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- कानून भी कानून होता है...
कानून भी कानून होता है और मजाक भी कानून होता है, बशर्ते मजाक हुक्मरान का हो और रियाया मजाक बनने की आदी हो!
मनीष सिंह
पहले भी ऐसे ही मजाक हो चुके है। "घर मे शादी है... पैसे नहीं हैं" और महफ़िल में कहकहे गूंजने लगते है। मौतें मजाक है, हत्यायें स्पोर्ट है, लिंच करने वालो की वही प्रतिष्ठा है, जो कोलोसियम में खून बहाने वाले ग्लेडिएटर की है। भ्रमित अवाम से मिली अंधी ताकत और निष्कंटक सत्ता का अन्तहीन उत्सव, अपने सबसे विद्रूप मजाकिया चरम की ओर बढ़ रहा है। जाने वो चरम कैसा होने वाला है।
फिलहाल तो चालानों की नई दरों का ऐलान इसी तरह का मजाक है, जो हुक्काम की शाम में कहकहों के इंतजाम के लिए किया गया है। हुक्काम के गुमाश्ते सड़को पर आती जाती रियाया को धर रहे है, चालान वसूली के रिकार्ड बन रहे हैं। लेकिन मुझे बताया जाता है- कानून तुम्हारी सुरक्षा के लिए है। अगर नियम से चलोगे, तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा।
क्या सच? दिल पर हाथ रखकर कहिये, नुक्कड़ पर खड़ी वर्दी को देखकर आप सुरक्षा का अहसास करते हैं। आपका मित्र क्यो बताता है कि फलां इलाके में चेकिंग चल रही है। क्या वह इसलिए आगाह करता है कि आपकी गाड़ी चोरी की है? या वह आपको जिल्लत और नाहक परेशानी से बचाना चाहता है।
आपने सारे नियम कायदे पूरे कर रखे हों, मगर सहमत होना-न होना सड़क पर खड़े उस अफसर के हाथ है, जो मौका-ए-वारदात पर जज-ज्यूरी-जल्लाद के अधिकारो से लैस है। जिन सरकारों को अवाम की चिंता है, या जल्द ही अवाम से नजरें मिलाने की मजबूरी होने वाली है, वो ठहर गयी हैं। फिलहाल वो मानती है कि किसी सरकारी मुलाजिम को मौके पर इतनी ताकत दे देना स्वाभाविक न्याय के खिलाफ है। मगर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनायेगी?
मत कहिये की इससे हादसों में मौते रुकेंगी। चालान की राशि और मौतों का व्युत्क्रमानुपाती सम्बंध आज तक किसी रिसर्च ने नही बताया।
ये भी मत कहिये कि यह "अनुशासन पर्व" है। कानून बनाने की ताकत बंदिशों को पैदा करने का दूसरा नाम नही है। अनुपालन छापों और तलाशी का दूसरा नाम नही है। कानून तो व्यवस्था के प्रति इज्जत पैदा करने वाले होने चाहिए। व्यवस्था में सुविधाएं भी शामिल है। जरा सोचिए कि मेट्रो में बैठा व्यक्ति न थूकता है, न लड़ता है, न बेटिकट चलता है। उसका व्यवहार दूसरी ट्रेनो में क्यो बदल जाता है।
व्यवस्था के प्रति इज्जत एक समग्र अहसास से पैदा होती है। नागरिक को सही गलत मालूम है, वो जज करता है, और फिर व्यवस्था को सम्मान या हिकारत से देखने का निर्णय करता है। वह देख रहा है कि बलात्कार के आरोपी लॉ-मेकर खुले घूम रहे हैं, और बकरी चुराने की एफआईआर हो रही है। वो देख रहा है कि अमीरों की जेबें भरी जा रही हैं, और गरीबो की गुल्लकों का हिसाब किया जा रहा है। वो देख रहा है कि ईमानदार अफसर, नागरिक और पत्रकार पिस रहे है, और बेइमान खुलेआम इनामों-इकराम लूट रहे हैं। व्यवस्था खुद ही व्यवस्था का मख़ौल उड़ा रही है, और इधर सड़कों पर मियां-बीवी-बच्चे का ट्रिपल सवारी चालान कट रहा है।
बहरहाल, कानून भी कानून होता है, और मजाक भी कानून होता है... बशर्ते मजाक हुक्मरान का हो, और रियाया मजाक बनने की आदी हो।