दिल्ली

केजरीवाल संत नही है, किन्तु एक के नरेटिव में पानी, बिजली, स्कूलों, अस्पतालों का विमर्श है, दूसरे में मुसलमान, पाकिस्तान, देशभक्ति का?

Shiv Kumar Mishra
18 Jan 2020 6:58 AM GMT
केजरीवाल संत नही है, किन्तु एक के नरेटिव में पानी, बिजली, स्कूलों, अस्पतालों का विमर्श है, दूसरे में मुसलमान, पाकिस्तान, देशभक्ति का?
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केजरीवाल संत नही है। मगर क्या हमने संतों की ओवरडोज पहले ही नही ले रखी ??

मनीष सिंह

यह आदमी संत नही है।

अरविंद केजरीवाल के कितने रूप हमने देखें हैं। इंजीनियर केजरीवाल, अफसर केजरीवाल, एक्टिविस्ट केजरीवाल, पोलटिशियन केजरीवाल, सीएम केजरीवाल। अन्ना के आंदोलन का मैनेजर केजरीवाल, उसे तोड़कर पार्टी बनाने वाला केजरीवाल, हंसता केजरीवाल, खांसता केजरीवाल, चीखता केजरीवाल, तानाशाह केजरीवाल ..

सलीम जावेद सी स्क्रिप्ट में एक्शन इमोशन ड्रामा सब है। केजरीवाल जब पहली बार चर्चा में आये तो अकेले न थे। प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, शाजिया इल्मी, किरण बेदी, कुमार विश्वास, सोमनाथ भारती.. इस गैलेक्सी में केजरीवाल फर्स्ट अमंग इक्वल भी न थे। फर्स्ट तो अन्ना थे।

आंदोलन से पार्टी बनी। एक एक कर बहुतेरे बिछड़े, हटे,निकाले गए। केजरीवाल आप के अकेले और एकक्षत्र नेता हुए। इसे सत्ता को कंसोलिडेट करना कहते हैं। सत्ता पाने के लिए कितने चक्रम किये गए, यह एक चेप्टर होता है। दूसरा, ज्यादा अहम चेप्टर सत्ता हासिल करने के बाद शुरू होता है। किसी दल के भीतर क्या होता है, वो दल के सदस्य और नेता समझें, मरें-खपें-लड़ें। वोटर को मतलब तो सरकार और उसके कार्यक्रम से है।

शुरुआती दो साल, एलजी और केंद्र सरकार के साथ कुत्ता बिल्ली का खेल चला। सीएम केजरीवाल का सबसे लो मोमेंट था, मोदी के खिलाफ "साइकोपैथ" बयान। घोर मोदी नापसंदगी के बावजूद यह बयान मुझे, एक सीएम को शोभा देने वाला नही लगा। साहब, आपकी जुबान आपके जेहन का परिचय देती है। जनता सीएम बनाती है, गर्वनेंस के लिए... डायलॉग डिलीवरी के लिए नही।

फिर अचानक जाने क्या हुआ। केजरीवाल खामोश हो गए। साल भर के भीतर कुछ अच्छी खबरे दिखने लगी। गवर्नेस का एक मॉडल, जो किसी पढ़े लिखे, मुखर एक्टिविस्ट को सत्ता सौपने के बाद दिखना चाहिए, वह झलकना शुरू हुआ। जमीन पर कितना अस्ल में सफल हुआ, वह निर्णय सिर्फ दिल्ली वाले करेंगे। लेकिन गवर्नेन्स के विषयों को गम्भीरता से लागू करने की कोशिश पूरे देश को दिखाई देती है। सीएम, एक प्रशासक की जुबान बोलता दिखाई देता है।

इसलिए आज पांच साल के बाद, खुद को केजरीवाल का प्रशंसक कहे जाने पर शर्म नही होती। पक्ष में बात के लिए किसी बात पर हठीला तर्क नही देना पड़ता। किसी भय के प्रोजेक्शन या झूठे किस्से नहीं गढ़ने पड़ते। केजरीवाल ने हमें बेजार नही किया, शर्मिंदा नही किया।

राजनीतिक रूप से और बेहतर हो सकता था। योगेंद्र यादव का साथ नही होना बेहद खलता है। कुमार विश्वास को एक राज्यसभा सीट दी जा सकती थी। और दूसरे लोग भी बेहतर ट्रीट किये जा सकते थे। ऐसा न करने की कीमत भी आम आदमी पार्टी ने भयंकर रूप से चुकाई है। एक राष्ट्रीय विकल्प की संभावना, दिल्ली जैसे अर्ध राज्य के दोयम दर्जे के क्षेत्रीय दल में सिमट चुकी है। उस आंदोलन को जिसे हमने खुलकर समर्थन किया था, उंसके सवाल और मुद्दे अनाथ छोड़कर केजरीवाल सत्ता की राजनीति में आगे बढ़ गए है।

मगर यह 2020 है। सात सालों में यमुना में बहुत पानी बह चुका। आज के हालात में हमारे सामने, देश के सामने, गर्वनेंस के दो मॉडल रख दिए गए हैं। एक के नरेटिव में पानी, बिजली, स्कूलों, हस्पतालों का विमर्श है, दूसरे में मुसलमान, पाकिस्तान, देशभक्ति का। एक मॉडल आपको शांति से बेहतर जीवन देने की चर्चा करता है, दूसरा आपको किसी रंग में रंगकर त्याग करने, लड़ने, मारने, मरने और फिर खून की नदी पार कर, इतिहास, कानून और सम्विधान को बदलने की बात करता है। फिलहाल इसी में एक को चुनना है।

केजरीवाल संत नही है। मगर क्या हमने संतों की ओवरडोज पहले ही नही ले रखी ??

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