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अब तेरा क्या होगा..., कुंवर सी.पी. सिंह... ?

Special Coverage News
21 Sep 2018 1:14 PM GMT
अब तेरा क्या होगा..., कुंवर सी.पी. सिंह... ?
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मुझे इस बारे में कोई गलतफहमी नहीं है कि मैं पत्रकारिता के माध्यम से समाज को बदल देना. अन्याय को मिटा डालने और मजलूमों के हक में आवाज उठाने के इरादे से आया था. बिल्कुल नहीं…क्योंकि मुझे खुद पर कभी ऐसा नाज नहीं हुआ कि मैं यह सब कर सकता हूँ...न ही मुझे यहाँ के ग्लैमर, चकाचौंध, प्रसिद्धि अखबारों में छपने वाली बाईलाइन ने आकर्षित किया था...हाँ..., मुझे यह जरूर लगता था कि अखबार के दफ्तर या न्यूज़ चैनलों में ऐसे इरादों को रखने वाले लोग काम करते हैं...मैं अखबारों को..., अखबार में..., न्यूज़ चैनलों में..., काम करने वालों को बहुत सम्मान से देखा करता था..., अब भी देखता हूँ लेकिन अब सबको नहीं..., और उनके साथ काम करते हुए खुद को समृद्ध करना चाहता था...मन में एक इच्छा यह भी छुपा हुआ था कि शायद कभी मैं भी कुछ कर सकूँ..., किसी लायक बन सकूँ...हालाँकि अखबारों से जुड़ने का इरादा यह सोचकर बना था कि पढ़ाई के साथ-साथ कुछ दिन यहाँ काम करके अनुभव लेती रहूँगा फिर पढ़ाई खत्म करके सिविल सर्विसेज की तैयारी करूँगा...अखबार में काम करके या मीडिया में काम करके और कोई गुंजाइश बचती नहीं है...यहाँ काम करना एक किस्म का नशा सा होता है...फ्रीलांसिंग तो 2005 से धुआँधार हो ही रही थी 2006 में औपचारिक तौर पर दैनिक हिन्दुस्तान कस्तूरबा मार्ग नई दिल्ली से पहली नौकरी की शुरुआत भी हो गई...2006 से 2008 तक ही मैंने अखबार में और फिर 2008 से हाल फिलहाल अभी तक न्यूज़ चैनलों में मुलाजमत कर रहा हूं...इस कार्यकाल के दौरान कई तरह के अनुभवों से गुजरना हुआ...शानदार लोगों से मिलना हुआ...सीखना सबसे ज्यादा हुआ...यह आलेख इस पूरी यात्रा के दौरान समाज और इस इंडस्ट्री के रवैये को लेकर है जिसमें कुछ मेरे निजी अनुभव हैं और कुछ आस-पास के लोगों के जीवन से जुड़े...यह मेरी पत्रकारिता की यात्रा का एक छोटा टुकड़ा भर है...जिसमें कुछ स्मृतियों में दर्ज सीले कोने ही खुले हैं...इन अनुभवों को लिखने का मकसद एक मानसिकता को रेखांकित करना भर है कुछ दर्द बहुत निजी होते हैं...इतने निजी कि उन्हें साझा करने को जी नहीं चाहता...ऐसा मालूम होता है कि साझा करने से वो मैले हो जाएँगे...लेकिन सोचता हूँ कि अगर किसी दर्द से कोई रोशनी फूटे और लोगों के जेहन में कुछ उजाला हो तो यह उस दर्द की सार्थकता ही होगी...!!

