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अंतरराष्ट्रीय सामाजिक न्याय दिवस पर विशेष: जब कैलाश सत्यार्थी ने नाथद्वारा मंदिर में कराया दलितों का प्रवेश!!!
लेखक- पंकज चौधरी
फोटो क्रेडिट- कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन
आज इंटरनेशल सोशल जस्टिस डे है। 21वीं सदी के इस आधुनिक युग में भी जब हमें सोशल जस्टिस डे मनाने की जरूरत पड़ रही हो तो इससे जाहिर होता है कि विकास के बड़े-बड़े दावों के बीच आज भी दुनिया में एक बड़ी आबादी सुविधाओं से वंचित और समाज के हाशिए पर हैं। लोग जाति, श्वेत -अश्वेत, ऊंच-नीच और अमीरी-गरीबी के भेदभाव से जूझ रहे हैं। ऐसे में अमेरिका में जलालत और गुलामी की जिंदगी जीने वाले अश्वेतों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले मार्टिन लूथर किंग जुनियर, दक्षिण अफ्रीका में ऐसी ही लड़ाई लड़ने वाले नेल्शन मंडेला और भारत में दलित, आदिवासी और पिछड़ों के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले महात्मा गांधी जी व बाबा साहब अंबेडकर बरबस ही याद आ जाते हैं। नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता श्री कैलाश सत्यार्थी भी अपने प्रयासों से इन महान विभूतियों की लड़ाई को आगे बढ़ाते हुए दबे-कुचले और वंचित तबके के लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए संघर्ष जारी रखे रखे हुए हैं।
श्री कैलाश सत्यार्थी ने जिन 90,000 से अधिक बाल मजदूरों को गुलामी से मुक्त करा कर पुनर्वासित किया है, वे समाज के हाशिए के ही बच्चे हैं। हमें इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि बाल मजदूरी के दलदल में उन्हीं बच्चों को सबसे ज्यादा धंसाया जाता है, जो दलित-बहुजन पृष्ठभूमि से आते हैं। गरीबी के साथ-साथ निम्न जातीय पृष्ठभूमि भी बाल मजदूरी के कारणों में शामिल है, जिसका शिकार वही बच्चे पीढ़ी दर पीढ़ी होते आ रहे हैं। उन्होंने दलितों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी है। मैं आज इंटरनेशल सोशल जस्टिस डे पर श्री सत्यार्थी से संबंधित ऐसी दो घटनाओं से आप को अवगत कराना चाहता हूं, जिन्हें सामाजिक न्याय की लड़ाई के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा।
आजाद भारत में सरकारी और गैर-सरकारी दोनों स्तरों पर हाशिए की जातियों को सामाजिक न्याय मिले, इसके लिए प्रयास किए जाते रहे हैं। इसके तहत उन्हें राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक बराबरी और न्याय दिलाने की कोशिश भी शामिल हैं। यह उसका संवैधानिक अधिकार भी है। इस बात को महात्मा गांधी ने सबसे पहले महसूस किया। यही सोचकर उन्होंने दलितों के मंदिर प्रवेश का आंदोलन शुरू किया था, जो बहुत कामयाब भी रहा। गांधी के बाद भी दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाने के प्रयास होते रहे हैं और इस सिलसिले में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित श्री कैलाश सत्यार्थी की कोशिश ने इतनी सुर्खियां बटोरीं, कि वे यादें आज भी ताजा हो जाती हैं।
यह अस्सी के दशक की बात है। श्री सत्यार्थी के नेतृत्व में हरियाणा के पत्थर खदान मजदूरों को मुक्ति दिलाई गई थी। लंबे संघर्ष के बाद मजदूरों के पक्ष में अदालत ने कई फैसले दिए थे। इसके बाद पंजाब के सरहिंद के ईंट-भट्ठे से साबो समेत 34 अन्य बाल और बंधुआ मजदूरों को भी श्री सत्यार्थी की अगुवाई में आजाद कराया गया था। सत्यार्थी आंदोलन को जीत पर जीत हासिल हो रही थी, जिससे स्वयं श्री सत्यार्थी और उनके साथियों का उत्साह परवान चढ़ रहा था। इन्हें जहां कहीं भी गैर-बराबरी और विसंगति नजर आती, उसको दूर करने के लिए वे वहां तत्काल कूच कर जाते। इसी क्रम में उन्हें पता चला कि राजस्थान के प्रसिद्ध नाथद्वारा मंदिर में दलितों का प्रवेश निषेध है। श्री सत्यार्थी को इस बात ने बहुत कचोटा है कि आजादी के चार दशक बाद भी दलितों की ऐसी दुर्गति है कि वे मंदिर में प्रवेश कर ईश्वर के दर्शन भी नहीं कर सकते। श्री सत्यार्थी ने समाज और धर्म के ठेकेदारों द्वारा दलितों के साथ किए जा रहे इस अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ने की ठान ली।
