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एग्जिट पोल से चुनाव परिणामों को लेकर काफी धुंध छंट गई है। बाकी कसर 23 तारीख को परिणाम से पूरी हो जाएगी। अब वक्त है सच का सामना करने का। पहला बड़ा सच यह है की इस चुनाव के परिणाम एकतरफा होने जा रहे हैं। माना कि 'एग्जिट पोल' 'एग्जैक्ट पोल' नहीं होते हैं, लेकिन जब सभी सर्वेक्षण एक ही दिशा में इशारा करें तो वह तस्वीर गलत नहीं होती। यूं भी यह सच पिछले दो महीने से हर सड़क, हर ढाबे, हर गाड़ी या पनवाड़ी के यहां सुना जा सकता था। सीटों के अनुमान में कुछ ऊपर-नीचे हो सकता है, लेकिन बड़ी तस्वीर बदलने की संभावना नहीं दिखाई देती। बड़ी तस्वीर यह है कि भाजपा गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिलने जा रहा है और मोदी सरकार पांच साल के लिए दोबारा सत्ता में वापस आ रही है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या भारतीय जनता पार्टी को स्वयं पूर्ण बहुमत मिल जाएगा। हैरानी जरूर होगी, लेकिन आज इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
अलग-अलग राज्यों में क्या परिणाम होगा उसे लेकर कुछ संशय बाकी है। पूर्वी भारत खासतौर पर ओडिशा और पश्चिमी बंगाल में भाजपा के उभार के कयास सही साबित होते दिख रहे हैं। सवाल सिर्फ इतना है क्या भाजपा उड़ीसा में 10 से अधिक और बंगाल में 20 के करीब सीट हासिल कर पाएगी? कुछेक सर्वेक्षणों का अनुमान है कि पूरे पश्चिमी और उत्तर भारत में भाजपा की आंधी चलेगी। गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा में यह संभावना बताई जा रही है कि भाजपा बिल्कुल झाडू फेर सकती है। यानी यहां एकतरफा सफाये की स्थिति होगी। महाराष्ट्र, कर्नाटक, झारखंड और बिहार में विपक्ष ने भाजपा के खिलाफ बड़ा गठजोड़ खड़ा किया था। फिलहाल संभावना यही है कि इन बड़े गठजोड़ पर भी भाजपा भारी पड़ेगी। एेसा क्यों हुआ यह अलग विश्लेषण का विषय है। उत्तर प्रदेश के बारे में अलग-अलग एग्जिट पोल की भी कुछ अलग-अलग राय है। इतना तो लगभग सब मानते हैं कि सपा-बसपा गठबंधन के बावजूद भाजपा या तो उनके बराबर है या उन पर भारी। कुछ सर्वेक्षण भाजपा को 60 या उससे अधिक सीट दे रहे हैं। यह बात अब भी गले से नहीं उतरती। इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम का सबको इंतजार रहेगा। दरअसल, उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम ही पूर्वानुमानों में कुछ फर्क ला सकते हैं। अब चुनाव नतीजों में यही उत्सुकता का बिंदु है। ठीक-ठीक आंकड़ा क्या होगा, नज़रें इसी पर लगी हैं।
अगर यह तस्वीर सही है तो दूसरा बड़ा सच भी हमारे सामने है: यह सिर्फ भाजपा की चुनावी जीत नहीं बल्कि नरेंद्र मोदीजी को स्पष्ट जनादेश है। इस सच को किसी बहाने के तले नहीं दबाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं की इस चुनाव में भाजपा ने बेहिसाब पैसा खर्च किया, सरकारी तंत्र का खुल्लम खुल्ला दुरुपयोग किया। पिछले तीन दशक का सबसे लचर चुनाव आयोग आचार संहिता की धज्जियां उड़ते हुए देखता रहा और सुप्रीम कोर्ट भी ईवीएम में जनता का विश्वास कायम नहीं कर सका। लेकिन बड़ा सच यह है कि नरेंद्र मोदी को दोबारा सत्ता इसलिए मिल रही है कि देश का वोटर उन्हें एक और मौका देना चाहता है। इस सच से मुंह चुराना जनादेश का अपमान होगा।
