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गीताश्री
नन्हीं-सी जिंदगी, अकेली घर में , मृत्यु की छाया से बेख़बर अपने कौतुक में लगी है. उसे नहीं पता कि उस बंद कमरे और बाहर मृत्यु साये की तरह मँडरा रही है. कुछ भी कभी भी घटित हो सकता है. अनजाने में तरह तरह के घातक काम को अंजाम देती हुई जब वह फ़्रीज़ में बंद कर लेती है खुद को तो मुँह से चीख निकल आती है. इससे भी ज्यादा दहला देने वाला दृश्य है - जब वह रेलिंग पर चढ़ती है, उसके हाथ से छूट कर डॉल गिर जाती है... वह एक क़दम बढ़ाती है, डॉल के लिए... अंतिम क़दम से पहले मेरा कलेजा मुँह को आ जाता है... मैं आँख के कोरों को टटोलने लगती हूँ...भींग गए हैं. मैं सिर्फ एक दर्शक ही नहीं, माँ की तरह कलप जाती हूँ.
नहीं...नहीं... की अनुगूँज मुझे अपने भीतर सुनाई देने लगती है. मैं अपने अदृश्य हाथ बढा कर उसे रोक लेना चाहती हूँ. दृश्य यही फ़्रीज़ ! एक ट्रेलर देख कर मेरा ये हाल हो जाता है, पूरी फिल्म देख कर मैं खुद को कैसे संभाल पाऊंगी? फिल्म शूट करते समय जाने कैसे साहस जुटाया होगा. पीहू के सेट पर गई थी एक दिन. निर्देशक विनोद कापरी समेत पूरी टीम कितने धैर्य के साथ पीहू के साथ शूटिंग कर रही थी. दो साल की पीहू और एकांत कमरा ! मृत्यु और जिंदगी के बीच खेल को कैप्चर करते निर्देशक. कैमरा जैसे खुद किरदार हो और एक एक पल को कैप्चर करके उसे अर्थवत्ता दे देता है. कैमरे की भाषा उस खेल को गहनता से पकड़ती है. भय एक एलीमेंट है, जो परदे के बाहर बाहर पसरता चला जाता है. सबकुछ अनायास !
सोचिए कभी ... ऐसा हो तो क्या हो. हम अनिष्ट की कल्पना से बचते हैं. कैमरा उसे कैप्चर कर लेता है. ट्रेलर देख कर कहानी का सिर्फ अंदाज़ा लगा सकते हैं, कहानी खुलती नहीं. एक भय जरुर भीतर पैठ जाता है. मेरा भय और उत्सुकता अपने चरम पर है. जो भी ट्रेलर देखेगा, वो भी गुज़रेगा इसी मनोदशा से. अवाक हो जाएगा. कुछ विदेशी बच्चे ट्रेलर देखते हुए बाए खड़े हैं.
एकल पात्र वाली इस फिल्म में न संवादों की जरुरत महसूस होती है न किसी नैरेशन की. सूत्रधार मौन है जो दृश्यों के माध्यम से कथानक को पकड़ रहा है.
एकल पात्रों पर कई फ़िल्में बनी हैं. हाल में मैंने "buried " देखी थी. ताबूत में फँसा हुआ एक आम इन्सान छटपटा रहा है बाहर निकलने के लिए. उसके पास चंद चीज़ें हैं- मोबाइल और लाइटर. रोशनी होती है, बुझती है, मोबाइल पर सहायता नहीं मिल पा रही, कोई लोकेशन ट्रैक नहीं कर पा रहा है. एक अकेला मनुष्य जिंदगी के लिए छटपटाते हुए मौत की आहट सुनता है पल पल...उम्मीद नहीं हारता.
राजकुमार राव की फिल्म " ट्रैप्ड" याद होगी. हाल ही में आई है. एक नये , सुविधाहीन फ्लैट में बंद हो जाते हैं और बाहर की दुनिया से कट जाते हैं. फिर शुरु होती है ज़िंदा रहने की चुनौती. सुनील दत्त की "यादें" मैने बचपन में देखी थी, कुछ दृश्य अभी भी याद हैं. वन लोकेशन या एकल पात्रों पर बनी और भी फ़िल्में हैं- जैसे "1408, 12 angry men, lock, rear window.
पीहू सबसे अलग होगी...है भी. दो साल की बच्ची को लेकर एकल पात्र वाली पहली फिल्म है पीहू. जिसमें बच्ची को कुछ पता ही नहीं...ना वह संघर्ष के मायने जानती है न एकांत की कोई बेबसी. न बाहर निकलने की छटपटाहट. वह मासूम बच्ची अपनी माँ से संवाद करती रहती है बीच बीच में.. बिना जवाब की आकांक्षा किए. उसके लिए स्थितियाँ डरावनी नहीं है, वह सहज है और अपने कौतुक में लगी है. अन्य फ़िल्मों में पात्र कसमसाते है, छटपटाते हैं, पीहू में दर्शक !!
नयी तरह की सिनेमाई भाषा गढ़ने वाली और दर्शक को किरदार में बदल देने वाली फिल्म का इंतज़ार है...!