पत्रकारिता यूं तो कहने के लिए बड़ा ही नोबल प्रोफेशन है...और कुछ हद तक यह सच भी है...यह एक ऐसा मंच है जहाँ से आप न सिर्फ अपनी बात बड़े पैमाने पर कह सकते हो...साथ ही साथ अपनी नज़र से लोगों को दुनिया के अलग-अलग रंग-रूप भी दिखा सकते हो...ये तो पत्रकारिता तक की बात थी...लेकिन एक सच्चे और अच्छे पत्रकार के जीवन में जब घुस कर देखिएगा तो वो बड़ा अजीब अनुभव देगा...उसका अपना जीवन ठीक उस दिये जैसा दिखेगा...जिसके कारण रौशनी तो होती है लेकिन उसके अपने चारों तरफ अँधेरा होता है...एक बात और जो मैं अपने 10 या 12 सालों के अनुभव के बाद कह सकता हूं कि...ऐसे साथी जिनके पास पत्रकारिता को लेकर एक स्पष्ट दूर दृष्टी नहीं हो वो इस पेशे में न ही आयें तो बेहतर होगा...पत्रकारिता का स्वरुप बदलते बदलते इतना बदल गया है कि कभी-कभी पत्रकार को एहसास होता है वो पत्रकारिता नहीं पी आर कर रहे हैं...आजादी के बाद से तकनीक ने भी पत्रकारिता करने के ढंग को बदला...जब से इंडिया में टी वी की पत्रकारिता शुरू हुई तब से यह फील्ड ग्लैमरस होता गया...और खास तौर पर युवाओं को इसने अपनी ओर आकर्षित किया...अब पत्रकार बनने की जगह युवा एंकर बनने के सपने देखने लगे...वही सपना लिए वो आई आई एम सी, जामिया और अन्य प्राइवेट मीडिया स्कूल की तरफ चले आए...वहां के शिक्षकों ने जब हकीकत से रूबरू कराया तो उन जैसे सोच वाले साथियों के दिल को बड़ा धक्का लगा...उसके बाद जब पत्रकारिता की डिग्री लेकर बाहर निकले और एक इंटर्नशिप के लिए संघर्ष शुरु हुआ तो बचा खुचा सपना भी हाथ में आ गया...इण्डिया में टीवी पत्रकारिता के जनक में से एक स्वर्गीय एस पी सिंह जिन्होंने आज तक नाम से एक बुलेटिन दूरदर्शन के लिए बनाया था...प्रभाष जोशी जो जनसत्ता के आधार स्तम्भ रहे इन जैसे लोगों को पढ़ और जान लेना जरुरी है...तब आप जब तुलना करेंगे की आजादी के बाद देश में कितने नए समाचार पत्र आए और कितने न्यूज़ चैनल तो बदलते परिदृश्य का सही आंकलन सम्भव हो पायेगा...आज न्यूज़ चैनल की भूमिका दिन ब दिन बढ़ती गई...मेरे कुछ परिवार के लोग और दोस्त-यार को तो लगता है कि...टीवी में न दिखो तो पत्रकार क्या...बार-बार समझाता हूँ...कि वही सिर्फ पत्रकारिता नहीं है...लेकिन वो कहाँ मानने वाले टीवी पर आकर अटक जाते हैं...!!

मेरे जानने वाले एक नेता जी से हमारी बात हो रही थी...उन्होंने हमसे कहा कि इस लोकसभा चुनाव में यानी 2014 में टीवी चैनल का जो रवैया और असर रहा है...ऐसे में आगे आने वाले दिनों सभी पार्टी इसमें बहुत पैसे लगाएगी...खास तौर पर उन्होंने कांग्रेस का नाम लिया...तो यह हो सकता है कि आने वाले दिनों में पत्रकारिता के क्षेत्र में जॉब तो बहुत हों...लेकिन एथिक्स को एक कोने में रखना पड़ सकता है...रही बात संगठन के अंदर के माहौल की तो निराश लोगों से मिलने पर निराशा हाथ आएगी...सफल लोगों से मिलने पर उर्जा और उत्साह...ये सारी बातें अनुभव आधारित हैं किसी किसी की किस्मत एक्सेप्शन होती है...हां ये बात उन लोगों पर एकदम लागू नहीं होती जिनके पास अपना पत्रकारीय विज़न है...उन्हें इस फील्ड में मज़ा आएगा...रोज-रोज नई चुनोतियाँ उन्हें अवसर सी लगेंगी...चूँकि दिल्ली के मशहूर संस्थान आई आई एम सी से आज बहुत सारे युवा पत्रकारिता की डिग्री लेकर पत्रकार बनने का ख्वाब देखते है...कई ऐसे साथी भी मेरी फेसबुक मित्र सूचि में हैं जिन्होंने इस परीक्षा में सफल होने के लिए तैयारी भी कर रहे है...उनमें से एक ने पूछा कि साक्षात्कार के प्रश्न क्या हो सकते हैं...? मैंने कहा एक तो पक्का रहेगा कि आप पत्रकारिता क्यों करना चाहते हो..? और पत्रकारिता से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं...? अब उन्हें तो मैं शुभकामनायें ही दे सकता हूँ...अब उनको कौन समझाएं कोई भी संस्थान किसी को पत्रकार नहीं बना सकती है...वो आप स्वयं ही बन सकते हैं...संस्थान आपको तराश कर...तीक्ष्ण और तीव्र जरुर बना देगी...गुरु द्रोण मिले तो एक आध अर्जुन भी जरुर बनेंगे...जिस तरह गधे के गले में टाई बांध देने से वो आरटीओ नही बन जाता ठीक उसी तरह किसी प्रेस का प्रेस कार्ड गले में लटका लेने से हर कोई पत्रकार नही बन सकता...? पत्रकारिता में कोई कठोर नियमावली न होने के कारण अनपढ़, गंवार, जाहिल इंसान भी पत्रकार बनकर समाज में पत्रकारिता का रौब गांठ सकता है...डिजिटल इंडिया के इस युग में पत्रकार बनना कोई मुश्किल काम नही है...पत्रकारिता के इस युग में पत्रकार बनने की सबसे बड़ी योग्यता इंटरनेट युक्त स्मार्टफोन है...?

