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कथा के मुताबिक भागीरथी को पृथ्वी पर लाकर भगीरथ ने अपने पुरखों का तर्पण किया. आज इंसान धरती से जल को मिटाकर अपना नाश करने पर तुला है. भूमि पर मौजूद जलीय इलाकों की अहमियत को समझने में वैज्ञानिक भी लेट लतीफ साबित हुए हैं.
भारत में पर्यटकों की मशहूर नगरी नैनीताल. इस जिले में कभी पानी से लबालब नौ झीलें हुआ करती थीं. अब सिर्फ सात बची हैं और वह भी पानी की किल्लत से जूझ रही हैं. नैनी झील के ऊपर मौजूद एक तालाब को लंबे वक्त से सूखा ताल कहा जाता है, उसमें बरसात में भी पानी नहीं दिखता. नैनीताल की झील पर गिरने वाले कुछ धारे भी अब सूख चुके हैं. अब हर साल गर्मियों में नैनीताल और भीमताल की झीलें सूखकर विशाल मैदान जैसी दिखाई देने लगी हैं.
पहले इन झीलों से हमेशा नियमित अंतराल में पानी छोड़ा जाता था. वह पानी निचले इलाकों को सींचकर जैवविविधता की प्यास बुझाता था. लेकिन अब सूखी झील से पानी कैसे छोड़ा जाए, हमेशा यही सवाल कौंध रहता है. इतना ही बुरा हाल श्रीनगर की मशहूर डल झील का भी है. कभी 22 वर्गकिमी में फैली डल झील अब आठ वर्गकिलोमीटर में सिकुड़ चुकी है. रुड़की यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर हालात जस के तस रहे तो 355 साल के अंदर डल झील सूख जाएगी. सूखती नदियों या झीलों का यह सवाल सिर्फ भारत को ही परेशान नहीं कर रहा है. दुनिया भर में 1970 से लेकर 2015 के बीच 35 फीसदी भूमि पर मौजूद जलीय इलाके गायब हो चुके हैं. सैकड़ों नदियां और तालाब सूख चुके हैं.
वैज्ञानिक भाषा में तालाबों, धारों, झीलों, नालों, नदियों, दलदलों और लगूनों को भूमि पर मौजूद जलीय इलाके कहा जाता है. जमीन पर सूखते जल संसाधनों की वजह से भूजल का स्तर भी तेजी से गिर चुका है. भूक्षरण बहुत तेज होने लगा है और स्थानीय जलवायु भी बदल रही है. रैमसार कन्वेंशन ऑफ वेटलैंड्स की प्रमुख मार्था रोखास यूरेगो इस बारे में कहती हैं, "हम संकट में हैं. हम भूमि पर मौजूद जलीय इलाकों को जंगलों के मुकाबले तीन गुना ज्यादा तेजी से खो रहे हैं." उनकी 88 पन्नों की रिपोर्ट के मुताबिक आज दुनिया में 1.2 करोड़ वर्ग किलोमीटर भूमि पर मौजूद जलीय इलाका बचा है. सन 2000 के बाद इन इलाकों के गायब होने की रफ्तार तेज हुई है.
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यही जलीय इलाके पृथ्वी पर मौजूद जीवन को 40 फीसदी ताजा पानी मुहैया कराते हैं. एक अरब से ज्यादा लोगों को भोजन, कच्चा माल और दवाएं भी इन्हीं जलीय इलाकों के कारण मिलता है. रैमसार कन्वेंशन के मुताबिक धरती के मात्र तीन फीसदी भूभाग पर मौजूद इन जलीय इलाकों में जंगलों के मुताबिक दो दोगुना ज्यादा कार्बन संचित है. जब ये इलाके सूखते हैं तो यही कार्बन वायुमंडल में घुल जाता है और जलवायु परिवर्तन को और तेज करता है. जलवायु परिवर्तन पर शोध करने वाले वैज्ञानिक अब तक प्रदूषण, वन कटाई और आर्कटिक से रिसती मीथेन गैस को ही जलवायु परिवर्तन का जिम्मेदार ठहराते रहे हैं. अब भूमि पर मौजूद जलीय इलाकों के शोध ने ग्लोबल वॉर्मिंग को लेकर नया आयाम सामने रखा है.
तालाबों और नदियों के तटों पर मौजूद जमीन हमेशा पानी सोखती है. नमी की शक्ल में आगे फैलता यह पानी मिट्टी में तरावट बनाए रखता है. लेकिन भूमि पर मौजूद जलीय इलाकों के सूखने से बेहद सूक्ष्म स्तर होने वाला जल प्रवाह भी टूट रहा है. सूखी जमीन का क्षरण हो रहा है और उर्वरता भी घट रही है.