दिल्ली

'साथी, ये इतने मूर्ख और बदमाश हैं कि जेएनयू को बर्बाद करके छोड़ेगें!'

Special Coverage News
16 Sep 2018 3:03 AM GMT
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फ़ाइल फोटो

मैं गंगा ढ़ाबा के सामनेवाली सड़क पर शाम के वक्त गमगीन होकर बैठा था कि इसी बीच मोटर साइकिलों का जुलूस दिखाई दिया। ढ़ेर सारे लड़के 'भारत माता की जय', 'बंदे मातरम्', 'अगर भारत में रहना है तो बंदे मातरम् कहना होगा' आदि उत्तेजक नारे लगाते हुए, रंग-गुलाल और अबीर उछालते हुए काफी मंद रफ्तार से हंगामा करते हुए जा रहे थे। उन आतताई भीड़ से काफी पीछे थोड़े से शांत छात्रों का एक झुंड भी चल रहा था जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के सदस्य तो थे लेकिन हुड़दंग मचाने में शामिल नहीं थे। हां, उनके चेहरों पर भी खुशी छलक रही थी क्योंकि उनमें कई विद्यार्थियों के हाथ में रंग-गुलाल और लड्डू थे। लड्डू बांटने वाले छात्रों में से एक की नजर मेरे उपर पड़ी। नजर मिलते ही उनके चेहरे पर कुटिल और जोरदार मुस्कान छा गई और वह मेरी तरफ बढ़ा। उनकी इच्छा तो मेरे उपर गुलाल छिड़कने की थी लेकिन मेरा चेहरा देखकर वह हल्का सा ठिठका। फिर भी, मिठाई के डब्बे से हाथ में लड्डू निकल ही आया। उसने मेरी तरफ लड्डू बढ़ाया। तब तक मेरा चेहरा सख्त हो गया था। उस सज्जन को मैंने यह कहते हुए झिड़का, "आप इस स्तर पर उतरेगें, इसका यकीन मुझे नहीं था।" यद्यपि वह काफी उत्साह में था फिर भी थोड़ा झेंपा और कहा-"साथी, इतनी बड़ी विक्टरी है, मेरी तरफ से एक मिठाई तो बनती है।" मैंने उस सज्जन से कहा- "आपकी तरफ से भले ही मिठाई बनती हो, लेकिन आप मेरे साथ बदतमीजी पर उतर आएगें, इसका एहसास आज तक नहीं हुआ था। खैर, आप इस तरह के व्यक्ति हैं, यह पता चलना काफी जरूरी था।" और वह व्यक्ति 'सॉरी-सॉरी' कहकर वहां से झेंपते हुए वहां से निकल गया।

चूंकि उनका व्यवहार मुझे बहुत ही नागवार गुजरी थी इसलिए मैं देर रात पेरियार, उसके कमरे पहुंच गया। चूंकि भर दिन के हुल्लड़बाजी में वह भागीदारी निभाया था इसलिए शायद जल्दी ही सो गया था। जब दरवाजे पर मैंने दस्तक दी तो वह हड़बड़ाकर दरवाजा खोला, लेकिन मुझे सामने पाकर वह कुछ ज्यादा ही नर्वस हो गया था। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी रात गए मैं उनके पास क्यों आया हूं? उसने बत्ती जलाई और मैं उनके कमरे के भीतर चला गया। चूंकि मैंने पी रखी थी इसलिए बत्ती जलते ही मैंने उनसे कहा- क्या आपने जो किया वह आपको अच्छा लगा और क्या आपको ऐसा करना चाहिए था? ठीक से याद नहीं है, लेकिन शायद मैं उससे ज्यादा ही तल्ख स्वर में उनसे बात कर रहा था! उस रात का पूरा वाक्या तो मुझे याद नहीं था उस रात का, लेकिन जितना याद है उसके हिसाब से लग रहा था कि उस सज्जन में मुझसे अपनी गलती के लिए माफी मांगी थी। इससे ज्यादा की और क्या अपेक्षा कर सकते हैं किसी से जिन्हें अपने किए पर अफसोस हो!