अब तक पत्रकारिता की 'कुंवर कथा' को पढ़ा और झेला उसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद...! अब मैं असल मुद्दे पर आता हूँ जिसके लिए आपका इतना कीमती समय बर्बाद किया...जी हां दोस्तों...डिजिटल मीडिया तो पत्रकारों की खेती कर रहा है...डिजिटल पत्रकारिता के इस युग में कैसे कैसे संपादको के ऐसे ऐसे संवाददाता देखने को मिल रहे हैं...जिनके कारनामों को देखकर कभी कभी तो दिल करता है कि जूतों से उनकी खबर ली जाए..., लेकिन नुकसान अपना ही होना है...पत्रकारिता सवालों के कटघरे में आ जायेगी बस यही सोचकर मन मसोसकर रह जाता हूँ...पत्रकारिता के इस युग में पत्रकारों की कई प्रजातियां देखने को मिल रही हैं...एक प्रजाति जो पक्षकार हैं जिसका सुबह आंख खुलने से लेकर रात सोने तक एक ही काम है...नेताओं और अफसरों का पक्ष रखते हुए उनकी चापलूसी करके कुत्तों की तरह उनके तलबे चाटना...? दूसरी प्रजाति जो ब्लैकमेलिंग का काम पूरी ईमानदारी से करती है...राशन माफिया हो, वन माफिया हो, खनन माफिया हो या फिर कोई भी माफिया हो...? सबके कारनामों पर पैनी नजर रखी जाती है...जरा सी नब्ज दबते ही डंडा घुसेड़ दिया जाता है और डंडा तभी निकलता है जब उसकी जेब से गांधी छाप माल निकलता है...पत्रकारों की यह प्रजाति किसी को भी अपना टारगेट बनाने के लिए पहले उसके खिलाफ गोल मोल खबरें प्रकाशित करते हैं...जिससे टारगेट उनके कदमों में गिर पड़ता है...फिर वह दुधारू गाय बन जाता है...तीसरी प्रजाति जिसका काम है कि 1000-500 रुपये में प्रेस कार्ड बनवाकर थाने और क्षेत्र में छोटी मोटी दलाली करके समाज में पत्रकारिता का रौब गाँठना हैं...चौथी प्रजाति जिसकी जनसंख्या इन दिनों बहुत तेजी से बढ़ रही है... जिसे हम 'घर बैठे पत्रकार' भी कह सकते हैं...घर बैठे पत्रकार बनने के लिए किसी काबलियत की नही बल्कि इंटरनेट युक्त स्मार्टफोन की आवश्कता है क्योंकि खबरें तो फेसबुक, व्हाट्सएप पर मिल ही जाती हैं...बस उन्हें तो कॉपी पेस्ट करना है...बाकी काम तो संपादक कर ही लेगा...पांचवीं प्रजाति जो विलुप्ति की कगार पर है...जिन्हें हरामी, मक्कार जैसे शोभनीय शब्दों से सम्मानित किया जाता है...जिन्हें हम क्रेक (पागल) पत्रकार भी कह सकते हैं...सच लिखने वाले पत्रकारों को न उनके पत्रकार साथी, न नेता, न अफसर और न जनता उन्हें पसंद करती है, क्योंकि सच सबको पसंद होता है लेकिन सुनना कोई नही चाहता...? यकीनन पत्रकारों की यह प्रजाति जल्द ही विलुप्त हो जाएगी...गौरी लंकेश जिसका ताजा उदाहरण हैं...जब इतना सत्य लिखा है तो तथ्य भी आपको उपलब्ध करा दिए जाएं ताकि आपको कुछ मजा आ जाये और मुझे एक नई मुसीबत मोल लेने की सजा मिल जाये...आपको बता दें कि यूपी के कई जिलों में पत्रकारों की एक गैंग होती है...जिसके आतंक से आम आदमी तो आम आदमी पुलिस भी परेशान रहते है...अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी हो या किसी को अपने कदमों में झुकाना हो...!!

पत्रकारों की यह गैंग अपने टूटे हुए कलम की टपकती हुई स्याही से ऐसी गोल मोल खबर लिखते हैं कि पढ़ने वाला अपना सिर पीटने लगे और समझने वाला समझ जाएं...एक पत्रकार हैं...जिनका नाम मैं लेना नहीं चाहता पर लोग समझ जायेंगे...महोदय किसी न्यूज़ वेबसाइट के जिला संवाददाता हैं...जो इंग्लिश में चैनल तक लिखना नही जानते हैं...लेकिन अपने उस जिले के मशहूर और मगरूर पत्रकार हैं...दूसरे हैं जो इंग्लिश में जर्नलिस्ट तक सही नही लिख पाते हैं लेकिन किसी फर्जी पत्रिका के जिला संवाददाता हैं...और अपनी पत्रकारिता से किसी को भी दहलाने का दम रखते हैं...और तमाम किस्म किस्म के पत्रकार मैंने अपने इस 12 सालों के पत्रकारिता के जीवन में देखें है...अरे हां...मैंने इतना कुछ तो लिख दिया उसके बाद शोले फ़िल्म का यह डायलॉग याद आ गया...'कितने आदमी थे, सरदार दो' अब तेरा क्या होगा कालिया...सॉरी अब तेरा क्या होगा... कुंवर सी.पी. सिंह... ?

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