राष्ट्रीय

अब कोरोना का सारा दोष जनता पर रखने की तैयारी

Shiv Kumar Mishra
12 April 2021 1:10 PM GMT
अब कोरोना का सारा दोष जनता पर रखने की तैयारी
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शकील अख्तर

इस बार चोट मध्यम वर्ग को पड़ेगी। टीवी पर डिबेटें देख देखकर वह सबसे ज्यादा खुश हो रहा था। कोरोना जब पिछले साल शुरू हुआ तो न्यूज चैनलों के लिए यह एक इवेंट था। सबसे पहले उन्होंने इसे लाल बनाने में अपनी पूरी अक्ल लगा दी। महामारी है, विश्वव्यापी असर हो रहा है, सब भूलकर इसे चीन का लाल आतंक निरूपित करने में लग गए। एक रेफ्रिजेटर की कहानी, एक चमगादड़ की जबानी, वैक्टेरिया से दुनिया पर कब्जा जमा लेने की साजिश से लेकर नेहरू की 1962 की भूल सब पर दिन भर प्रोग्राम बनने लगे। एक चैनल तो कोरोना का जिन्दा वायरस पकड़ कर स्टूडियो में ही ले आया।

सेनेटाइजर कहां है किसी को नहीं मालूम। स्टोरों से गायब हो गया। यहां तक की सुरक्षा बलों की कैंटिनों तक में सप्लाई नहीं हो रही थी। मनमानी कीमतों में ब्लैक में मिल रहा था। क्वालिटी की कोई गांरटी नहीं थी। दूसरी तरफ केन्द्रीय खाध्य एवं आपूर्ती मंत्री ( अब स्वर्गवासी) रामविलास पासवान अपने आफिस में सेनेटाइजर के बड़े बड़े जार लगाकर बता रहे थे कि देखिए कैसे सेनेटाइजर का उपयोग किया जाता है। इसे हाथ से भी चला सकते हैं, और पांव से भी! उस समय संसद चल रही थी। जब वहां सवाल हुए तो सेनेटाइडजर को आवश्यक वस्तु में अधिसूचित किया गया। उसके रेट फिक्स के गए। मगर उसकी कालाबाजारी रोकने की कहीं बड़ी कोशिश नहीं की गई। आज जब जनता पर सब कुछ डालने का प्रचार तेज कर दिया गया है तो क्या यह पूछा जा सकता है कि पिछले साल मार्च में जिस सेनेटाइजर पर सबसे ज्यादा जोर था उसके नकली बनाने, ज्यादा कीमत वसूल करने वाले कितने उत्पादकों, बड़े होलसेलरों को जेल हुई। या उसका ठीकरा भी जनता पर फोड़ा जा सकता है। साबुन की भी कमी हो गई। खासतौर से उन साबुनों की जो कीटाणुनाशक टेग के साथ बिकते हैं। एक तरफ हाथ साबुन से धोते रहो का उपदेश तो दूसरी तरफ गांवों में जागरुकता फैलाने के लिए पांच रुपए वाला साबुन भी फ्री में नहीं बांटने की समझ! और तीसरी तरफ करोड़ों का काढ़ा सरकारी खर्च पर मुफ्त बांटने का दावा। इसी तरह उस मास्क की सबसे ज्यादा लापरवाह व्याख्या जिसे आज "लहर दो" में सबसे जरूरी बताया जा रहा है।

प्रधानमंत्री मोदी ने भी कह दिया कि मास्क या गमछा कुछ भी इस्तेमाल कर सकते हैं। हमारे यहां इस तरह के आसान विकल्प देना किस तरह घतक हो सकता है यह आज मास्क पर सबसे ज्यादा जोर देने से समझ में आ रहा है। मंत्री कह रहे थे कि मैं मास्क नहीं पहनता। बहुत सारे उदाहरण हैं और सबको मालूम है कि मास्क को कैसे अवांछित बनाया गया। मगर आज यह इल्जाम भी गरीब पर डाला जा रहा है। उसे पकड़कर बेरहमी से मारा जा रहा है। जनता ही नालायक है का रिकार्ड फिर से बजाया जाने लगा है।

