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शिक्षक से शिक्षाविद स्वतंत्रता सेनानी एवं हिन्दू यूनिवर्सिटी के संस्थापक पितामह मदनमोहन मालवीय की पुण्यतिथि

Special Coverage News
12 Nov 2018 3:40 AM GMT
शिक्षक से शिक्षाविद स्वतंत्रता सेनानी एवं हिन्दू यूनिवर्सिटी के संस्थापक पितामह मदनमोहन मालवीय की पुण्यतिथि
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आज हम एक ऐसे व्यक्ति की पुण्य तिथि हैजो इस धराधाम पर साधारण मनुष्य नही बल्कि महामानव या महामना बनकर एक शतक पहले देवदूत की तरह आया था और जिसके सामने आज भी दुनिया नतमस्तक होती है। हम बात कर रहे हैं ब्रिटिश शासन काल में जन्मे शिक्षाविद स्वतंत्रता सेनानी भारतरत्न से सम्मानित धर्मपरायण हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक वसूलों सिद्धांतों एवं अपने विचारों के पक्के महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की जिन्हें नाम का डंका आज भी दुनिया में बज रहा है।उनकी पावन पुण्य तिथि पर हम आज सबसे पहले उन्हें शतशत नमन वंदन करते हैं और उनके जज्बे को सलाम करते हैं।पंडित जी का जन्म एक साधारण गरीब किन्तु सुसंस्कारित शिक्षित परिवार में 1861 में हुआ था वह अपने माता पिता की पाँच संतानों मेंं पहली बड़ी संतान थे।उन्होंने महात्मा गांधी के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ी और उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर रहे।


उन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान 19 वीं सदी की शुरुआत में हिन्दू धर्म संस्कृति के विस्तार एवं पुनर्स्थापना के बनारस में हिन्दू यूनिवर्सिटी की स्थापना करने का बीड़ा उठाया था।उन्होंने इस कार्य में सरकार के साथ साथ राजाओं महराजाओं के साथ साधारण लोगों से भी सहयोग चंदा लेकर उन्हें भी सहभागी बनाया था।इस दौरान वह अन्य राजा महराजाओं के साथ ही बाराबंकी जिले की सूरजपुर स्टेट के हथौधा स्थित दरबार चन्द्रहास भवन भी चंदा माँगने आये थे क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि यहाँ के राजा दानवीर के साथ ही शिक्षाप्रेमी हैं और अपनी राज्य में अनिवार्य शिक्षा व्यवस्था लागू कर रखी है।यहाँ के राजा पृथ्वीपाल सिंह ने जब उनसे सहयोग राशि निर्धारित करने के लिए कहा तो उन्होंने जबाब दिया कि दानराशि का निर्धारण याचक नहीं बल्कि दानदाता करता है।पंडित जी की यह बात सुनकर राजा ने अपने सरकारी खजाने में उस दिन आई सारी रकम दान दे दी थी।


इस दौरान मालवीय सहयोग माँगने निजाम हैदराबाद के पास गये थे उन्होंने चंदा देने से इंकार कर दिया तो वह उनकी चप्पल ले आये और बाजार में नीलाम करने लगे।यह सुनकर निजाम अपनी औकात में आ गये थे और भरपूर सहयोग दिया था। यूनिवर्सिटी का नाम हिन्दू जोड़कर रखने का बहुत विरोध हुआ और महात्मा गांधी जी ने भी इसका विरोध किया लेकिन उनके जिद्दी स्वाभाव के सामने किसी की नहीं चली।वह अपने जीवन की शुरूआत एक कथावाचक के रूप में करना चाहते हैं लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें शिक्षक बना दिया और उन्होंने अपना सारा जीवन शिक्षा एवं धर्म संस्कृति के विस्तार में लगाकर भारतभूमि पर एक नया इतिहास रच दिया।1916 में इसका शुभारंभ अंग्रेज वायसराय लार्ड हार्डिग्ज ने शिलान्यास करके अधिकारियों राजाओं महराजाओं की मौजूदगी में और काशीनरेश की अध्यक्षता में आयोजित समारोह कर किया गया था।


युग पुरूष देवदूत मालवीय जी का निधन बनारस में 12 अक्टूबर 1946 में हुआ था। वह प्रेमधर के पौत्र तथा पं० विष्णु प्रसाद के प्रपौत्र थे। पं० प्रेमधर जी संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान थे। पं० मदन मोहन मालवीय के पूर्वजों के तीर्थराज प्रयाग (इलाहाबाद) में बस गये थे जबकि उनके परिवार के कुछ सदस्यों ने पड़ोसी शहर मीरजापुर को अपना निवास स्थान बनाया था। पं० प्रेमधर जी भागवत की कथा को बड़े सरस ढंग से वाचन व प्रवचन करते थे। मदन मोहन अपने पिता पं० ब्रजनाथ जी के छः पुत्र-पुत्रियों में सबसे अधिक गुणी, निपुण एवं मेधावी रहे। उनका जन्म २५ दिसम्बर, १८६१ ई० (हिन्दू पंचाङ्ग के अनुसार पौष कृष्ण अष्टमी, बुधवार, सं० १९१८ विक्रम) को प्रयाग के लाल डिग्गी मुहल्ले (भारती भवन, इलाहाबाद) में हुआ था। उनकी माता श्रीमती मोना देवी, अत्यन्त धर्मनिष्ठ एवं निर्मल ममतामयी देवी रही। मदन मोहन की प्रतिभा में अनेक चमत्कारी गुण रहे, जिनके कारण उन्होंने ऐसे सपने देखे जो भारत-निर्माण के साथ-साथ मानवता के लिए श्रेष्ठ आदर्श सिद्ध हुए।

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