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सवर्ण बनाम दलित मुद्दे में फंसी भाजपा, क्या टूट जायेंगे मोदी के 2019 के सपने? चकनाचूर हो जायेगा जीत का अश्वमेघ!

सवर्ण बनाम दलित मुद्दे में फंसी भाजपा, क्या टूट जायेंगे मोदी के 2019 के सपने? चकनाचूर हो जायेगा जीत का अश्वमेघ!
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लोकसभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी को हिंदू धर्म के अनुयायीयों ने खुलकर वोट दिया था. सबने हिंदू बनकर वोट किया था जातिधर्म को पहली बार भुलाया गया था.

लोकसभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी को हिंदू धर्म के अनुयायीयों ने खुलकर वोट दिया था. सबने हिंदू बनकर वोट किया था जातिधर्म को पहली बार भुलाया गया था. इस जाति धर्म के फेर में फंसी सपा और बसपा को सबसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ा था, बसपा को तो कुछ भी नहीं मिला था उस चुनाव में. जबकि 20 सीटों पर हमेशा अपना कब्ज़ा रखने वाली सपा महज अपने पारिवारिक उम्मीदवार ही जिता सकी, वहीँ कांग्रेस की हालत अब तक की सबसे बुरी हालत में थी जब उसके दो परम्परागत सीटें ही उसके हाथ आई.


अब लोकसभा 2019 का चुनाव सर पर मंडरा रहा है वोटर भी अपनी खुशामत के लिए तैयार बैठा है. लेकिन इस बार देख रहा है जो पिछली बार कहा गया उसको अब 2022 तक टाला जा रहा है. लेकिन जब बीजेपी के परम्परागत वोट को पीएम के द्वारा बताया कि उनको बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की वजह से यह पद मिला. तो उनको सुनकर काफी ठेस पहुंची है. इसको लेकर कुछ लोग सोशल मिडिया पर विरोध करते भी दिखे.


बीजेपी का सवर्ण बनाम दलित मुद्दा धीरे धीरे हावी होता जा रहा है. अमित शाह कह रहे है कि किसी माई के लाल में ताकत नहीं है जो बीजेपी के रहते आरक्षण के खिलाफ कुछ कर सके जबकि उन्हीं के मध्यप्रदेश सरकार के मंत्री आरक्षण पर खुलकर विरोध करते है. जातिगत समस्याओं का हमेशा विरोध करने वाली बीजेपी अब जातियों के सहारे अपनी नाव पार करने में लगी है. इसी बीजेपी ने सन 1990 में मंडल कमीशन लागू होने पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिराई थी. इसी के चलते बीजेपी के साथ सवर्ण वोट बेंक ढाल बनकर हमेशा खड़ा नजर आया. लेकिन उसी पार्टी के सवर्ण मतदातों के साथ यह व्यवहार उनके गले नहीं उतर रहा है.


यदि यही हाल चलता रहा तो कहीं बीजेपी का हाल धोबी का कुत्ता घर का रहा न घाट का कहावत चरित्राथ न हो जाय. सरकार के साथ एक विरोधावास का माहौल तो वैसे ही होता है लेकिन अगर उसके कुछ परम्परागत वोट डिस्टर्व हो जाय तो हार कोई नहीं रोक सकता है. हां इतना जरुर है कि बीजेपी का परम्परागत वोट किसी को वोट न कर शिथिल हो जाय जैसा अभी फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में कर चूका है. लेकिन बीजेपी ने सीख लेने की वजाय उसके विरोध में ही उसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है.


दूसरी सबसे बड़ी बात उनके अपने कार्यकर्ता से मोह भंग होता जा रहा है जबकि नए पार्टियों से आ रहे लोंगों को सम्मान के साथ पद भी मिलता जा रहा है. लेकिन पुराने और बुरे दौर में बीजेपी की बैसाखी बने लोग अब दरकिनार कर दिए गये है. जब तक इनको सम्मान जनक वापसी नहीं होगी तब तक बीजेपी के अंदर एक अपनों का विरोधी गुट भी तैयार हो रहा है. यह बीजेपी के साथ ही नहीं सभी पार्टियों के साथ भी है.


तीसरी सबसे पुख्ता बात यह है कि अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी कांग्रेस और रालोद और अन्य का गठवंधन यूपी में, बिहार में राजद,कांग्रेस, हम, और बीजेपी के रूठे लोग तो एमपी और राजस्थान में सरकार का विरोध बढ़ता इनकी सीटों की संख्या काफी हद तक सीमित कर देगा. यूपी में बीजेपी को लगभग चालीस प्रतिशत मत मिले जबकि लोकसभा 2014 में लगभग 43 प्रतिशत वोट मिला था. जबकि सपा बसपा को मिले लोकसभा चुनाव में मिले वोट के बाद बढ़ोत्तरी हुई. लेकिन सपा बसपा के मिलने के बाद उनका वोट प्रतिशत 46 प्रतिशत होता है और कांग्रेस के छह प्रतिशत और जोड़ दें तो ये मिलन 52 प्रतिशत पर चुनाव लड़ेगा जो बीजेपी का सफाया भी उसी हाल में कर सकता है जिस हाल में बीजेपी ने सभी दलों का किया था.


अब देखना यह है कि सवर्ण बनाम दलित लड़ाई को कितनी गहराई तक ले जायेगी बीजेपी या फिर अपने अश्वमेघ रथ को चकनाचूर कर देगा उनका यह नया दांव यह तो आने वाला चुनाव ही बताएगा.

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