उस रात में काफी देर रहकर मैं वहां से वापस आ गया था। साथ ही, आते-आते मैं उन बातों को भी रिकॉल करने की कोशिश कर रहा था जो हमदोनों के बीच हुई थी।

हमदोनों के बीच हुई बातचीत में उस व्यक्ति का कहना था कि साथी, पहली बार जेएनयू के इतिहास में कोई एबीवीपी का अध्यक्ष जीता है (यह बात सन् 2000 की है जब संदीप महापात्रा अध्यक्ष पद पर विजयी रहे थे), इसलिए मैं अपनी भावना पर काबू नहीं रख पाया और हमारे सामने जो महत्वपूर्ण वामपंथी दिखा उनको मैंने मिठाई ऑफर कर दिया। इसमें आपको नीचा दिखाना मेरा कतई उदेश्य नहीं था। और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है साथी कि हमलोग एक वोट से अगर चुनाव हार गए होते तो हार तो कतई स्वीकार नहीं करते और एस आई एस (स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज) बिल्डिंग को जलाकर राख कर देते। लेकिन आज साथी मैंने लेफ्ट से सीखा है कि वह क्यों महत्वपूर्ण है… एक वोट से चुनाव हार गया और उस हार को शालीनता से स्वीकार कर लिया, यह काम सिर्फ वामपंथी ही कर सकता है। ठीक से याद नहीं है, लेकिन जितना याद है वह यह कि वह सज्जन खड़ा होकर, सर के बीच में हाथ रखकर मुझे सैल्यूट मारा था। यह भी हो सकता है कि वह बेड से उठा न हो और बैठे-बैठे ही सैल्यूट मारा हो, लेकिन सैल्यूट मारा जरूर था!

खैर, बात आई गई हो गई। उसके बाद जब कभी मिले, हमारे बीच कोई तल्खी नहीं आई थी। हम पहले की तरह ही मिलते रहे। हां, उनसे मिलना जुलना थोड़ा कम जरूर हो गया था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि हमलोगों के बीच मनमुटाव हो गया था, शायद हम दोनों जिंदगी के उस दौर में थे जब जीने के लिए बहुत हाथ पैर मारने पड़ते थे।

अगले साल छात्रसंध के होने वाले चुनाव से थोड़े दिन पहले उनसे मैं फिर मिला। बाचतीत में मैंने पूछा कि इसबार आपकी पार्टी कैसा परफॉरमेंस करेगी? इसपर उनका जवाब चौंकानेवाला था। उनका कहना था कि इस बार वह एबीवीपी को वोट नहीं देगें। मेरे यह पूछने पर कि क्या उनका बीजेपी से मोहभंग हो गया तो उनका जवाब था- "देखिए साथी, ये साले इतने बदमाश और मूर्ख हैं कि अगर इस साल भी चुनाव जीत जाए तो जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी को ही बर्बाद कर देगा। इसलिए जब तक जेएनयू में हूं, एबीवीपी को वोट नहीं दूंगा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कैंपस के बाहर बीजेपी को वोट नहीं दूंगा लेकिन कैंपस को बचाने के लिए ए बी वी पी को हराना जरूरी है।" वह सज्जन 2007 तक जेएनयू में रहा लेकिन उसके बाद कभी एबीवीपी को वोट नहीं दिया। जब जेएनयू पर स्मृति ईरानी, मोदी सरकार और भाजपा द्वारा हमले शुरू हुए तो वह सज्जन हर बार प्रदर्शन में शामिल होते हुए दिखाई पड़े। जेएनयू से निकले कुछ नौकरशाहों को मोबलाइज करने में उसने भूमिका निभाई थी। लेकिन वह सामान्य चुनाव में अभी भी भाजपा को वोट देता है।

कल रात से चुनाव में जिस तरह का अड़ंगा एबीवीपी के छात्रों द्वारा लगाया जा रहा है, मुझे उस सज्जन की बात तब से याद आ रही है- "अगर ये साले चुनाव जीत गए तो जेएनयू को नष्ट कर देगा।" और देख लीजिए, देशभर के विश्वविद्यालयों में इससे ज्यादा खूबसूरत चुनावी प्रक्रिया कहीं नहीं होती है। लेकिन बीजेपी के गुंडे उसे बर्बाद करने पर आमदा हैं।

शायद मेरा वह संधी मित्र कुछ वैसे लोगों में था जो मानता था कि अगर मौजूदा सिस्टम रहेगा तो उसी सिस्टम में मौजूद लोगों से ही काम कराने की जरूरत पड़ेगी। लेकिन वह एबीवीपी के डीएनए को जानते थे इसलिए उन्हें यकीन था कि अगर वह चुनाव जीत जाता है तो इस बेहतरीन संस्थान को नष्ट किए बगैर नहीं मानेगा।

और परिणाम देखिए, आज ए बी वी पी के गुंडे जेएनयू में चुनावी प्रक्रिया को ही ध्वस्त करने में लगा है।

जितेंद्र कुमार की फेसबुक वाल से लिया गया है

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