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करणी सेना ने हिटलर से संस्कार उधार लिए हैं

करणी सेना ने हिटलर से संस्कार उधार लिए हैं
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एक दौर था हॉलीवुड की फिल्में हिटलर के शासन में अच्छी कमाई करती थी.बर्लिन जैसे शहरों में हॉलीवुड के सितारों का बोल-बाला था.बर्लिन की अख़बारों और मैगजीन्स में हॉलीवुड के सितारों ने शोहरत का परचम लहराया.अडोल्फ हिटलर जैसा शासक खुद हॉलीवुड की फिल्मों का कायल था .हिटलर का यकीन था की फिल्मों में वो ताकत होती है जो जनता का नज़रिया बदल सकती है.इसी सोच के चलते हिटलर का फिल्म उद्योग जगत पे काफी प्रभाव भी था.हॉलीवुड की फिल्में हिटलर के शासन में अच्छा फलफूल रही थी.और हिटलर की ख्वाइश के विरुद्ध जाकर फिल्म बनाने का मतलब था तालाब में रहना और मगरमछ से बैर को जन्म देना जिसे हॉलीवुड के उद्योगपति समझ गए थे.लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो फिल्मों के माध्यम से कड़वी सचाई बयान करने का जोखिम उठाते थे लेकिन उन्हें ख़ारिज कर दिया जाता था.

यहाँ तक की कानून भी बना दिया गया था की जो फिल्में हिटलर की मुखालफत में होंगी उन पर प्रतिबन्ध लगा दिया जायेगा."लुसितानिआ" और "द मैड डॉग" जैसी फिंल्में जो हिटलर की छवि पर सवाल खड़े करती थी उन्हें पूरा नहीं होने दिया गया.दबाव ऐसा बनाया गया की साठ लोगों की लम्बी फेहरिस्त जारी की गयी जिनकी फिल्मों पर पूर्ण विराम लगाया गया.

"द प्राइजफाइटर" और "द लेडी" जैसी फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगा क्यूंकि उसमें मैक्स बैर अभिनय कर रहे थे जो उन साठ लोगों में से एक थे जिन पर प्रतिबन्ध लगाया था.उस दौर के और भी अभिनेता यां अभिनेत्री जैसे की अल-जोलसन, फ्रेडरिक कागने, सिल्विया सिडनी, जीन आर्थर, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, जोआन क्रॉफोर्ड, बिंग क्रॉस्बी आदि जैसे लोगों पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया.

दिसंबर 5, 1930 की घटना से अंदाज़ा लगाया जा सकता है की उठती हुई आवाज़ों को दबाने की पुरज़ोर कोशिश मुकमल तरीके से की जा रही थी.इस दिन बर्लिन के मोजार्ट हॉल में "आल क्वाइअट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट" रिलीज़ हुई.यह फिल्म से पहले एरिक मरिया ने इस पर एक उपन्यास लिखा था.1928 में जर्मन अख़बार में "आल क्वाइअट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट" उपन्यास के भाग छापे गए थे.और 1929 में इस पर उपन्यास प्रकाशित हुआ जिसने बाद में 1930 में फिल्म का रूप लिया.लेकिन मोजार्ट हॉल पर हिंसक झुण्ड ने हमला बोल दिया जिस की अध्यक्षता जोसफ गोब्बेल्स कर रहा था जो हिटलर का खासम-ख़ास था. आंसू गैस के गोलों और केमिकल्स के साथ इस झुण्ड ने त्राहि-त्राहि मचा दी.
जोधा अकबर, गोलियों की रासलीला राम-लीला, बाजीराओ मस्तानी जब भी इन फिल्मों की बात की जाती है तो नाम आता है संजय लीला भंसाली का जो बहुतों के लिए फिल्म निर्देशक हैं और कइयों के लिए देशद्रोही. 130 करोड़ के आबादी वाले देश में भंसाली की "पद्मावती" से "पद्मावत" का रूप लेने वाली फिल्म का उबाल इतना है जिसके सामने बाकी गंभीर मुद्दों की कोई हैसियत ना हो.
ये व्यवस्था हिटलर के दौर में प्रचलित हुई थी लेकिन इसके अंश यहाँ करणी सेना के रूप में मौजूद हैं.नाक काटने पर इनाम,गला काटने पर इनाम, टीवी स्टूडियो के भीतर नंगी तलवार निकालना, धमकी देने से ना कतराना ये सब उसी मानसिकता का हिस्सा है जो हिटलर के दौर में पल रही थी और अब करणी सेना ने इस सोच को अपने कन्धों पर उठा लिया है.
राजस्थान,गुजरात,हरयाणा और मध्यप्रदेश की सरकारों ने हाथ खड़े कर लिए और उच्तम न्यालय में मांग रखते हुए याचिका दाखिल की, कि पद्मावत को इन राज्यों में रिलीज़ होने से रोका जाये वरना कानून व्यवस्था पर चोट आएगी.जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कानून व्यवस्था बनाये रखना राज्य कि ज़िम्मेदारी है और याचिका को ख़ारिज किया.
जिन्हे सुरक्षा मुहैया करवानी चाहिए उन्होंने ने इन खुलेआम ललकारने वालों के सामने घुटने टेक दिए हैं. बंद कमरों में सेन्सॉरबॉर्ड की क्या अहमियत है जब फैसले सड़कों पर मनचले कर रहे हैं.शुरुआती दौर में नकेल कसने की बजाये गुजरात के चुनावों में पद्मावत के मुद्दे को धीमी आंच पर ऐसा पकाया की बात यहाँ तक पहुंच गयी की अगर पद्मावत रिलीज़ हुई तो औरतें जौहर करेंगी.
जे.एन.यू, फ़ौज, कश्मीरी पंडित, पाकिस्तान और भंसाली यह हिंदुस्तान की मौजूदा कहानी के वो किरदार हैं जिनका तब इस्तेमाल किया जाता है जब रोटी कपड़ा मकान से ध्यान भटकना हो.
चीन के साथ डोकलाम पर विवाद हो यां कश्मीर घाटी के बिगड़ते हालात, देश कि अर्थव्यवस्था हो यां बेरोज़गारी से लड़ता युवा, कर्ज में फांसी लगाता किसान हो यां गटर में दम घुटने पर मरता दलित, पद्मावत कि चकाचौंद इतनी है कि बाकी के मुद्दे ठन्डे बस्ते में जा चुक्के हैं. इस हिटलर-रुपी मानसिकता से बचने का नुस्खा तलाशना ज़रूरी है वरना लोकतंत्र कि सांसें थमने लगेंगी.
लंकेश त्रिखा उर्फ़ बादशाह
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