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म्यांमार और बांग्लादेश की सहमति, रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति पर करेंगे विचार
म्यांमार और बांग्लादेश के गृहमंत्रियों जनरल कियाव स्वे और असदुज़्ज़मान ख़ान ने दो सहमति पत्रों पर दस्तख़त करके सीमावर्ती सहयोग में विस्तार और रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति पर ध्यान दिए जाने पर बल दिया है। अस्सी के दशक में म्यांमार की सैन्य सरकार ने रोहिंग्या मुसलमानों और तीन अन्य जातियों को नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया था।
राख़ी प्रांत आर्थिक दृष्टि से अच्छी स्थिति का स्वामी है जिसके कारण म्यांमार के सैनिकों ने साठ के दशक से ही इस क्षेत्र की ज़मीनें और खेत हथियाने का काम आरंभ कर दिया था। बांग्लादेश की सरकार भी रोहिंग्याओं को अपना नागरिक मानने से इन्कार करती है और उन्हें उनके देश अर्थात म्यांमार लौटाना चाहती है। एक बात जिस पर अंतर्राष्ट्रीय हल्क़ों में कम ध्यान दिया जाता है, वह म्यांमार से भागते समय रोहिंग्या मुसलमानों पर आने वाली मुसीबतें हैं।
म्यांमार की सेना इन लोगों की हत्या के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों में बारूदी सुरंगें बिछाती है जबकि उसके सैनिक रोहिंग्या महिलाओं और लड़कों की इज़्ज़त लूटते हैं। यह पूरी तरह से युद्ध अपराध है जिसकी ओर से विश्व समुदाय आंखें मूंदे हुए है। मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनैश्नल की एक अधिकारी तीराना हसन हसन कहती हैं। म्यांमार की सेना मानव विरोधी बारूदी सुरंगों का इस्तेमाल कर रही है अतः इस देश के अधिकारियों को चाहिए कि यातनाओं से डर कर भागने वाले लोगों के ख़िलाफ़ तुरंत इस घृणित कार्य पर अंकुश लगाए।
यद्यपि बांग्लादेश की सरकार इस बात की कोशिश में है कि म्यांमार पर रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थियों को वापस लेने के लिए दबाव डाले लेकिन जब तक म्यांमार की सरकार उनके नागरिक अधिकारों को औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं करती तब तक उनका लौटना, अपनी मौत को दावत देने के ही समान है। इस आधार पर संसार की सबसे बड़ी संस्था के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ, दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की यूनियन आसियान, जिसका म्यांमार सदस्य है और इसी तरह इस्लामी सहयोग संगठन पर इस संबंध में भारी दायित्व है।