राष्ट्रीय

मीडिया द्वारा मुसलमानों की गलत छवि का गढ़ा जाना जिम्मेदार है - सईद अहमद शेरवानी

Shiv Kumar Mishra
30 May 2020 2:05 PM GMT
मीडिया द्वारा मुसलमानों की गलत छवि का गढ़ा जाना जिम्मेदार है - सईद अहमद शेरवानी
x
इन बातों के लिए मुझे भी एक गैर राजनीतिक प्लेटफार्म की आवश्यकता थी इसलिए मैंने इमपार ज्वाइन किया.

भारत में शिक्षा एवं उद्योग क्षेत्र में विशेष पहचान रखने वाले नामवर शेरवानी परिवार से संबंध रखने वाले सईद अहमद शेरवानी इमपार की सभी मुख्य समितियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, वरिष्ठ पत्रकार माजिद अली खान ने शेरवानी साहब से इमपार एवं अन्य राजनीतिक व सामाजिक मुद्दों पर बातचीत की है जो पाठकों के लिए प्रस्तुत है

प्रश्न: शेरवानी साहब आप इमपार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, आप इमपार को किस नज़रिए से देखते हैं, इसकी अहमियत क्या है?

उत्तर: देखिए मैं बहुत दिनों से और लोगों की तरह देश की सांप्रदायिक स्थिति से बहुत परेशान था और लॉक डाउन के दौरान और अधिक चिंता सताने लगी, और तबलीगी जमात को लेकर जैसे मीडिया और सोशलमीडिया पर तूफान मचा और कोरोना जिहाद शब्द प्रयोग किया तो उससे तो और अधिक विचलित हो गया. मैं ये समझता था कि कोरोना देश को एक कर देगा लेकिन महसूस हुआ कि यह तो और अलग अलग हो रहे हैं, हमें लगता था कि यह बीमारी सबके लिए है, अमीर गरीब, खास-आम को ये बीमारी मार रही है तो हम सबको मिलकर इससे लड़ना है, परंतु यह तो बिलकुल उलट हो रहा है. कुल मिलाकर इन हालात में सोचता था कि कुछ होना चाहिए. इस दौरान मुझे पता चला कि एक इमपार गैर राजनीतिक संगठन बनाया गया है. मेरा डाक्टर एम जे खान साहब से कोई तार्रुफ नहीं था, मैंने उनसे बात की तो मुझे लगा कि इमपार वही कर रहा है जो मैं चाहता था खासतौर से दो बातें मेरे ज़हन में अक्सर रहती थी कि हम मुसलमान अपने ऊपर गैर राजनीतिक रूप से विचार करें और खुद अपने से सवाल करें और सुधार करें. दूसरी बात थी कि हिन्दू मुस्लिम के बीच बढ़ी नफरत में मीडिया द्वारा मुसलमानों की नकारात्मक छवि बनाना भी जिम्मेदार है तो इस पर भी कोई काम करे. मैं सोचता हूँ कि 1980 तक वही हिन्दू थे वही मुस्लिम थे तो अचानक बाद में क्या हुआ के हालात बिलकुल बदल गए. इसके लिए मीडिया द्वारा मुसलमानों की गलत छवि का गढ़ा जाना जिम्मेदार है. तो इन बातों के लिए मुझे भी एक गैर राजनीतिक प्लेटफार्म की आवश्यकता थी इसलिए मैंने इमपार ज्वाइन किया.

प्रश्न :इमपार को आम मुसलमान कितना स्वीकार करेगा और स्वागत करेगा, आप को क्या लगता है?

