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पद्मावती फ़िल्म पर विवाद आखिर है क्या, मुझे तो अभी तक यह समझ ही नहीं आया। क्या उसमें जायसी की पुस्तक में लिखी कहानी को बदलकर कोई ऐसी मनगढंत कहानी डाल दी गई है, जिससे राजपूतों की भावनाएं आहत हो रही हैं?
जहां तक मुझे जानकारी है, फ़िल्म में वही दिखाया जा रहा है, जो कि जायसी की पुस्तक या जनश्रुति में है। उसके मुताबिक, खिलजी ने रानी पद्मावती के लिए आक्रमण किया और राजपूतों को हरा तो दिया लेकिन रानी पद्मावती को हासिल नहीं कर सका क्योंकि रानी ने अन्य राजपूत स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया।
अब इसमें राजपूतों की भावनाएं आहत होने का तो केवल एक ही मसला दिखाई दे रहा है और वह है अपनी स्त्रियों की रक्षा के लिये लड़े गए युद्ध में उनकी हार। लेकिन इसमें भी शर्मिंदगी का सबब क्या है, यह मेरी समझ से परे है। क्योंकि योद्धा तो वह होता है, जो बहादुरी से लड़े, हथियार न डाले। और बहादुर वह होता है, जो मरते दम तक भी हार न माने। तो राजपूतों ने तो इस युद्ध में अपनी बहादुरी, योद्धा होने की काबिलियत और जाबांजी साबित कर दी। और अगर इतिहास का यही दृश्य भन्साली दुनिया के सामने एक बार फिर ला रहे हैं तो इससे तो राजपूतों की आन-बान-शान को चार चांद ही लग रहे हैं।
राजपूती शान में बट्टा तो तब लगता, जब भंसाली जोधाबाई, जयचंद या मानसिंह जैसे राजपूती चरित्रों पर फ़िल्म बनाते। तब भले ही राजपूत इसे अपनी शान में गुस्ताखी मानकर परदों पर भी इतिहास दिखाने की खिलाफत करते। हालांकि इतिहास का विद्यार्थी रहने के कारण मेरा स्पष्ट मत है कि इतिहास जो था, जैसा था, उसे वैसे ही रूप में पेश करना चाहिए ताकि हम उसे देखकर अपना भविष्य और वर्तमान तो सुधार लें।
इतिहास न तो गौरान्वित होने की चीज है और न ही शर्मिंदा होने की...क्योंकि उस दौर में जो भी घटित हुआ, जैसा भी घटित हुआ, आज हमारा उसमें कोई योगदान नहीं है। हमें तो बस इतिहास को पढ़कर अपने पूर्वजों के सामने आईं कठिनाई और समस्याओं को जानना-समझना चाहिए। इतिहास केवल सीखने और सबक लेने की चीज है इसलिए पद्मावती पर मचा स्यापा मेरी नजर में चंद मूर्ख लोगों द्वारा मचाये जा रहे हंगामे के अलावा कुछ खास तवज्जो देने लायक समाचार नहीं है।
अश्वनी कुमार श्रीवास्त�
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