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स्वतंत्रता का कानून से बचाव: जरूरी है कि कानून का पालन कायदे से हो

Shiv Kumar Mishra
5 July 2020 5:03 AM GMT
स्वतंत्रता का कानून से बचाव: जरूरी है कि कानून का पालन कायदे से हो
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बालचंद (1977) 4 एससीसी 308 में कृष्णा अय्यर जे ने यह फैसला दिया था। तब से जमानत नियम है, जेल अपवाद है, यह एक पवित्र सिद्धांत बन कर गया है।

यदि किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो उसने कुछ गलत किया होगा। यदि किसी व्यक्ति को जमानत देने से इंकार कर दिया जाता है तो उसे दोषी होना चाहिए। अगर किसी को न्यायिक हिरासत (जो कि पुलिस हिरासत से अलग है) में भेजा जाता है तो वह कैद के साथ सजा का भागीदार होता है।

कुछ विराम यह बताने के लिए कि उपरोक्त हर निष्कर्ष स्पष्ट रूप से गलत है। यह हमारे अलंघनीय अधिकारों जिसे हम स्वतंत्रता कहते हैं, और स्वतंत्रता को कम करने के प्रति अनदेखी की हमारी निर्दयता है, जैसा कि अमेरिका के मिनेसोटा में जॉर्ज फ्लॉयड आंदोलन में देखने को मिला या भारत में तमिलनाडु में जयराज और फेनिक्स के मामले में देख रहे हैं।

भारत में हिरासत में होने वाली कथित यातनाओं के मामलों में जयराज और फेनिक्स का मामला कोई पहला नहीं है। 1996 में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने पश्चिम बंगाल के डी के बासु और उत्तर प्रदेश के ए के जौहरी के पत्रों पर स्वत: संज्ञान लिया था, जिनमें हिरासत में मौत की घटनाएं तेजी से बढ़ने की बात कही गई थी और 18 दिसंबर 1996 को (डी के बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997),1 एसीसी 436) को ऐतिहासिक फैसला दिया था। इस फैसले की कई बार पुष्टि हुई और इसका समर्थन किया गया, फिर भी दुखद है कि चौबीस साल बाद भी कुछ नहीं बदला।

कई तरह की पुलिस

जब राज्य किसी अन्य व्यक्ति के मामले में कार्रवाई करता है तो आमतौर पर व्यक्ति को राज्य में पूरा भरोसा होता है और वह यह मानने के लिए तैयार रहता है कि एक पुलिस अधिकारी, एक अभियोजक, एक मजिस्ट्रेट, एक जज या डॉक्टर हमेशा कानून सम्मत काम करेगा। पर वह गलत है। लार्ड डेनिंग ने इस बारे कहा है-'कोई भी यह नहीं मान सकता कि कार्यपालिका कभी भी ऐसे पाप की दोषी नहीं होगी, जो कि हम सबके बीच सामान्य सी बात है। आपको लग सकता है कि कई बार वे ऐसे काम कर जाते हैं जो उन्हें नहीं करने चाहिए, और ऐसे काम नहीं करेंगे जो उन्हें करने चाहिए।'

हिरासत में यातना की शुरुआत हिरासत में ले लिए जाने के बाद नहीं होती, इसके बीज तो पहले से ही पड़ जाते हैं, जिन्हें गिरफ्तारी, जमानत से इनकार, पुलिस हिरासत की इजाजत और न्यायिक हिरासत में रिमांड जैसे स्तरों पर देखा जा सकता है। हर स्तर पर कानून एकदम स्पष्ट है, लेकिन इस पर अमल अक्सर गलत और विकृत होता है। हम गिरफ्तारी से शुरुआत करते हैं।

डी के बासु मामले में अदालत ने कहा था कि नियमित पुलिस के अलावा भी हमने गिरफ्तारी का अधिकार दूसरे प्राधिकारों को दे रखा है, जैसे सीबीआइ, प्रवर्तन निदेशालय, सीआइडी, सीआरपीएफ, बीएसएफ, यातायात पुलिस, आयकर अधिकारी आदि। इनमें से कुछ का दावा है कि वे 'पुलिस' नहीं हैं और आपराधिक आचार संहिता से नहीं बंधे हैं। उदाहरण के लिए, प्रवर्तन निदेशालय का कहना है कि वह 'केस डायरी' रखने के लिए बाध्य नहीं है। बदतर तो यह है कि हमने गिरफ्तारी के लिए विशिष्ट स्थितियों को स्पष्ट नहीं किया है।

