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बांग्लादेश में भी छिड़ी न्यायपालिका और विधायिका में जंग

Majid Khan
21 Oct 2017 6:04 AM GMT
बांग्लादेश में भी छिड़ी न्यायपालिका और विधायिका में जंग
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बांग्लादेश में पहले हिंदू मुख्य न्यायाधीश और सरकार के बीच ठन गयी है. सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई में एक फैसले में जजों के महाभियोग संबंधी संसद के अधिकारों को खत्म करने का फैसला किया था. तभी से ही विवाद लगातार बढ़ हो रहा है. तमाम वकीलों ने उक्त फैसले को मुस्लिम-बहुल देश में एक धर्मनिरपेक्ष न्यायपालिका की दिशा में एक अहम कदम करार दिया था. लेकिन सरकार ने मुख्य न्यायाधीश एसके सिन्हा के खिलाफ भ्रष्टाचार और मनी लांड्रिंग के गंभीर आरोप लगाते हुए तमाम आरोपों की जांच भ्रष्टाचार-निरोधक आयोग से कराने का एलान किया है. इस बीच, न्यायमूर्ति सिन्हा ऑस्ट्रेलिया रवाना हो गये हैं. इससे देश में अभूतपूर्व संवैधानिक संकट पैदा होने के आसार बन गये हैं.

विवाद

मुख्य न्यायाधीश सुरेंद्र कुमार सिन्हा ने बीती जुलाई में 799 पन्नों के एक अप्रयाशित फैसले में संविधान के 16वें संशोधन को खारिज कर दिया था. इसके तहत संसद को सुप्रीम कोर्ट के जजों पर महाभियोग चलाने का अधिकार था. अदालत के इस पैसले को विधायिका ने सीधे संसद की गरिमा का हनन करार दिया. उसके बाद आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया. कई वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों ने अदालत के इस फैसले की सार्वजनिक तौर पर आलोचना करते हुए मुख्य न्यायाधीश के इस्तीफे की मांग उठायी. न्यायमूर्ति सिन्हा ने अपने फैसले में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के पनामा गेट के उस फैसले का भी जिक्र किया था जिसके तहत नवाज शरीफ को प्रधानमंत्री के पद से हटना पड़ा था. प्रधानमंत्री शेख हसीना ने भी मुख्य न्यायाधीश पर संसद और राष्ट्रपति पद की गरिमा से खिलवाड़ करने का आरोप लगाते हुए कहा कि उन्होंने पाकिस्तान के साथ तुलना कर पूरे राष्ट्र का अपमान किया है और इसलिए उनको अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था.

कानून की देवी पर विवाद

इस मुद्दे पर लगातार बढ़ते विवाद के बीच राष्ट्रपति अब्दुल हामिद ने सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठ जजों को अपने आवास पर बुला कर उन्हें न्यायमूर्ति सिन्हा के खिलाफ 11 गंभीर अरोपों की सूची सौंपी. उस बैठक में मुख्य न्यायाधीश को नहीं बुलाया गया था. उसके बाद उन जजों ने उसी दिन मुख्य न्यायाधीश के आवास पर उनसे मुलाकात की और राष्ट्रपति की ओर से लगाये गये आरोपों पर सफाई मांगी. लेकिन जब वह उन आरोपों का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे सके तो जजों ने उनको बता दिया कि इन आरोपों की जांच नहीं होने तक वह लोग मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली किसी पीठ में शामिल नहीं होंगे. बैठक के आखिर में सिन्हा ने इस्तीफा देने की हामी भरी. उन्होंने कहा कि वह दो अक्तूबर को अपने अंतिम फैसले के बारे में सूचित करेंगे. लेकिन उससे पहले ही सिन्हा ने एक महीने की छुट्टी का आवेदन भेज दिया और राष्ट्रपति ने उसे मंजूरी भी दे दी. उसके बाद न्यायमूर्ति सिन्हा एक महीने की छुट्टी पर ऑस्ट्रेलिया रवाना हो गये. विधि मंत्री अनिसुल हक ने राजधानी ढाका में पत्रकारों को बताया कि सिन्हा ने अपनी बीमारी के इलाज के लिए छुट्टी ली है. लेकिन न्यायमूर्ति सिन्हा ने रवाना होने से पहले पत्रकारों से कहा कि उनकी बीमारी का सरकार का दावा गलत है. वह देश छोड़ कर भी नहीं जा रहे हैं. उनका कहना था कि जुलाई में अदालत के फैसले पर उपजे विवाद से वह आहत हैं. न्यायमूर्ति ने देश में न्यायपालिका की आजादी पर मंडराते खतरे पर भी गहरी चिंता जतायी. सिन्हा ने अंदेशा जताया कि उनकी गैरमौजूदगी में कार्यवाहक मुख्य न्यायधीश के तौर पर कामकाज देखने वाले जज को सरकार सुप्रीम कोर्ट के प्रशासन में बदलाव के लिए प्रोत्साहित करती रही है. न्यायमूर्ति सिन्हा के देश छोड़ने के अगले दिन ही विधि मंत्री अनिसुल हक ने कहा कि उनके (सिन्हा के) खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच भ्रष्टाचार-निरोधक आयोग करेगा. एक सवाल पर उनका कहना था कि सिन्हा लौटने के बाद तमाम आरोपों से मुक्त नहीं होने तक मुख्य न्यायधीश के तौर पर अपना कार्यभार नहीं संभाल सकेंगे. उन्होंने सिन्हा पर बीमारी के मुद्दे पर झूठ बोलने का भी आरोप लगाया. मंत्री की दलील थी कि कानून सबके लिए समान है. आरोप साबित होने पर कार्रवाई का फैसला राष्ट्रपति पर निर्भर है. लेकिन इस मामले में सरकार किसी जल्दबाजी के मूड में नहीं है.

