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हंगामा है क्यों बरपा......?

हंगामा है क्यों बरपा......?
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अब 70 बरसों से कांग्रेसीकरण और वामीकरण की परत जिस तथाकथित लोकतांत्रिक संस्थान पर जमी होगी, वहां पर अचानक संघीकरण की परत चढ़ाई जाएगी तो हंगामा तो होगा ही।
सुप्रीम कोर्ट हो या देश की कोई भी लोकतांत्रिक संस्था... पवित्र गाय कभी नहीं रही है। नेहरू और इंदिरा के दौर से ही केंद्रीय सत्ता पर पर काबिज दल या नेता लोकतंत्र की इन संस्थाओं को हड़पने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। आखिर किससे छिपा है कि देश की तकरीबन हर लोकतांत्रिक संस्था पर दशकों से कॉन्ग्रेसी और वामी विचारधारा के लोग हावी रहे हैं। और पहले भी कई कई बार नियम-कानूनों और संविधान की बत्ती बनाकर जनता को कांग्रेस और लेफ्ट के कद्दावर नेताओं ने थमाई है।

हालांकि इस बार नया शायद यह हुआ है कि एक साथ चार जस्टिस मीडिया के सामने आकर सुप्रीम कोर्ट को बचाकर देश में लोकतंत्र बचाने की दुहाई देने लगे हैं। लेकिन जस्टिस महोदयों का यूँ खुल कर मैदान में आना और इसको लेकर देश में इस कदर हंगामा बरपा होना स्वाभाविक ही है...अब 70 बरसों से कांग्रेसीकरण और वामीकरण की परत जिस तथाकथित लोकतांत्रिक संस्थान पर जमी होगी, वहां पर अचानक संघीकरण की परत चढ़ाई जाएगी तो हंगामा तो होगा ही।
मुझे आज भी याद है कि जेएनयू में सीधे तौर पर लेफ्ट संगठन से जुड़े रहने और वाम विचारधारा से प्रभावित होने के कारण इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन में मैं उस गुट में गिना जाने लगा था, जो वाम विचारधारा का झंडा इसलिए बुलंद करता था क्योंकि उसे लगता था कि मीडिया में वाम विचारधारा के लोगों का वर्चस्व है और इससे नौकरी मिलने में आसानी होगी। जबकि दिल से आर्थिक व सामाजिक समानता के पक्षधर होने के चलते वामी होने वाले मेरे अलावा Satya Prakash Chaudhary जैसे इक्का-दुक्का लोग ही उस गुट में थे।
दूसरी तरफ कोर्स डायरेक्टर के प्रश्रय में मलाई काट रहा वह गुट हमारे मुकाबले में था, जिसका झंडा संघ की शाखाओं में जाने वाले युवा 'पत्रकार' बुलंद कर रहे थे। जाहिर है, लोकतंत्र के इतने अहम स्तंभ की बुनियाद बनने की तैयारी करने वाले हम सभी उसी वक्त लोकतंत्र की हत्या करने के लिए गुटों में बंट चुके थे। अब हममें से कोई जीतता लेकिन मीडिया से लोकतंत्र का स्तंभ हम लोगों के दम पर बनने की उम्मीद रखने वाला मूर्ख ही कहलाता।
बहरहाल, समय संघियों के साथ था इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी के राज में शुरू हुए संघीकरण की ऐसी आंधी चली कि उस वक्त खाकी निक्कर पहने हर ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा मीडिया में अपना सरपरस्त पा ही गया और आज देश का जाना-माना पत्रकार बनकर मीडिया के बड़े बड़े संस्थानों को चला रहा है।
लेकिन इस पर भी हाय-तौबा मचाने का क्या औचित्य है? क्योंकि कहीं सत्ता की चाभी उस वक्त अगर कांग्रेस और लेफ्ट के पास होती तो आज का मीडिया कंट्रोल कर रहे संघी जमूरों की जगह मीडिया पर कॉन्ग्रेसी या वामी नमूनों का कब्जा होता और वह भी मीडिया के जरिये ऐन संघियों की ही तरह लोकतंत्र की ऐसी-तैसी फेर रहे होते।
अब अगर मीडिया में इतने बड़े पैमाने पर कॉन्ग्रेसीकरण को बदलकर संघीकरण किया गया तो क्या देश की कोई भी ऐसी लोकतांत्रिक संस्था बची होगी, जहां यही प्रक्रिया न अपनायी गयी हो?
जाहिर सी बात है कि दशकों की गंदगी साफ करके दूसरी गंदगी चढ़ाना हंगामाखेज काम तो है ही....जबकि कायदे से हंगामा तो तब होना चाहिए, जब पवित्र गाय सरीखी किसी लोकतांत्रिक संस्था को पहली बार गंदा किया जा रहा हो...ऐसे में क्या मगजमारी करके अपना दिमाग खराब करना, जब पता ही है कि हंगामा मचाने वाले लोग इसलिए थोड़ी न हंगामा मचा रहे हैं कि लोकतंत्र खतरे में पड़ गया है...वे तो इसलिये हंगामा मचा रहे हैं कि गुरु हमारा दौर खत्म हो गया...अब देश के 'लोकतंत्र' का संघीकरण हो गया है...
इसलिये मैं तो उसी पुरानी कहावत को ही इस मौके पर ज्यादा मुफीद समझता हूँ कि...
'किस-किस को याद कीजिये, किस-किस को रोइये...
आराम बड़ी चीज है, मुंह ढंक के सोइये'
खैर, ...लोकतंत्र को कुछ नहीं हुआ है और न लोकतंत्र खतरे में है। आप किसी के बहकावे में न आइये। लोकतंत्र से गंदगी की एक परत खुरच-खुरच कर गंदगी की ही दूसरी परत चढ़ाई जा रही है। इसलिये थोड़ा कोऑपरेट कीजिये महाराज...
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