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- ज्योतिरादित्य सिंधिया:...
डॉ राकेश पाठक
० कांग्रेस में जो मिला भाजपा में उसका छटांक भर भी नहीं मिल पाया अब तक
० जिन्हें लोकसभा में खड़े होकर कोसते थे उन्हीं के लिये राज्यसभा में 'मोदी-रासो' पढ़ रहे
० जिन शिवराज के हाथ किसानों के ख़ून से रंगे कहते थे उनके साथ उड़नखटोले में उड़ रहे
० लेकिन अपने समर्थकों को सत्ता-संगठन में चिन्दी भर हिस्सा नहीं दिला पाये
भारतीय राजनीति के सबसे चमकदार चेहरों में से एक ज्योतिरादित्य सिंधिया को दलबदल किये एक साल हो चला है।
बीते बरस 10 मार्च को कांग्रेस छोड़ी थी और अगले चंद घण्टों में धुर विरोधी पार्टी भाजपा का पट्टा गले में डाल लिया था। यह भी संयोग ही है कि 10 मार्च उनके पिता कैलाशवासी माधवराव सिंधिया की जयंती है।
दलबदल और भारी भरकम 'डील' का दाग़ अपने दामन पर लेकर वे राज्यसभा में पहुंच गये हैं और सबसे पीछे की कतार में बैठने लगे हैं।
राजनीति अनिश्चितताओं और अनंत सम्भावनाओं का खेल है..हो सकता है कल सिंधिया मंत्री,मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बन जाएं लेकिन आज एक साल बाद का हासिल राज्यसभा की एक अदद कुर्सी से ज्यादा कुछ नहीं है। हां अपनी ही पार्टी की सरकार को गिराने का 'पुण्य' भी उनके खाते में है।
संयोग से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने हाल ही में सिंधिया पर दूसरी बार मुंह खोला है। पहली बार सिंधिया के पार्टी छोड़ने पर कहा था कि वे अपने पॉलिटिकल कैरियर को लेकर चिंतित थे इसलिये सिद्धान्तों को जेब में रखकर पार्टी छोड़ गए हैं।यह भी कहा था कि सिंधिया अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिनके लिये उनके दरवाज़े हमेशा खुले रहते थे।
अब राहुल ने कहा है कि वे बीजेपी में बैक बेंचर बन कर रह गए हैं। कांग्रेस में होते तो मुख्यमंत्री बनते।
जवाब में सिंधिया ने कहा कि काश राहुल जी तब चिंता करते जब वे कांग्रेस में थे।
एक तरह से सिंधिया ने इस बात की तस्दीक़ कर दी कि वे मुख्यमंत्री बनने के लिये पार्टी छोड़ कर गए हैं। मान सम्मान की बात तो बस बहाना थी।
कांग्रेस में रहते क्या पाया सिंधिया ने...!
अपने पिता माधवराव सिंधिया की मृत्यु के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ली।सिंधिया बचपन में इंदिरा गांधी की गोद और आंगन में भी खेले थे। उन्हें सदस्यता दिलाते समय पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी साथ बैठीं थीं। चार पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह,श्यामाचरण शुक्ल,मोतीलाल वोरा,दिग्विजयसिंह और प्रदेश अध्यक्ष राधाकिशन मालवीय सोफे के पीछे हाथ बांधे खड़े थे।
अठारह साल की सियासी पारी में कांग्रेस से चार बार लोकसभा सदस्य बने, केंद्र में मंत्री रहे, लोकसभा में उपनेता रहे, मुख्य सचेतक रहे। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी चयन समिति के अध्यक्ष रहे।
राहुल गांधी अध्यक्ष रहे तो प्रियंका गांधी के बराबर की जिम्मेदारी वाले राष्ट्रीय महासचिव रहे। उत्तर प्रदेश के प्रभारी और मप्र चुनाव अभियान समिति के संयोजक रहे। पार्टी की सर्वोच्च इकाई कार्यसमिति के सदस्य थे। जब राहुल गांधी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद छोड़ा तब इस पद के लिये सबसे पहले नम्बर पर सिंधिया का ही नाम चर्चा में था।
मप्र में 2018 में कांग्रेस को बहुमत मिला तो मुख्यमंत्री बनने की कोशिश की। दिसम्बर 2018 की सर्दियों में मुख्यमंत्री बनने की क़वायद में कुल 114 में से 14 विधायक भी सिंधिया के साथ नहीं थे सो बहुमत के बल पर कमलनाथ मुख्यमंत्री बन गये।
मतगणना के अगले दिन उनके दिल्ली निवास पर दरी बिछा कर धरना देने वाले समर्थक विधायकों की संख्या दहाई में भी नहीं पहुंची थी। इस बीच 2019 का लोकसभा चुनाव अपने ही घर गुना-शिवपुरी से हार गये और आगे का भविष्य अंधकारमय दिखने लगा।
राज्यसभा में जाने की क़वायद में लग गये। मप्र से दो लोगों को राज्यसभा में जाना था लेकिन दिग्विजयसिंह से पहले वरीयता में अपना नाम रखने पर अड़े और अंततः बीते बरस इसी मार्च के महीने में अपनी पार्टी और सरकार की होली खोटी,बदरंग करके वे भाजपा में शामिल हो गये।
भाजपा में क्या मिला और आगे क्या मिलेगा..!
कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिरा कर सिंधिया ने उन्हीं शिवराज सिंह की सरकार बनवा दी जिनके हाथ उन्हें किसानों के ख़ून से सने दिखते थे। अब वे नरेंद्र मोदी के क़सीदे काढ़ने में तन,मन धन से लगे हैं। लोकसभा में खड़े होकर जिन नरेंद्र मोदी की रीति-नीति को कोसते थे उन्हीं के लिये राज्यसभा में मोदी-रासो पढ़ रहे हैं।
दलबदल के इनाम में फ़िलहाल राज्यसभा में सबसे पीछे से दूसरी पंक्ति में बैठने को जगह मिल गयी है। उप चुनाव तक बीजेपी ने उनकी पूछ परख ख़ूब की लेकिन सरकार बनने के बाद पार्टी अपनी पर आ गयी है।
बीजेपी की सरकार बनने के बाद उन्हें अपने सिपहसालारों को मंत्री बनवाने में बार बार श्यामला हिल्स पर लाव लश्कर के साथ चढ़ाई करना पड़ी। उप चुनाव में ही डिजिटल रथों पर से उनकी फोटो ग़ायब हो गयी थी और स्टार प्रचारकों की सूची में दसवें नंबर पर नाम आया था।
संगठन में घुलने-मिलने के लिये बीजेपी की मातृ संस्था आरएसएस के नागपुर मुख्यालय से लेकर भोपाल में संघ कार्यालय तक हाज़िरी लगा आये लेकिन पार्टी की प्रदेश कार्यकारिणी में उनका एक नामलेवा समर्थक शामिल नहीं हुआ। और तो और पार्टी की किसी जिला कार्यकारिणी तक में अपने खेमे के लोगों के नाम एडजस्ट करवाने में उन्हें पसीना आ रहा है।
नगरीय निकायों के चुनाव के लिये पार्टी की किसी भी समिति में उनका कोई झंडाबरदार नहीं है। आज बंगाल के लिये घोषित स्टार प्रचारकों की सूची में ख़ुद उनका नाम भी नहीं है।
याद रहे 18 साल तक मप्र कांग्रेस में उनकी तूती बोलती थी और कांग्रेस की हर राष्ट्रीय समिति में अनिवार्य रूप से उनका नाम होता ही था।
जहां तक सत्ता की मलाई में से अपने समर्थकों को हिस्सा दिलाने का सवाल है अब तक किसी को निगम,मंडल में कोई अदना सी कुर्सी भी नहीं दिला सके हैं।
(सिंधिया समर्थकों की बेचैनी पर फिर कभी बात करेंगे)
केंद्र में मंत्री बनने की आस भी देर सबेर पूरी हो ही जायेगी लेकिन नरेंद मोदी के मंत्रिमंडल में मंत्रियों की क्या हैसियत है यह किसी से छुपा नहीं है।
राहुल गांधी के बयान के बाद यह विमर्श एक बार फिर सतह पर है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दलबदल, सिद्धान्तबदल, मित्रता बदल के बाद सचमुच क्या पाया क्या खोया?? राहुल के बयान पर सिंधिया ने कहा है कि तब चिंता कर लेते जब वे पार्टी में थे।
सवाल पूछा जा रहा है कि कांग्रेस में बेशुमार हैसियत,ओहदे और रसूख के बाद क्या सिर्फ़ मुख्यमंत्री बनाया जाना ही चिंता करना होता??
अब आने वाला वक़्त उनके लिये निर्णायक होगा यह तय है। देखना यह है कमल सरोवर में डुबकी लगाने पर और पूरी तरह उसमें डूबने के बाद क्या हासिल कर पाते हैं...?
लेखक जाने माने पत्रकार है