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गुजरात के 11 लाख नौजवानों को लिखा रवीश कुमार ने पत्र, नागरिकता का नवजीवन मुबारक

Special Coverage News
5 Dec 2019 7:14 AM GMT
गुजरात के 11 लाख नौजवानों को लिखा रवीश कुमार ने पत्र, नागरिकता का नवजीवन मुबारक
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रात भर सचिवालय के बाहर डटे रहे। मोबाइल फोन के फ्लैश और अपने नारों की आवाज़ से अंधेरे को चीरते रहे।

गुजरात के नौजवानों,

इस वक्त आप गुजरात के 11 लाख नौजवान एक नई कहानी लिख रहे हैं। इसी वक्त मैं आपको पत्र लिखना चाहता हूं। मैं आपसे बहुत दूर हूं लेकिन आपके बहुत करीब। मेरे पास किसी चोर उद्योगपति का दिया जहाज़ होता तो अभी आपके बीच पहुंच गया होता। गांधी जी कहते थे साधन की पवित्रता साध्य से ज़्यादा ज़रूरी है। हम सभी गांधी नहीं हो सकते मगर उनके बताए रास्ते पर थोड़ा थोड़ा चल सकते हैं। आपने अपने अनेक ट्विट में अपने आंदोलन को गांधीवादी कहा है, उम्मीद है हिंसा न होने के अलावा आप अपने नारों में भी शुचिता रखेंगे। आपने हिंसा नहीं की है। न ही किसी दल को बुलाया है। आगे भी जारी रखिए। आपकी लड़ाई सिर्फ आपकी मांग के लिए नहीं, आपके नवजीवन के लिए भी है। आप बदल रहे हैं। आप नागरिक होना चाहते हैं। आप नागरिक हो रहे हैं।

मैंने आपकी लड़ाई में एक निरंतरता और ज़िद देखी है। जब गुजरात सरकार ने 3000 बिन सचिवालय क्लर्क के पदों के लिए परीक्षा की प्रक्रिया के बीच में पात्रता बदल दी तो आप एकजुट होकर सड़कों पर आए। ट्विटर पर ट्रेंड कराया और सड़कों पर अपनी संख्या दिखाई। सरकार झुक गई। 12 वीं पास की पात्रता बहाल हुई। 17 नवंबर को परीक्षा हुई तो चोरी और धांधली की ख़बरों ने आपको फिर से बेचैन कर दिया। आप सारे सबूत लेकर सरकार के पास पहुंच गए। सरकार सोती रही। आप 4 दिसंबर को बड़ी संख्या में पहुंच गए। उस दिन 2 लाख से अधिक ट्विट किया मगर नेशनल मीडिया में किसी को फर्क नहीं पड़ा। इसिलए कि आपको मीडिया में एक वोट के रूप में देखा जाता है। एक ऐसा मतदाता जिसके पास धर्म है। धार्मिक पहचान है। मगर मुद्दा नहीं है। नागरिक अधिकार नहीं है। साफ साफ कहूं कि आप नेता के द्वारा एक तरफ हांक दिए जाने वाले भेड़ों की तरह देखे जाते हैं। इसलिए दिल्ली का पत्रकार आपके आंदोलन में लोकतंत्र की जैविकता नहीं देख पाते हैं। मगर आप धुन के पक्के निकले। रात भर सचिवालय के बाहर डटे रहे। मोबाइल फोन के फ्लैश और अपने नारों की आवाज़ से अंधेरे को चीरते रहे।