खैर तो हम बात कर रहे थे कि मीडिया ने किस तरह गैर जिम्मेदारी और सरकार पर आंच न आए के उद्देश्य से आरोप मड़े। और कैसे इस धुन पर मध्यम वर्ग झूमता रहा। तो जब कोरोना को लाल करने का माहौल कमजोर पड़ने लगा तो मीडिया के भाग्य से फिर छींका टूटा। दिल्ली में तबलीगी जमात के सम्मेलन का मामला सामने आ गया। यह तो इनका सबसे पसंदीदा विषय था। फौरन कोरोना का हरा करने में जुट गए। जाने कितना पत्रकार थूक एक्सपर्ट बन गए। मैंने थूकते हुए देखा, मैंने भी देखा से लेकर पाकिस्तान ने भेजे कोरोना बम, बिरयानी की मांग, पजामा उतारा, छुपे हुए हैं तक जाने कितनी कहानी मीडिया ने बना डालीं। उस समय हमने लिखा था कि " कोरोना को हरा नहीं बनाओ। " उस लेख में हमने आगाह किया था कि कोरोना को सांप्रदायिक रंग देने से कोरोना खत्म नहीं होगा। मगर इस हिन्दु मुसलमान में तो टीवी की जान बसती है। इसे वह कैसे छोड़ सकती थी। जब हर अदालत ने यह साफ कर दिया कि जमात का कोई दोष नहीं था। एक संयोग था। तब तक वे कोरोना वायरस का पोस्टमार्टम करते रहे और उसमें से सांप्रदायिक एंगल निकलते रहे। लेकिन जब जमात के चीफ मौलाना साद को पूछताछ तक के लिए नहीं बुलाया गया तब जाकर मीडिया को लगा कि अब इसमें कोई जान नहीं है। लेकिन वह कोरोना से निपटने के वास्तविक रास्तों पर फिर भी नहीं लौटी। इस बार उसने सबसे साफ्ट टारगेट मजदूरों को पकड़ लिया। पैदल जाता हुआ बेबस मजदूर इनका शिकार बना। क्या क्या झूठ नहीं बला गया सैंकड़ों किलोमीटर दूर पैदल जाते बच्चों, औरतों, वृद्धों के बारे में। इतनी अमानवीय रिपोर्टिंग जैसे राक्षस, राम सीता वन गमन की कथा लिखें! अगर तुलसी का लिखा यह सच है कि – " तुलसी आह गरीब की कबहूं न निष्फल जाए, मरी खाल की सांस से लौह भस्म होई जाए! " तो पता नहीं इन गरीब मजदूरों की मजबूरी का मजाक उड़ाने वालों का क्या होगा? मजदूरों के बाद ये किसानों के पीछे पड़ गए और अब तो पूरी जनता के।

मगर यह पूछने वाला कोई नहीं है कि वैक्सिन क्यों नहीं है? तमाम राज्यों में रेमडेसिवीर इंजेक्शन भारी ब्लैक में क्यों मिल रहे हैं? वेन्टिलेटर क्यों नहीं हैं? और सबसे बड़ी बात कि लाक डाउन को लेकर रहस्य क्यों बनाया जा रहा है? पारदर्शिता बरतने में नुकसान क्या है? टीवी का अपना खेल है। वह क्यों पूछेगी? लेकिन अब पानी सिर के उपर आ गया है। जनता के नहीं, मध्यम वर्ग के। जनता तो पिस चुकी जितना पिसना था। एक साल में उसका तेल निकल गया। अब उसे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। अब गाज गिरेगी मध्यम वर्ग पर। वह सबकी पिटाई पर बहुत खुश हो रहा था। उसे लगता था सरकार वहीं है। उसका नंबर कभी नहीं आएगा। लेकिन अब व्हट्स एप ग्रुपों पर माहौल बनना शुरू हो गया है। ये ग्रुप ही अब भारत में ज्ञान के नए केन्द्र हैं। टीवी भी इन्हीं से प्राप्त ज्ञान पर चलता है।

देश का मध्यम वर्ग जो कभी नेतृत्व देता था। आज व्यट्सएप ग्रुपों और टीवी से संचालित होता है। उसकी नौकरी जा रही है, नौकरी है तो तनखा नहीं मिल रही है, तनखा है तो कम मिल रही है मगर इन सबके बावजूद वह कोई सवाल नहीं पूछता है। सुबह व्ह्टस एप ग्रुप देखकर फारवर्ड फारवर्ड खेलता है और रात को एक से एक जहरीली टीवी डिबेट देखकर काल्पनिक शत्रु से लड़ने के प्लान बनाते हुए सो जाता है। वह इस कदर नशे में आ गया कि जब चीन की घुसपैठ के लिए सरकार को नहीं फौज को दोषी बताया गया तब भी सोशल मीडिया की भाषा में सहमत, सहमत चिल्लाता रहा। टीवी ने इसके लिए माफी नहीं मांगी कि कैसे उसने फौज का मारल डाउन किया है। खैर माफी तो उसने इसकी भी नहीं मांगी थी जब उसने चैनल पर बलात्कार का नाट्य रुपानंतरण दिखाना शुरू किया था। उससे ज्यादा अश्लील, वीभत्स और महिला विरोधी कुछ नहीं था। और सबसे बढ़कर गैर कानूनी, आपराधिक कृत्य था। मगर वह उसी तरह गैर जवाबदेह बना रहा, जैसे अभी सुशांत सिंह राजपूत के मामले में आत्मह्त्या को हत्या बनाने की असफल कोशिशों के बाद रहा!

खैर टीवी फिर भी इशु नहीं है। कभी कोई एक झटके में इन्हें सही कर सकता है। झूठी तारीफें हमेशा पसंद नहीं की जाती हैं। जब कभी उलटी बयार बहती है तो सबसे पहले उन्हीं को पकड़ा जाता है जो अनुकूल हवाओं के झूठे गान सुनाते रहते हैं। नेता जो सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा है जानता है कि यह मेरी नहीं सत्ता की चापलूसी कर रहे हैं। चिन्ता है देश के उस मध्यम वर्ग की जो कभी पढ़ लिखकर विदेशों में गया था। भारत की आज जो दुनिया में पहचान है वह पढ़े लिखे होने की वजह से है। कल ये व्हट्स एप के पढ़े और टीवी के सीखे लोग क्या दुनिया में भारत की वही छवि कायम रख पाएंगे, जो आजादी के बाद बनी थी। कोरोना आज नहीं तो कल जाएगा। टीवी भी कुछ और हो जाएगा। मगर पीढ़ियां बनने में समय लगता है। पता नहीं कितने लोगों ने मंटो की मशहूर कहानी " शाहदौले के चुहे " पढ़ी है। वही कहानी याद आ रही है। हमारा मध्यम वर्ग उसी तरफ जाता दिख रहा है।

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