यह वही नाथद्वारा मंदिर था, जहां के मुख्य दरवाजे पर यह कठोर चेतावनी खुदी हुई मिलती थी-''शूद्रों एवं विधर्मियों का मंदिर में प्रवेश वर्जित।" नाथद्वारा मंदिर में यह परंपरा पिछले 400 सालों से चली आ रही थी। लेकिन, कोई इसके खिलाफ आवाज नहीं उठा रहा था। 1988 के गर्मियों की बात है। दलितों को मंदिर में प्रवेश कराने के उद्देश्य से श्री सत्यार्थी ने उदयपुर से नाथद्वारा तक की पदयात्रा करने का साहस दिखाया। इसके लिए श्री सत्यार्थी के नेतृत्व में दलितों का एक जत्था रवाना भी हो गया। अखबारों में छपी खबरों के बाद सवर्ण और धर्म के ठेकेदार पंडे-पुजारी इस यात्रा के विरोध में खड़े हो गए। जत्थे पर हमले और इसके बाद बड़े पैमाने पर हिंसा भड़कने की आशंका से पुलिस ने बीच में ही जत्था रोक दिया। ऐसे में इस मुद्दे पर अदालत का दरवाजा खटखटाया गया। अदालत ने सरकार और पुलिस को निर्देश दिया कि नाथद्वारा मंदिर में विराजमान श्रीनाथ जी के दर्शन को इच्छुक दलितों के लिए मंदिर तक पहुंच को सुनिश्चित किया जाए। अदालत के आदेश के खिलाफ शहर के प्रभावशाली लोगों ने नगरबंद की मुनादी कर दी। इसके बावजूद श्री सत्यार्थी पुलिस सुरक्षा के बीच 40 लोगों के जत्थे का नेतृत्व करते हुए 2 अक्टूबर, 1988 को स्थानीय महिलाओं की गंदी-गंदी गालियां सुनते हुए, पत्थरों और कांटों की बौछारें सहते हुए मंदिर के मुख्य द्वार तक पहुंच ही गए। लेकिन, जैसे ही श्री सत्यार्थी ने दलित साथियों के साथ मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश किया, रूढि़वादी पुजारियों और उनके मुस्टंडों ने उन पर जबरदस्त हमला कर दिया। श्री सत्यार्थी लहूलुहान हो गए। मंदिर के बाहर खड़ी पुलिस के बीच-बचाव से उनकी जान बची। श्री सत्यार्थी हमलों को झेलते हुए भी सैकड़ों दलित भाईयों को श्रीनाथ जी के दर्शन और पूजा-अर्चना कराने में सफल हुए। बाद में दर्शन करके लौटते वक्त उन पर तेजाब से हमले की योजना थी, जो पुलिस अधिकारियों की सूझ-बूझ से असफल हो गई। इस तरह श्री सत्यार्थी के प्रयास से सैकड़ों सालों से चली आ रही सड़ी-गली परंपरा टूट चुकी थी। इस घटना की अनुगूंज पूरे देश में सुनाई पड़ी। तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण और राजस्थान के मुख्यमंत्री पर इस घटना का इतना प्रभाव पड़ा कि वे भी दलितों के एक बड़े समूह को लेकर नाथद्वारा मंदिर पहुंच गए।
श्री कैलाश सत्यार्थी बचपन से ही छूआछूत और जातिवाद के खिलाफ थे। दसवीं में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने गांधी जयंती पर दलितों के साथ सहभोज का आयोजन कर जातिवाद के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। जिसकी वजह से उन्हें बिरादरी से बाहर भी कर दिया गया था। तब उन्होंने अपने नाम से जातिसूचक शब्द निकाल दिया था और कैलाश नारायण शर्मा से अपना नाम बदल कर कैलाश सत्यार्थी कर लिया था। नाम बदलने के 19 साल बाद उन्होंने फिर एक बार जातिवाद के खिलाफ आंदोलन चलाया और राजस्थान के प्रसिद्ध नाथ द्वारा मंदिर में दलितों को प्रवेश दिला कर इस लड़ाई को जारी रखा। सामाजिक न्याय का यह संघर्ष अभी भी जारी है।