उत्तर: देखिए हर चीज़ को स्वीकार्य होने में समय दिया जाना चाहिए. और हर चीज़ के आलोचक भी सदा रहे हैं, आप कितना बड़ा संगठन ले लें, कोई नेता ले लें उनके आलोचक रहे हैं और आलोचक ही चीज़ को मज़बूत करते हैं. सर सैयद अहमद खान की मिसाल से आप समझ सकते हैं. इसलिए मैं समझता हूँ कि कोई वजह नहीं है, कोई रुकावट नहीं है कि इमपार को लोग पसंद न करें, स्वीकार न करें बल्कि आलोचक तो सदा रहेंगे लेकिन इमपार अपनी दिशा में आगे बढ़ता रहेगा. आप अभी देख लीजिए कि तबलीगी जमात के जो लोग कोरेंटाइन में थे बहुत सारी जगह सब सुन रहे थे देख रहे थे लेकिन इमपार के दस बारह लोगों ने आगे बढ़ कर इस मामले में बेमिसाल काम किया, लोगों को निकलवाया. मुसलमानों में अनपढ़ बहुत हैं, गरीब बहुत हैं जब एक आम मुस्लिम की इमपार के ज़रिए मदद होगी तो आम मुस्लिम उसे स्वीकार करेगा, मैं आम मुस्लिम को एक बुद्धिजीवी मुस्लिम की अपेक्षा जयादा राजनीतिक समझ वाला मानता हूँ.

प्रश्न: वर्तमान भारतीय राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में इमपार मुसलमानों के लिए क्या क्या कर सकता है?

उत्तर: इमपार ऐसे हालात में यह कर सकता है कि मुसलमानों में यह बात इतनी मजबूत कर दे कि शिक्षा हासिल करने से वो पढ़े लिखे हो जाएंगे तो मजबूत होंगे और फिर सब समुदायों के साथ संबंध भी अच्छे होंगे. सिकुलरिज़्म भारत के संविधान की और राजनीति की पहचान है जिसे सबको अपनाना है. सिर्फ एक समुदाय पर इसका ठेका नहीं है. हर भारतीय को हर धर्म की इज़्ज़त करते हुए आगे बढ़ना है. इसलाम तो सभी धर्मों के आदर करने का आदेश देता है . मुसलमानों में मौलवी हज़रात को चाहिए कि वो सच्चा दीन पेश कर दें लेकिन किसी को अच्छा बुरा मुस्लिम होने का प्रमाण पत्र न दें, ये खुदा का काम है उसे करने दें.

प्रश्न:आपने मौलवी का ज़िक्र किया, तो सवाल एक अहम है कि वकील, डाक्टर, प्रोफेसर जो बहुत कुछ पढ़ते हैं लेकिन दीन का ठेका मौलाना पर छोड़ देते हैं खुद इसलाम की जानकारी में ज़ीरो रहते हैं, ये मिस्टर और मौलाना का फर्क कैसे खत्म हो सकता है?

उत्तर:ये तो हर समुदाय में है, हिन्दू समुदाय में पंडित होते हैं मुसलमानों में मौलवी, लेकिन मुसलमानों में मौलवी का काम कम है जैसे पंडित के बिना हिन्दू समुदाय में मरना जीना शादी ब्याह कुछ नहीं हो सकता, इसलाम में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है. हर मुसलमान को ये बात समझनी चाहिए और दीन की जानकारी लेनी चाहिए कि दूसरे पर निर्भरता न हो और कोई गुमराह न कर सके. मुसलमान वकील, डाक्टर, प्रोफेसर तथा दूसरे पढ़े लिखे वर्ग के लोगों को इसलाम की जानकारी भी रखनी चाहिए. इसलाम तो पढ़ने का हुक्म देता है. इसलाम सांप्रदायिकता को पसंद नहीं करता, दीन में ज़बरदस्ती नहीं है. भारत में लड़ाई धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की है. यदि सभी समुदाय अपने बुनियादपरस्तों के खिलाफ खड़े रहें तो सब मिल जुलकर देश को आगे बढ़ा सकते हैं.