राष्ट्रीय पुलिस आयोग (तीसरी रिपोर्ट) ने पाया था कि कुल गिरफ्तारियों में से साठ फीसद 'अनावश्यक' थीं। रिपोर्ट में जिन दिशानिर्देशों की सिफारिश की गई थी, उनका हवाला देते हुए जजों ने फटकार लगाई थी और कहा था- 'पुलिस आयोग की सिफारिशें वैयक्तिक स्वतंत्रता और आजादी के मौलिक अधिकार की संवैधानिक सहवर्तिता को प्रतिबिंबित करती है। हालांकि इन सिफारिशों को अभी तक कोई वैधानिक दर्जा नहीं मिला है।'

गिरफ्तारी और रिमांड

पहला सुधार कई प्राधिकारों को दी गई गिरफ्तार करने की शक्ति को खत्म करने का है। दूसरा यह घोषित किया जाए कि कोई भी अधिकारी जिसे गिरफ्तार करने की शक्ति हासिल हो, वह एक 'पुलिस' अधिकारी हो। तीसरा यह कि विशिष्ट परिस्थितियों में गिरफ्तार करने के अधिकार को सीमित किया जाए। याद रहे, जयराज और फेनिक्स को इस आरोप में गिरफ्तार किया गया था कि उन्होंने पूर्णबंदी में नियत समय से पंद्रह मिनट ज्यादा अपनी दुकान खोले रखी थी!

दूसरा स्तर पेशी और रिमांड का है। कोई भी मजिस्ट्रेट या जिला जज यह सोचे बिना पुलिस हिरासत नहीं देगा कि इसकी जरूरत है या नहीं। पुलिस हिरासत खत्म (जो अधिकतम पंद्रह दिन की होती है) होते समय मजिस्ट्रेट / जिला जज गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायिक हिरासत में भेजेगा। कानून बिल्कुल अलग है। मनुभाई रतिलाल पटेल (2013) 1 एससीसी 314, में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था-'..मजिस्ट्रेट तथ्यात्मक पस्थितियों को देखते हुए अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकते हैं कि क्या पुलिस हिरासत के लिए कोई वाजिब कारण है, या न्यायिक रिमांड के लिए न्यायोचित कारण है या कुल मिला कर कहीं रिमांड की कोई जरूरत नहीं है।' शायद ही कोई मजिस्ट्रेट या जिला जज होगा जो इन रेखांकित शब्दों का खयाल रखता होगा।

तीसरा स्तर गिरफ्तार या रिमांड पर लिए गए व्यक्ति की डाक्टरी जांच है। यदि जयराज और फेनिक्स की चिकित्सक द्वारा उचित जांच कराई गई होती तो उन्हें कैसे स्वस्थ्य होने का प्रमाणपत्र दिया गया होता।

अपवाद बनते नियम

चौथा स्तर जमानत का है। कम से कम पहली या दूसरी सुनवाई में तो कुछ मजिस्ट्रेट / जिला जज जमानत के लिए अभियोजक के विरोध को खारिज कर देंगे। विचाराधीन कैदियों से जेलें भरी पड़ी हैं, जबकि कानून के मुताबिक ऐसे कैदियों को जमानत पर होना चाहिए। बालचंद (1977) 4 एससीसी 308 में कृष्णा अय्यर जे ने यह फैसला दिया था। तब से जमानत नियम है, जेल अपवाद है, यह एक पवित्र सिद्धांत बन कर गया है।

हालांकि कम ही मजिस्ट्रेट / जिला जजों ने इसे लागू किया, वे अपवाद को ही लागू करने में खुश हैं। जयराज और फेनिक्स मामले में कथित तुच्छ अपराध के लिए उन्हें पुलिस या न्यायिक हिरासत के लिए रिमांड नहीं देनी चाहिए थी। उन्हें पेशी पर जमानत दे दी जानी चाहिए थी।

यह बहुत ही निराशाजनक है कि वैयक्तिक स्वतंत्रता से संबंधित कानून सिद्धांत में कुछ है और व्यवहार में कुछ। शुक्र है कि अब चीजें बदल रही हैं। हाल में सुशीला अग्रवाल (29 जनवरी 2020) मामले में संवैधानिक पीठ ने गुरबक्श सिंह सिब्बिया (1980) 2 एसीसी 565 मामले में दिए गए संवैधानिक पीठ के फैसले को बनाए रखा और साहसपूर्वक सुप्रीम कोर्ट के आठ फैसलों को पलट दिया और इसे 'एक बुरा कानून' घोषित कर दिया। गलती इंसान करता है और उस गलती को सुधारना न्याय है। जयराज और फेनिक्स की तरह मरने से पहले जो लोग अपने को उस हालत में पाते हैं, उनके लिए अभी भी एक उम्मीद है।

[इंडियन एक्सप्रेस में 'अक्रॉस दि आइल' नाम से छपने वाला, पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता, पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम। जनसत्ता में यह 'दूसरी नजर' नाम से छपता है। हिन्दी अनुवाद जनसत्ता से साभार।]



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