तीसरा बड़ा सच यह है कि मोदीजी को दूसरा मौका अपनी सरकार की उपलब्धियों की वजह से नहीं, बल्कि अपने प्रचार तंत्र की सफलता और विपक्ष के निकम्मेपन की वजह से मिल रहा है। अगर मोदीजी के अंध भक्तों को छोड़ दें तो उनके समर्थक भी इस बात से इंकार नहीं करते की पहले पांच साल में उनकी सरकार कुछ खास कर नहीं पाई। नोटबंदी, जीएसटी, खेती संकट और बेरोजगारी की सच्चाई को देखकर कई मोदी समर्थक उनके घोर विरोधी बन गए थे। अगर इस कड़वी सच्चाई के बावजूद वोटर ने मोदीजी को दोबारा मौका देने का फैसला किया तो इसलिए कि उसने अपने नफा-नुकसान से ऊपर देश के हित को रखा। एक साधारण वोटर को लगा कि अगर देश का हित बचाना है, तो ले-देकर मोदीजी ही सबसे बेहतर विकल्प हैं। इस छवि के निर्माण के पीछे मोदीजी का विशाल प्रचार तंत्र था, पुलवामा की त्रासदी का बेशर्मी से दोहन था और भाजपा की सेवा में बिछा लगभग पूरा मीडिया था। प्रचार से बनी छवि, नाकाम सरकार की छवि पर हावी रही।
लेकिन अगर इस प्रचार में भाजपा को सफलता मिल पाई तो उसका श्रेय दिशाहीन और निकम्मे विपक्ष को दिया जाना चाहिए। इस चुनाव के दौरान जब भी किसी मोदी समर्थक से मेरी बातचीत हुई तो उसका अंतिम तर्क यही होता था: 'तो फिर क्या राहुल गांधी को वोट दें? क्या मायावतीजी को प्रधानमंत्री बना दे?' सच यह है कि विपक्ष के पास न तो राजनीतिक इच्छाशक्ति या नीयत थी, न ही उनके पास देश के सामने पेश करने के लिए कोई दृष्टि यानी नीति थी और न ही उनके पास कोई विश्वसनीय चेहरा है या नेता था। एेसा कुछ करने का कोई ठोस प्रयास भी विपक्ष की अोर से नहीं किया गया। यह खेद की बात है।
चौथा और सबसे बड़ा सच इसी बात से जुड़ा है। आज राजनीति में पार्टियों और नेताओं की कमी नहीं, लेकिन विश्वसनीयता का अकाल है। विरोधियों की कमी नहीं लेकिन विकल्प का अभाव है। अगले पांच साल देश के लिए बहुत कठिन समय होगा। हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं की परीक्षा होगी। साम्प्रदायिक सौहार्द बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती होगी। एक जमाना था जब देश को कांग्रेस के एकछत्र राज से बचने के लिए विकल्प की जरूरत थी। अब देश को भाजपा के वर्चस्व से बचने के लिए विकल्प की जरूरत होगी। लेकिन न तो कांग्रेस और न ही अन्य क्षेत्रीय विपक्षी दल इस जिम्मेदारी को निभाने में सक्षम है। एेसी कोई सोच भी कहीं नज़र नहीं आती। चुनावी राजनीति का सत्ता केंद्रित हो जाने से एकांगी दृष्टिकोण विकसित हो गया है। नए विकल्प का मतलब सिर्फ एक नई पार्टी नहीं, बल्कि एक नया विचार, राजनीति का नया संस्कार और संगठन की नई मर्यादा होगा। आज भारत के स्वधर्म की रक्षा का ऐतिहासिक दायित्व राजनीति के रणक्षेत्र में एक ऐसे विकल्प के निर्माण की मांग करता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
योगेन्द्र यादव सेफोलॉजिस्ट अौर अध्यक्ष, स्वराज इंडिया Twitter :@_YogendraYadav