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'असली संकट सिर्फ़ जेएनयू का नहीं है?

Special Coverage News
20 Nov 2019 11:23 AM GMT
असली संकट सिर्फ़ जेएनयू का नहीं है?
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सौरभ वाजपेयी

'असली संकट सिर्फ़ जेएनयू का नहीं है, भारत में उच्च शिक्षा को बेचने की साजिश चल रही है। देश की सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी जेएनयू को चलाने के बजट में 12 करोड़ रूपये कम पड़ रहे हैं। कल जेएनयू के डीन्स की अर्जेंट मीटिंग में यह कह भी दिया गया। मेस वर्कर्स और अन्य हॉस्टल स्टॉफ को देने के लिए यूनिवर्सिटी के पास पैसे नहीं हैं।

देश की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी डीयू को बेचने की कोशिशें पिछले 3 सालों से जारी हैं। कह दिया गया है कि यूनिवर्सिटी और कॉलेज अपने 30% फंड्स ख़ुद जुटाएं। हेफा यानी हायर एजुकेशन फंडिंग अथॉरिटी बना दी गई है। अब शैक्षिक संस्थानों को फंड्स नहीं लोन लेना होगा। अब कॉलेज या यूनिवर्सिटी अगर कर्ज़ा लेगी तो चुकाना भी पड़ेगा। हालात यह है कि लैब इक्विपमेंट्स खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं, जर्नल्स सब्सक्राइब करने के पैसे नहीं हैं।

अभी वर्धा यूनिवर्सिटी में था। उस दिन अचानक तीन में से एक मेस बंद कर दी गई। 300 स्टूडेंट्स भूखे-प्यासे प्रोटेस्ट कर रहे हैं। देहरादून में आयुर्वेद के डॉक्टर्स भी इसी फी हाइक के विरोध में सड़कों पर हैं क्योंकि फीस बढ़ाने के अलावा कोई चारा नहीं है। आईआईटी और आईआईएम में पहले ही यह काम बख़ूबी हो चुका है। देश की तमाम अन्य यूनिवर्सिटीज़ और इंस्टीट्यूट्स इसी आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं।

मूल बात यह है यह संकट नहीं है, साजिश है। मोदीजी की सरकार जो भी सरकारी है कॉरपोरेट के हाथों बेचने की साजिश में लगी है। यूनिवर्सिटी सिस्टम कौन अनोखा है जिसे मोदीजी बख़्श देंगे। आम टैक्सपेयर्स के पैसे पर चलने वाली इन यूनिवर्सिटीज को बदनाम करना है तो जेएनयू, हैदराबाद, बीएचयू, एएमयू, वर्धा से लेकर पटना, मगध और लखनऊ यूनिवर्सिटी तक जो विरोध करे उसे आम जनता की नज़र में देशद्रोही, मुफ्तखोर और अय्याश सिद्ध करना है।

मीडिया और सोशल मीडिया आईटी सेल की मदद से सवाल पूछने वालों, विरोध करने वालों को ट्रोल करना इसलिए जरूरी है कि जब यूनिवर्सिटीज बेची या ढहाई जा रही हों, बरगलाए हुई जनता ताली पीट-पीटकर जश्न मनाए। जो लोग जेएनयू को ट्रोल करते वक़्त देशभक्ति से भाव में तल्लीन हैं, तंद्रा टूटते ही सवाल करेंगे कि अरे देश कब बिक गया? और तब इतिहास का क्रूर चक्र ठठाकर हँसेगा।

उनके कान अपने ही शोर से फटने लगेंगे-- "देशद्रोही-देशद्रोही"। उनके हताश-निराश बच्चे जब उनसे कहेंगे कि "पापा पढ़ना है।" तो ये आवाज़ उनके कानों में शीशे की तरह घुलकर ऐसे आएगी जैसे किसी ग़रीब के भूखे बच्चे बाज़ार में सजे सामान को देखकर रोएं--"पापा, भूख लगी है" और पापा हैं कि सामान खरीद नहीं सकते।'

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