वकीलों का समर्थन

दिलचस्प बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोएिशन इस विवाद में शुरू से ही न्यायमूर्ति सिन्हा का समर्थन कर रहा है. एसोसएिशन के अध्यक्ष और सरकार विरोधी गुट के नेता जैनुल अबेदिन कहते हैं, "न्यायमूर्ति ने जानबूझ कर कुछ भी नहीं किया है. लेकिन उनको जबरन छुट्टी पर भेजा गया है." सरकार पर न्यायपालिका पर भारी दबाव डालने का आरोप लगाते हुए उनका कहना था कि सिन्हा पर चौतरफा दबाव डाला जा रहा था. प्रधानमंत्री शेख हसीना ने अपनी पार्टी अवामी लीग के नियंत्रण वाली संसद में वर्ष 2014 में एक संवैधानिक संशोधन पारित कराया था जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट के जजों को हटाया जा सकता था. न्यायमूर्ति सिन्हा की अध्यक्षता वाली पीठ ने उसी संशोधन को खारिज कर दिया. इससे सरकार को लगा कि न्यायपालिका जानबूझ कर विधायिका के अधिकारक्षेत्र में अतिक्रमण कर रही है.

विवाद बढ़ने का अंदेशा

सरकार का कहना है कि सिन्हा ने अपने फैसले से देश के संस्थापक और पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान का भी अपमान किया है. मुख्य न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा था, "कोई भी राष्ट्र या देश किसी एक व्यक्ति से या उसके द्वारा नहीं बनता. हमें खुद को आत्माघाती प्रवृत्ति से मुक्त रखना चाहिए." ढाका विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अताउर रहमान कहते हैं, "सिन्हा देश की न्यायपालिका और सत्तारुढ़ अवामी लीग के नियंत्रण वाली विधायिका के आपसी संघर्ष में फंस गये हैं. मुख्य न्यायधीश के अचानक छुट्टी पर जाने और उनके खिलाफ गंभीर आरोपों की बौछार से न्यायपालिका के साथ ही बांग्लादेश की छवि पर भी बट्टा लगा है." वह कहते हैं कि यह मामला जितना लंबा खिंचेगा, न्यायपालिका और सरकार की छवि उतनी ही खराब होगी. अताउर कहते हैं, "स्वाधीन न्यायपालिका के बिना देश में कानून का राज बहाल करना संभव नहीं है. जब तक कानून का राज नहीं होगा, नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा भी नहीं की जा सकती." न्यायमूर्ति सिन्हा ने कहा है कि वह 10 नवंबर से पहले मुंख्य न्यायधीश के तौर पर अपना कामकाज संभाल लेंगे. लेकिन विधि मंत्री ने इसकी संभावना से साफ इंकार कर दिया है. इससे न्यायपालिका और विधायिका के बीच शुरू हुई इस जंग के थमने के फिलहाल आसार कम ही हैं. अटॉर्नी जनरल महबूब आलाम कहते हैं, "सिन्हा की वापसी से गतिरोध पैदा होगा. इसकी वजह यह है कि वरिष्ठ जजों ने उनके साथ किसी पीठ में शामिल होने से मना कर दिया है." वह कहते हैं कि ऐसा गतिरोध बेमियादी समय तक नहीं चल सकता. उनका सवाल है कि आखिर न्यायिक गतिविधियों को रोका तो नहीं जा सकता? इसलिए न्यायमूर्ति सिन्हा की वापसी के बाद उनका पद संभालना मुमकिन नहीं नजर आता.



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