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योगेंद्र यादव ने लिखा था आठ साल पहले, "आधी-अधूरी क्रांतियों का युग "

Shiv Kumar Mishra
3 Jan 2020 2:39 AM GMT
योगेंद्र यादव ने लिखा था आठ साल पहले, आधी-अधूरी क्रांतियों का युग
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लेकिन अब फैज़ के कलम से बुना यह सपना हकीकत को और भी मैला किये दे रहा था.

आँखें काहिरा के तहरीर चौक की फोटो देख रहीं थी. लेकिन कानों में इकबाल बानो की अद्भुत आवाज गूँज रही थी.

"/हम देखेंगे ...

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिसका वादा है

जो लौह-ए-अजल में लिखा है/"

एक क्षण के लिये मन अटका. जरूर इकबाल बानो की आवाज़ का जादू रहा होगा कि पहले कभी पलटकर सोचा ही नहीं. क्या वाकई जिस दिन का वादा था वो दिन "/लौह-ए-अजल" /में

लिखा है/? / क्रांति इस दुनिया का शाश्वत नियम है? काहिरा कि 'बेला-चमेली' क्रांति (अंग्रेजी में इसे जेस्मीन रेवोलुशन कहा जा रहा है) ने यह सवाल पूछने पर मजबूर किया है.

बेशक काहिरा से इस्कंदरिया तक जनता जनार्दन का उभार क्रांति के पुराने सपने को जगाता है. पाकिस्तान के क्रांतिकारी कवि फैज़ अहमद फैज़ की यह मशहूर ग़ज़ल हमारे उपमहाद्वीप ही नहीं पूरी दुनिया में तानाशाही के जुल्मो-सितम के खिलाफ लड़ने वालों के लिये प्रेरणा गीत बन चुकी है. शायद लोकतंत्र की कीमत भारत से ज्यादा पाकिस्तान, बंगलादेश और नेपाल के लोग समझते हैं, चूंकि उन्होंने तानाशाही झेली है. हुस्ने मुबारक के सत्ता छोड़कर भाग जाने पर काहिरा में किसी न किसी के होंठो पर तो फैज़ के बोल आये होंगे:

"/जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गराँ/

/रुई की तरह उड़ जाएँगे"/

मन फिर पहाड़ और रुई के इस रूपक पर अटकता है. कौन नहीं जानता कि मुबारक की तानाशाही के सर पर दुनिया भर को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले अमरीका और उसके यूरोपीय दुमछल्लों का वरदहस्त था. तानाशाह के रुखसत होने पर इजराइल की चिंता और फिलिस्तीनियों का उल्लास मिस्र, इजराइल और अमरीका के हुक्मरानों के नापाक रिश्तों का खुलासा करता है. अगर आप पिछले दस दिन से तेल के दाम का खेल देख रहे हों तो आप समझ जायेंगे कि धरती के नीचे खनिज होना धरती पर रहने वाले मनुष्यों के लिये श्राप हो सकता है. पहले टुनिशिया और फिर मिस्र में जो हुआ उसे पहाड़ के रुई की तरह उड़ जाने की बजाय कठपुतली के धागे कटने की संज्ञा देना बेहतर होगा. अरब जगत में अमरीका की नाक के बाल हुस्ने मुबारक अब उसकी आँख में किरकिरी बन गए थे.विचार श्रृखला फिर टूटती है. गज़ल अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गयी है:

"/सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे/"

यह रेकॉर्डिंग लाहौर की है, उस वक़्त जब पाकिस्तान जिया-उल-हक की तानाशाही तले पिस रहा था. ग़ज़ल के इस मोड़ पर श्रोताओं की भावनाओं का विस्फोट होता है. इकबाल बानो की आवाज़ तालियों की गडगडाहट और तानाशाही विरोधी नारों में डूब जाती है. एक क्षण के लिये भय का साम्राज्य ढह जाता है. ठीक वैसे ही जैसे तहरीर चौक पर पर पहले दिन महज दो सौ बहादुर लोगों के खड़े होने से हुआ था. ताज उछलते और तख़्त गिरते देखकर मन फिर फैज़ के कलाम के साथ बह निकालता है:

"जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से

सब बुत उठवाए जाएँगे

हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएँगे"

लेकिन तभी राजनीति की हकीकत कविता को विराम देती है. टुनिशिया में तख़्त तो पलटा लेकिन मसनद पर बहिष्कृत समाज नहीं बैठा. पुराने सत्ताधीशों का एक और गुट फिर सिंहासन पर काबिज हो गया. मिस्र में अंतत क्या होगा यह नहीं कहा जा सकता. लेकिन फिलहाल तो मसनद पर वही बैठे हैं जिनके हाथ में बन्दूक है, जो कल भी बन्दूक के मालिक थे. मुबारक भले ही उठा दिए गए हों, सच के मदिर से झूठ के पुतले उठने की कोइ सूरत दिखाई नहीं देती. अगर क्रांति की चिंगारी जल्द ही बुझ न गयी तो यह संभव है की सत्ता का हस्तांतरण फौज के हाथों से चुनी हुई सरकार के पास आ जायेगा. लेकिन मिस्र के शासक जिस अंतर्राष्ट्रीय निजाम के हाथ में मोहरा हैं, वह नहीं बदलेगा. तेल, पूँजी और सत्ता का रिश्ता नहीं टूटेगा. मेरे मन की भटकन से बेखबर इकबाल बानो आगे बढ़ती जा रही थीं:

"और राज करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो"

लेकिन अब फैज़ के कलम से बुना यह सपना हकीकत को और भी मैला किये दे रहा था.दिमाग आगे जाने की बजाय पीछे मुड़कर देख रहा था. क्रांति के आधुनिक विचार का जन्म १८वी सदी में फ़्रांस की राज्य क्रांति से हुआ. उन्नीसवीं सदी आते आते यह संयोग एक सपना बन गया. क्रांति सिर्फ तख्ता पलट की बजाय सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन का पर्याय बन गयी. बीसवीं सदी में इस सपने को हकीकत के धरातल पर उतारने की अनेक कोशिशे हुईं.

रूस, चीन और इरान की क्रांतियों की चर्चा किये बिना बीसवीं सदी का इतिहास नहीं लिखा जा सकता. इन क्रांतियों ने राज्य सत्ता और शासक वर्ग का चेहरा बदला, समाज और अर्थनीति में दूरगामी बदलाव किये. लेकिन बीसवीं सदी के ये प्रयोग उन्नीसवीं सदी के सपने से बहुत दूर ही रुक गए. क्रांतियाँ तो हुईं लेकिन जिन लोगों और जिस विचार के नाम पर ये क्रांतियाँ हुई थीं, वो जल्द ही हाशिये पर चले गए.इक्कीसवीं सदी आते आते क्रांति का संकल्प थक चूका था, यह हसीन सपना एक चालू मुहावरे में बदल चूका था. हमारे यहाँ हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की तर्ज़ पर दुनिया भर में नाना किस्म की क्रांतियों की बात चल निकली.

एक बार फिर क्रांति शब्द का अर्थ सिमट कर तख्ता पलट हो गया. पूर्व सोवियत संघ के देशों में "मखमली क्रांति", फिर युक्रेन में "नारंगी क्रांति" और अब मिस्र में बेला-चमेली क्रांति. जैसे जैसे क्रांति के विचार पर रंग और रूप मढ़े जाने लगे, वैसे-वैसे क्रांति का विचार फीका और गंधहीन होने लगा. इकबाल बानो की आवाज़ थम गयी थी. सामने अख़बार पड़ा था. मुखप्रष्ठ पर एक आन्दोलनकारीकी छवी थी जो फौजी अफसर को गले लगे रहा था. अचानक छवि तरल हो गयी और एक प्रश्नचिंह बनकर तैरने लगी. क्या इक्कीसवीं सदी में क्रांति के विचार का पुनर्जन्म होगा?

हम देखेंगे?

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