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जयपुर के पत्रकारो को अपनी रही सही इज्जत बचानी है तो उन्हें अविलम्ब आंदोलन समाप्त कर देना चाहिए। क्योंकि उनकी दुकान में बेचने के लिए कोई सामान नही बचा है। टूटा-फूटा फर्नीचर बेचकर दुकान को नही चलाया जा सकता है। जिस सामान के पीछे दुकान को चलाया जा सकता था, उसे बड़ी चालाकी से बनर्जी ने पिछले माह ही खरीदकर पत्रकारो को भिखमंगा कर दिया। अब ना तो किसी हालत में मानव श्रृंखला और क्रमिक अनशन से मांगो को नही मनवाया जा सकता है।
हकीकत यह है कि सक्रिय और प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों से पत्रकार जुड़े हुए है, वे आंदोलन की तरफ झांक नही रहे है। ठाली और बेकार बैठे लोग अवश्य माला पहनकर अपना उल्लू सीधा कर रहे है। मेरा दावा है कि इन परिस्थितियों में पत्रकार साल भर भी धरना देंगे तो भूखंड तो क्या भूखंड का नक्शा भी देखने को नही मिलेगा।
गिरती हुई साख को बचाना है तो आंदोलनकारी नेताओ को मालिको की परवाह किये बिना वरिष्ठ पत्रकार मसलन मिलाप चंद डांडिया, सीताराम झालानी, प्रवीण चंद्र छाबड़ा, लोकपाल सेठी, राजेन्द्र गोधा, बीएम शर्मा, दीनबंधु चौधरी और राजेंद्र बोड़ा जैसे परिपक्व लोगो की शरण मे जाकर आंदोलन की कमान उनको सौपनी चाहिए । मेरा दावा है कि इनके दखल के बाद सम्मानपूर्वक आंदोलन का समापन हो जाएगा और पत्रकारो की गिरी साख भी बहाल हो जाएगी।
बड़े दुख की बात यह है कि राजधानी के किसी अखबार में आंदोलन की खबर को स्थान नही मिल रहा है। चवन्नी छाप अखबार में खबर छपने से सरकार की सेहत पर जू तक नही रेंग रही है। कमल जोशी जैसे वरिष्ठ पत्रकार जिनको लाइफ अचीवमेंट अवार्ड मिल चुका है, उनको उसी प्रकार सज धज कर आमरण अनशन करना चाहिए जिस तरह वे सज धज कर अवार्ड लेने आये थे । कम से कम उनका वजन भी कम हो जाएगा और सेहत में भी इजाफा होगा। इसके अलावा सभी पत्रकार संगठनों और प्रेस क्लब के वर्तमान और भूतपूर्व पदाधिकारियों को अपनी नौकरी के खौफ से बाहर निकलकर इन भटके और नाकाबिल लोगो का साथ देना चाहिए । मेरा दावा है कि सरकार को दिन में तारे नजर आने लगेंगे। जो इस धरती पर आया है, उसका जाना सुनिश्चित है। फिर पत्रकारो को बुढ़ापे में नौकरी का खौफ क्यो ? इनमे से कई पत्रकार तो ऐसे है जो कई साल से सरकार को लूटते आ रहे है और आज भी इसी काम मे सक्रिय है। अब क्या वे अनाज की बजाय सोने के बिस्कुट की रोटी खाने की चाहत रखते है ?
कल मेरी पोस्ट पर पत्रकार साथियो की काफी अनुकूल प्रतिक्रिया मौखिक तौर पर मिली। लेकिन फेसबुक पर प्रतिक्रिया देने से घबराते रहे। मैं अपने साथियों को बताना चाहता हूँ कि ना तो मेरी किसी से भी अदावत है और ना ही मैं किसी को खुश करने के लिए पोस्ट डालता हूँ। जो हकीकत है उसे पूरी ईमानदारी से परोसने की कोशिश करता हूँ । इससे किसी को चोट भी लग सकती है तो किसी को खुशी का इजहार। लेकिन ना तो मै तो वह सीढी हूँ जिस पर चढ़कर लोग अपनी राजनीति की साँप सीढ़ी खेल सके। और ना ही मैं स्टेपनी हूँ जिसका पंक्चर होने पर इस्तेमाल किया जा सके। हॉ, फायरब्रिगेड अवश्य हूँ।
नोट : यह पोस्ट मैंने आंदोलन के शुरुआती दिन में डाली थी। मेरा अनुमान कितना से सच साबित हुआ, आप खुद अंदाजा लगा सकते है।
महेश झालानी
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