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शहर ए खामोशां में एक छत: कब्र और छत के बीच घूमता सारा जीवन चक्र!
जिस छत पर में बैठा हूं, उसकी तह में किसी की क़ब्र है। आसपास जितनी छतें दिखती हैं, सब कब्रों पर तनी हैं। इस क्षेत्र को कबड़ा घाट कहते हैं। कब्रों का घाट। घाट इसलिए क्योंकि बगल में बागमती बहती है। फिलहाल शांत है। महीने बाद उफनाएगी। फिर सारी रूहें सिंच जाएंगी। हरी हो जाएंगी। बागमती की ओर से हवा के जो थपेड़े आते हैं वे इसीलिए इतने भारी होते हैं। इतना जंगल। इतने पेड़। इतनी हवा। इतनी सीलन। सारे रंध्र दो दिन में ही खुल गए हैं। फिर भी देह पर एक परत सी जमी लगती है। जैसे श्मशान से लौट कर नहाने को जी करे।
कुछ ऐसे ही मौसम में सात साल पहले यहां आया था। दो कहानियां और दो कविताएं लिखी थीं। सघन गाछ में खूब घूमा था। बांध के ऊपर चला था। मकड़ी के जालों में फंसा था। आसमान नज़र भर देखा था। जैसे अभी देखता हूं। मेरी दृष्टि रेखा के पैंतालीस अंश पर ध्रुव तारा टंका पड़ा है। चारों ओर आकाश दिन की तेज धूप से जल कर काला हुआ है या यहां दफन लोगों के ठंडे धुएं से, ठीक ठीक नहीं कह सकता। कुछ तो है यहां जो अकथ है। गाछ की ओर देखने से ऐसा लगता है कोई निकल कर न आ जाए सहसा।
छत महज किसी मकान की ऊपरी सीमा नहीं होती। छत एक अहसास है। छत का होना शायद ज़रूरी न हो लेकिन छत का अहसास आपको ऊपर ज़रूर उठाता है। प्राणवायु देता है। हर बनी अधबनी अबनी छत के नीचे कम से कम एक कब्र वाला कब्रिस्तान ज़रूर होता है। कोई छत बना कर मर जाता है, कोई बनाते हुए, कोई बिना बनाए। जो छत बनाते हैं, वे खुद छत पर नहीं आते। जो आ जाते हैं, वे अकसर छत से ऊपर उठ जाते हैं।
छत और कब्र के बीच सारा जीवन चक्र घूमता है। असल सवाल यह नहीं कि आपने मकान बनाया या नहीं। सवाल ये है कि आप कितना ऊपर उठे। छत पर गए, तो उससे ऊपर प्रक्षेप की कोशिश की या नहीं। नदी को, गाछ को, चमगादड़ों को देखा या नहीं। मृत्युगंध सरीखी नम हवा में भीग कर कहीं उसकी परत धो तो नहीं दी? ध्रुव तारा पहचान सके कि नहीं। उसे सिर्फ देखा या फिर कोई दिशा भी समझ में अाई? उन मुर्दों को माफ किया या नहीं, जो बिना दिशा दिए ऊपर निकल लिए अपनी लड़ाइयां लड़ के। उन इंसानों को माफ किया या नहीं जिन्होंने छत तो बनवाई लेकिन सीढ़ियों पर ही अटके रह गए!