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- बेरोजगारी अपनी जगह...
परमेंद्र मोहन
मैं इस बहस से असहमत हूं कि जिस देश में अपार बेरोजगारी हो, बुनियादी सुविधाओं का अभाव हो, वहां ढाई-तीन हज़ार करोड़ रुपये खर्च करके प्रतिमा निर्माण का क्या औचित्य है? इतिहास का छात्र रह चुकने के नाते मेरा मानना है कि हर पीढ़ी को अगली पीढियों के लिए कुछ न कुछ अनमोल विरासत ज़रूर छोड़कर जाना चाहिए। अगर बामियान की बुद्ध प्रतिमा भारतीयों को भी गौरव का अहसास कराती रही, स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी अमेरिकीयों को आज़ादी का गौरव दिलाती है तो भारत में भारत को एक राजनीतिक ईकाई में बांधने में बड़ी भूमिका निभाने वाले सरदार पटेल की प्रतिमा पर सियासत कैसी?
वैशाली का अशोक स्तंभ देखकर मुझे आज भी गौरव का अहसास होता है कि मेरे ज़िले में इतिहास का एक ऐसा प्रतीक है, जिसे उस राजा ने बनवाया था, जिसका राज देश-विदेश तक विस्तारित था। ऐसा भी नहीं है कि जिन देशों में ऐसी धरोहरें बनीं, वहां बेरोजगारी-गरीबी नहीं रही और ऐसा भी नहीं है कि अगर इन धरोहरों पर इस्तेमाल राशि का इस्तेमाल जनहित में होता तो बेरोजगारी-गरीबी खत्म हो जाती। देश को इस तरह की धरोहरों पर गर्व होना चाहिए क्योंकि इस पर हुआ खर्च देश के टैक्सपेयर्स की कमाई का हिस्सा है, किसी व्यक्ति या पार्टी या उद्योगपति की जेब से गया पैसा नहीं है। मुझे चीन की तकनीक की मदद को लेकर उठ रहे सवालों में भी दिलचस्पी नहीं है क्योंकि ये स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी स्वदेशी तकनीक को बाह्य सहयोग की जरूरत थी, इसमें क्या है, हम दुनिया में सबसे कम लागत में मंगलयान भेज सकते हैं और हमारी उस तकनीक की मदद दुनिया के कई देश ले रहे हैं, हर किसी के पास सबकुछ नहीं होता और लेन-देन चलता ही रहता है।
इन तमाम बहसों के पीछे की वजह मात्र ये है कि विपक्ष को ये लगता है कि मोदी इसका चुनावी फायदे में इस्तेमाल कर सकते हैं और बीजेपी की मुश्किल ये है कि आज़ादी की लड़ाई में योगदान देने वालों में ज्यादातर कांग्रेसी थे तो उनकी विरासत को अपने पक्ष में कैसे इस्तेमाल करे? इतिहास में छूट चुके या छोड़े गए प्रसंग या अध्याय तो जोड़े जा सकते हैं, लेकिन इतिहास बदला नहीं जा सकता और इतिहास ये है कि जब अंग्रेजों के खिलाफ निर्णायक संघर्ष चल रहा था, उस वक्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारतीय जनमानस से अलग राह पर था और कुछ हद तक अंग्रेजी हुकूमत के साथ तक चला गया था। जनसंघ या आगे चलकर बीजेपी इसी विरासत की देन है तो निश्चित रूप से इस भूल सुधार के कदम स्वाभाविक रूप से उठाने की जरूरत है। जिस नाथूराम गोडसे को संघ से जोड़कर देखा जाता रहा, जिसने महात्मा गांधी की हत्या की थी, उन्हीं गांधी का नाम मोदी जपते नहीं अघाते हैं तो बीजेपी के इस मनोभाव को समझा जा सकता है।
दूसरी ओर, सरदार की जगह गांधी प्रतिमा क्यों नहीं बनाई गई, का सवाल उठाने वाली कांग्रेस को भी इतिहास पर नज़र डालने की ज़रूरत है ताकि ये समझ सके कि गांधीवादी आंदोलन कांग्रेस के आंदोलन नहीं हुआ करते थे, बल्कि गांधी कांग्रेस की सांगठनिक शक्ति का इस्तेमाल अपने आंदोलनों में किया करते थे। गांधी, नेहरू, पटेल को कांग्रेसी मानना या भाजपाई मानना उतना ही अनुचित है, जितना शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह को वामपंथी भर मानना, ये सभी देश के गौरव हैं, दल के गौरव नहीं और हमेशा देश के गौरव ही रहेंगे, कभी किसी दल के गौरव नहीं, इसलिए सरदार पटेल की इस प्रतिमा पर गर्व कीजिए कि दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा अब हमारी यानी भारत की है, भारतीयों की है, किसी पार्टी की नहीं, किसी प्रधानमंत्री की नहीं।