मैं आपके दो लाख ट्विट तो नहीं पढ़ सकता। मगर कुछ पढ़े हैं। निशांत पिपालिया ने अपने ट्विट में गोरे सरकार की तस्वीर लगाई है और उसके सामने जनता खड़ी है। प्रकाश मावची ने लोकल चैनल की खबर का क्लिप लगाया है और लिखा है कि छात्रों को बर्बरता से पीटा गया। शर्मनाक है। संदीप चावड़ा ने लिखा है कि सिर्फ छात्र ही महसूस कर सकते हैं कि उन पर क्या गुज़री है। उन्हें अपनी उम्र के स्वर्णिम दिनों से समझौता करना पड़ा है। अपनी डीपी में विवेकानंद की तस्वीर लगाने वाले आनंद देसाई ने लाखों की भीड़ की एक तस्वीर ट्विट की है। जो छात्र आंदोलन की नहीं है मगर उमें एक कल्पना है। जनता होने की कल्पना। संख्या बल की वापसी की कल्पना। मुकेश चौधरी ने ट्विट किया है कि हम आतंकवादी नहीं है। हम छात्र हैं। भरत सिंह राणा ने ट्विट किया है कि गुजरात सरकार छात्रों के जीवन से खेल रही है। परीक्षा के पेपर बेच रही है। महेश ठाकोर ने भी परीक्षा रद्द करने की मांग की है। अजय सिंह चुदास्मा ने ट्विट किया है कि एक दिन पहले पुलिस रैली की अनुमति देती है और आज अचानक धारा 144 लगा देती है। छात्रों को हिरासत में लेती है। इस तरह से आप स्वर्णिम गुजरात बनाएंगे?

आप नौजवान तो थे मगर बिन जवानी के। जवानी अब आई है। जब आप अपने मुद्दे के लिए खड़े हुए हैं और सभी के लिए एक ईमानदार परीक्षा की मांग कर रहे हैं। इसके पहले आप पटेल छात्र बन कर आए, हिंसा हो गई और सरकार ने राजद्रोह के आरोपों से कुचल दिया। आप देखते रहे। चुप रहे। समाज चुप रहा। सरकार को लगा कि बीस साल की उग्र राजनीति ने नौजवानों के दिमाग़ को कुचल दिया है। धर्मांधता की आड़ में राजनीति की इस उग्रता ने महान नेता की तलाश तो पूरी कर दी है लेकिन जनता के बीच से जनता होने का बोध ख़त्म कर दिया है। आप एक चेतनाशून्य समूह के रूप में देखे जाने लगे थे। आप इस धारणा को तोड़ रहे हैं।

आप देख रहे हैं कि जैसे ही आप धार्मिक और जातिगत पहचान के समूह से निकल कर नागरिक पहचान की तरफ बढ़ते हैं, सचिवालय की तरफ आते हैं, आप पर लाठी चलती है। धारा 144 लगती है। आपकी संख्या 11 लाख है। इसमें से पांच लाख सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा में आ जाएं तो नेशनल मीडिया दिन रात दिखाएगा। उनकी लोकप्रियता की बातें करता रह जाएगा। दरअसल यही हुआ। आपने जिस दिन रैलियों में नरेंद्र मोदी का मुखौटा पहना था, उसी दिन आपने नागरिकता की पहचान छोड़ दी थी। आप समर्थक हुए और फिर भक्त। आपका विलय नेता की पहचान में हो गया। इसलिए आप सिर्फ सपोर्टर के तौर पर देखे जाते हैं। कितना दुखद है। जनता जब खुद को ही जनता न माने।

इस वक्त आप ख़ुद से सवाल करें। घर जाकर मां-बाप से सवाल करें। धर्म की आड़ में गढ़ी गई इस राजनीतिक उग्रता से आपको क्या मिला? एक धर्म विशेष के प्रति नफ़रत की राजनीति ने आपको क्या दिया? अपने से ठीक पहले की एक पीढ़ी से पूछिए कि वो क्यों इस आग की चपेट में आए और ज़माने तक जलते रहे? उन्होंने क्यों नहीं देखा कि गुजरात में ठेके पर शिक्षक रखे जा रहे हैं। जो कई साल तक मामूली वेतन पर काम करते रहे। बदले में शिक्षा को बर्बाद करते रहे। शिक्षा बर्बाद होती रही। क्या आपकी ज़रूरत सिर्फ धर्मांधता है? तो आपको बताना चाहिए कि इससे क्या आपको कुछ मिला? आप इस सवाल से भाग नहीं सकते हैं। आपको जवाब खोजने होंगे।