प्रश्न: इमपार को क्या क्या कदम उठाने चाहिए, कार्यशैली क्या होनी चाहिए और किन बातों से बचना चाहिए

उत्तर:इमपार ने कई ग्रुप बनाए हैं, इनमें एक सबसे अच्छा ग्रुप नौजवानों के लिए है रोजगार देने के लिए कोशिश करना. लॉक डाउन के चलते बहुत लोगों की नौकरी जाएगी, रोजगार खत्म होंगे तो इमपार यदि इस मामले में युवाओं की मदद करेगा तो बहुत बड़ा काम होगा. खासतौर से महिलाओं की शिक्षा पर काम करना होगा, जिस समाज में औरतें अनपढ़ होती हैं वो समाज पिछड़ते पिछड़ते खत्म हो जाता है. इसके अलावा मदरसे में विज्ञान और दुसरे विषयों की शिक्षा भी देनी चाहिए. मदरसे से निकला हुआ युवा अन्य क्षेत्रों में भी पढ़ा लिखा होना चाहिए और हाफिज़ मौलवी दुनियावी तालीम भी हासिल करें इस दिशा में भी काम होना चाहिए. सिविल सर्विसेज में मुसलमानों को बैठना चाहिए, जब जयादा बैठेंगे तो जयादा निकलेंगे. मुस्लिम इन सेवाओं की परीक्षा में बैठते ही नहीं हैं इसलिए निकलते नहीं जयादा संख्या में. इसके अलावा मुसलमानों को अपने दीन पर अमल करना चाहिए इससे इन्हें कोई नहीं रोकता, जो भी दिक्कतें हैं वो राजनीतिक हैं, मुसलमानों ने राजनीतिक रूप से भी बहुत परिपक्वता कभी नहीं दिखाई, राम मंदिर मुद्दा ऐसा मुद्दा था जिसने हिंदुत्व को यहाँ तक पहुंचा दिया है, अगर मुस्लिम तभी परिपक्वता दिखाते तो तभी ये मामला निपट सकता था जैसे अब भी सुप्रीम कोर्ट ने यही किया, लेकिन मुसलमानों ने पूरा मौका दिया और हिंदुओं को एकजुट करने में हिन्दू अति वादियों को पूरा मौका मिला, क्या ऐसी राजनीति ने मुसलमानों का भला किया है या बुरा किया है मैं मुसलमानों की राजनीति करने वालों से पूछना चाहता हूँ, अपरिपक्व राजनीति को छोड़ देना चाहिए, मुसलमानों ने सदा गैर मुस्लिम लोगों को अपना नेता माना है इसलिए कि सिकुलर माहौल रहना चाहिए आइंदा भी ऐसा ही होना चाहिए.

प्रश्न: ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में भारतीय मुसलमानों का दुनिया के अन्य देशों के मुसलमानों से कैसे संबंध बनाने चाहिए? वैसे भारतीय मुसलमानों ने कभी देश की नीतियों से अलग किसी मामले में किसी का साथ नहीं दिया जबकि इन्हें दूसरे मुस्लिम देशों से संबंधित ताने सुनने को मिलते रहे हैं?

उत्तर :देखिए मुस्लिम भारतीय हैं और देश के साथ हैं, सीएए के खिलाफ लड़ाई इसलिए तो थी कि हम भारतीयता नहीं छोड़ेंगे, ये भी समझ लेना चाहिए कि जो करना है हमें करना है, कोई किसी के लिए खड़ा नहीं होगा, मुस्लिम उम्मत नाम की कोई चीज़ नहीं बची है, मुस्लिम मुस्लिम से लड़ रहा है. रोहिंग्या मामले में कोई बचाने नहीं आया इसलिए भारतीय मुसलमानों को खुद खड़ा होना होगा, सबको साथ लेकर अपने आप को सशक्त बनाना होगा, कमज़ोरी में कोई साथ नहीं देता, विदेशों के मामले में वही संबंध हम रखेंगे जो हमारे देश की उस देश के संबंध में विदेश नीति रहेगी. मुस्लिम अपने दीन पर पालन करते हुए चरित्र, व्यवहार और समाज के लिए सहयोग पर विशेष ध्यान देते हुए आगे बढ़ें, यही इमपार का मकसद है और इसे पूरा करेंगे इनशाल्लाह.

Next Story