क्योंकि वहां भी समाजवाद के नाम पर परिवारवाद और राजशाही ही है। बसपाई होना भी चाहूं तो भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि सवर्ण होने के नाते वहां मैं वर्ग शत्रु ही ज्यादा समझा जाऊंगा। आम आदमी पार्टी की तो सोच और अरविंद केजरीवाल ही मुझे आज तक समझ आ नहीं पाए तो उसके बारे में विचार करना भी मेरी नजर में मूर्खता है।
इन्हीं हालात को देखते हुए ही मैंने न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर वाला सिद्धान्त अपना लिया है। इसके तहत मैं करता यह हूँ कि मैं जो महसूस करता हूँ, उसे बिना किसी लाग लपेट के लिख या बोल भी देता हूँ। जिसको बुरा लगता हो, लगता रहे... और जिसको खुश होना है, वह भी होता रहे। मुझे इसकी परवाह नहीं होती क्योंकि मुझे यह भी पता है कि पत्रकारिता की मेरी इस चक्की में तो हर किसी को कभी न कभी पिसना ही है...
अश्वनी कुमार श्रीवास्त�

अश्वनी कुमार श्रीवास्त�

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