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Exit Poll Result Live Updates: क्या सोलह सत्रह लाख वाले लोक सभा क्षेत्र में बारह सौ मतदाताओं से बात कर नतीजे बताए जा सकते हैं?

Special Coverage News
19 May 2019 12:08 PM GMT
Exit Poll Result Live Updates: क्या सोलह सत्रह लाख वाले लोक सभा क्षेत्र में बारह सौ मतदाताओं से बात कर नतीजे बताए जा सकते हैं?
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अपने भीतर की लोकतांत्रिकता को बचाना है तो चैनल देखना बंद करें

इंडिया टुडे आज तक एक्सिस पोल बार बार दावा कर रहा है कि आठ लाख सैंपल का एग्जिट पोल है। सभी लोक सभा क्षेत्रों में किया गया है। एक क्षेत्र में कोई साढ़े बारह सौ सैंपल लिए गए हैं। क्या सोलह सत्रह लाख वाले लोक सभा क्षेत्र में बारह सौ मतदाताओं से बात कर नतीजे बताए जा सकते हैं? मैं न तो सांख्यिकी विज्ञान का एक्सपर्ट हूँ और न ज्योतिष का । कुछ क्षेत्र तो है ही जहाँ कई चैनलों के डिबेट हुए, शो हुए और रिपोर्टरों ने लोगों से बात की। अख़बार और वेबसाइट को जोड़ लें। क्या यही लोग आपस में मिलकर नतीजा बता सकते हैं?

दरअसल मैं क्यों कहता हूँ कि आप न्यूज चैनल न देखें, यह जानते हुए भी कि इससे चैनलों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा और न ही दर्शकों की संख्या में कमी आएगी। कोशिश है कि आप चैनलों को समझें। आपके भीतर की जो जिज्ञासा है वो आपकी नहीं, आपके भीतर इन चैनलों की पैदा की हुई है। इनके बनाए दायरे से बाहर निकलना किसी साधारण दर्शक के लिए उसी तरह मुश्किल है जिस तरह मेरे लिए गणित में प्रतिशत का सवाल हल कर लेना। भिन्न का सवाल तो भूल ही जाइये।

आज आप एंकरों और एक्सपर्ट की बातों को ग़ौर से सुनिए। आपको पता चलेगा कि जब कहने को कुछ न हो तो कैसे उसे महत्व और गंभीरता के साथ कहा जाता है। दुनिया भर में टीवी की यही समस्या है। भारत में भी।हम भी यही करेंगे और आप भी यही देखेंगे। कंटेंट यानी सामग्री के नाम पर चमक दमक पैदा की जा रही है। वही बातें तो जो एक साल पहले से 2019 के नाम पर लाखों बार कही जा चुकी हैं, आज से लेकर सरकार बनने तक दोहराई जाएँगी। कुछ भी कहने के लिए न हो तब भी कहना न्यूज चैनलों का व्याकरण है।

न्यूज़ चैनलों ने अपनी इस कमी को ख़ूबी में बदल दिया है। एक ऐसी परंपरा क़ायम कर चुका है कि उसके दायरे से बाहर निकलना मुश्किल है। एंकर और विश्लेषण प्रासंगिक बनने की लड़ाई लड़ रहे हैं। बल्कि इसे प्रासंगिक बनाने के लिए अच्छा बोलने वाले या बोलते रहने वाले एक्सपर्ट लाए जाते हैं। ताकि आपको यह न लगे कि आप फ़ालतू में वक्त बर्बाद कर रहे हैं।

यही दुनिया और दस्तूर है। कहीं से कुछ भी बोला जा रहा है। बार बार ट्विट हो रहा है कि देश भर में सात लाख सैंपल है। मगर है एक लोक सभा में तेरह सौ भी नहीं। मैं यह नहीं कह रहा कि सिर्फ किसी एक चैनल का बोगस है बल्कि सबका बोगस है। किसी के पास कोई फ़ार्मूला नहीं है कि चुनाव की जानकारी को नए तरीक़े के साथ पेश किया जा सके। तो जो आप देख रहे हैं, सुन रहे हैं, ज़रा सा दिमाग़ पर ज़ोर डालेंगे तो याद आ जाएगा कि पहले भी देख चुके हैं। पहले भी सुन चुके हैं।

मीडिया ने अपने माल की खपत के लिए एक डंपिंग ग्राउंड तैयार किया है। इसे मीडिया सोसायटी कहते हैं। इस मीडिया सोसायटी में आम समस्याओं से लैस जनता विस्थापित कर दी गई है। उसकी जगह चैनलों के ड्रिल से तैयार दर्शकों को जनता घोषित कर दिया गया है। इस मीडिया सोसायटी में एंकर और दर्शक एक-दूसरे की भाषा बोलते हैं। आपको तब तक यह सामान्य लगता है जब तक आपका सामना किसी समस्या से नहीं होता। और तब आपको समझ आता है कि मीडिया मूल मुद्दा नहीं दिखाता। आप ही जब मूल मुद्दा नहीं देख रहे थे या जो देखने के लिए मजबूर किए वह मूल मुद्दा नहीं था तो फिर दोष किसे देंगे।

दरअसल आपको दोष मुझे देना चाहिए कि मैंने कहा कि न्यूज़ चैनल न देखें। मैं अपनी बात पर अब भी क़ायम हूँ। न्यूज़ चैनल( सभी) भारत के लोकतंत्र को बर्बाद कर चुके हैं।

चैनलों ने आपके भीतर की लोकतांत्रिक को समाप्त कर दिया है। सैंकड़ों चैनल हैं मगर सूचना की विविधता नहीं है। यह कैसे संभव है? यह संभव हो चुका है। आप उस गिद्ध में बदल दिए गए हैं जहाँ असहमति माँस के टुकड़े की तरह नज़र आती है। सूचना मरी हुई लाश की तरह नज़र आती है। आप चाहें तो टीवी देखिए फिर भी मैं कहूँगा कि चैनल न देखने का भारत में सत्याग्रह चले। हो सके तो कीजिए वरना मत कहिएगा किसी टीवी वाले ने ये बात न कही।

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