देश में हिन्दू धर्म के नाम पर वर्चस्व की राजनीति की शुरूआत कहीं और से हुई होगी लेकिन फली फूली तो गुजरात में। नेता को हिन्दू गौरव के रूप में बताने और पेश करने में न तो मीडिया ने संकोच किया और न ही राज्य की जनता ने। जनता के प्रचंड समर्थन को इस रूप में देखा गया कि यह हिन्दुत्व का समर्थन है। राजनीति में जब आप धर्म की ज़रूरत पूरी करते हैं तो राजनीति आपको नागरिक से धर्मांध झुंड में बदल देती है। आप लोकतंत्र में होते हैं मगर आपका जज़्बा ख़त्म हो जाता है। आप हर ग़लत के साथ खड़े होने लगते हैं। आपके साथ सही नहीं होता है तब भी आप चुप रहते हैं। इसलिए सवाल कीजिए कि जब आप प्रदर्शन करने आए तो क्या आपका हिन्दू राष्ट्र के हिन्दू नागरिक के रूप में फूल मालाओं के साथ स्वागत हुआ? क्या हेलिकाप्टर से फूल बरसाए गए?

आपके प्रदर्शन ने मुझे प्रभावित किया है। न्याय आंदोलन अगर नाम है तो यह न्याय आपको भी करना है। सिर्फ सरकार को ही न्याय नहीं करना है। आज आप सिर्फ नौजवान बन कर आए हैं लेकिन कल आप सिर्फ नौजवान नहीं थे। गुजरात में कब 11 लाख नौजवान इस तरह से आंदोलित हुए हैं? मुझे याद नहीं। आज जब हैं तो वे नेता कहां हैं जो गुजरात को ऐसे पुकारा करते थे जैसे किसी भीड़ को। आपने अपने आंदोलन से उस नागिकरता की वापसी कराई है जो भीड़ में खो गई थी। गुजरात में लोकपन आ गया है। यह नया शब्द है। हम सबमें लोकपन होना चाहिए। जनता को जनता के साथ होना चाहिए। जनता को जनता होना चाहिए। आज आपने गुजरात सरकार में भ्रष्टाचार देखा है। काश आपने पहले देखा होता।

सरकारी परीक्षाओं ने पूरे देश के नौजवानों को खोखला कर दिया है। मैंने कई बार उन्हें पत्र लिखा है कि सारी परीक्षाओं के पीड़ित एकजुट हो जाएं। अपने लिए नहीं, सबके लिए संघर्ष करें। आपने अपनी परीक्षा की बात की है लेकिन बड़ा सवाल भी उठाया है। आपने पारदर्शी और ईमानदार परीक्षा व्यवस्था की मांग की है। जो सबके हित में है। यूपी में भी आंदोलन हुए लेकिन वहां के छात्र घर लौटकर अपनी धार्मिक पहचान की राजनीति से बाहर नहीं निकल सके। इसिलए उनके आंदोलन की परवाह किसी ने नहीं की।

आज हिन्दी प्रदेश इसीलिए अभिशप्त प्रदेश हैं। कस्बों और राजधानियों के कालेज श्मशान हो चुके हैं। वो धर्म और जाति के अहंकार को मज़बूती दे रहे हैं। वे अपनी नागिरकता का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। आप मत होने देना ऐसा।आसान नहीं है धार्मिक पहचान और धर्मांधता से बाहर निकलना। इस टेस्ट में ज़्यादात फेल हो जाएंगे। लेकिन निकलना तो पड़ेगा। ये बात सब कहने से डरते हैं। ये बात मैं कहता हूं।

मुझे आपसे वोट नहीं लेना है। न ही अपनी लोकप्रियता का पोषण करना है। मैं आपसे नज़र मिला कर बात करना चाहता हूं। आपसे चंद सवाल करना चाहता हूं। चाहता हूं कि आप अंतरात्मा से सवाल करें। जब तक आप इन सवालों से नहीं टकराएंगे, आप नवजीवन को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। आप नागरिक नहीं बन सकेंगे। आपका नागरिक बनना ज़रूरी है। लानत है उस जवानी पर जो सिर्फ एक धर्म समूह के झुंड के रूप में देखी जाएगी और उसकी हसरतों को कुचला जाएगा। इन सवालों के जवाब आप युवाओं को नैतिक और आत्मबल से भर देंगे। आप बदल जाएंगे। नवजीवन आएगा। स्वर्णिम गुजरात आएगा।

जय हिन्द।

रवीश कुमार

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