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संवेदनहीनता की जद में शिक्षा, भारतीय शिक्षा का वो सच जो आप नहीं जानते!

Shiv Kumar Mishra
3 Feb 2020 2:10 AM GMT
संवेदनहीनता की जद में शिक्षा, भारतीय शिक्षा का वो सच जो आप नहीं जानते!
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ऐसा माहौल बनाया गया कि सब कुछ सामान्य है, जबकि सच्चाई यह है कि केंद्रीय स्तर पर बगैर कोई नीति निर्धारण किये प्रदेश के स्तर पर निजी विश्वविद्यालय खोलने के विधेयक एक के बाद एक पारित होते गये और सरकारी विश्वविद्यालयों से सरकारें अपनी वित्तीय एवं अन्य भूमिकाओं से धीरे-धीरे पीछे हटने लगी।

प्रो. दिग्विजयनाथ झा

"जरूरतों का ख्याल रखा नहीं गया है,

सूरों की संगत में ताल रखा नहीं गया है

तमाम रिश्तों के हक अदा करना चाहता था,

कोई भी रिश्ता बहाल रखा नहीं गया है।"

मशहूर शायर अजहर इकबाल से उधार ली गयी इस खूबसूरत शेर से अपनी बातें यहां इसलिए शुरू कर रहा हूं कि सोलहवीं एवं सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों में 18 से 25 आयु वर्ग के औसतन 63 फीसदी युवा मतदाताओं ने श्रीयुत नरेंद्र दामोदार दास मोदी के भारत को विश्व गुरू बनाने के सरेआम परोस रहे सपने से अति उत्साहित होकर एनडीए के पक्ष में अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया, बावजूद इसके कि 05 से 25 आयु वर्ग के छात्र-छात्राओं की पीड़ा मौजूदा पीएम की प्राथमिकताओं में आज की तारीख तक शामिल ही नहीं है।

इसे नरेंद्र दामोदर दास मोदी सरकार की संवेदनहीनता की हद ही कहेंगे कि बीते चार सालों में न सिर्फ देशभर में 1 लाख 50 हजार से अधिक सरकारी प्राथमिक विद्यालयों पर ताला लगा, अपितु पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मांग को सरेआम नकार दिया गया और सर्वाधिक शर्मनाक तो यह कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी), नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी), इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन (आईआईएमसी), इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम), ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (एआईआईएमएस) एवं नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज (एनएलयू) समेत भारत के सभी 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं की सालाना शुल्क में 50 फीसदी से लेकर 150 फीसदी तक की बढ़ोतरी कर दी गयी और फीस बढ़ोत्तरी के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले छात्र-छात्राओं को टुकड़े-टुकड़े गैंग सरीखे विशेषणों से नवाजा गया। जब 18 से 25 आयु वर्ग के दुनिया के निरक्षरों में हर तीसरा शख्स भारतीय हो और देश की नॉमिनल जीडीपी 42 सालों के न्यूनतम स्तर पर हो तथा बेरोजगारी 45 सालों में सर्वोच्च स्तर पर हो तो भला शैक्षणिक संस्थानों की फीस में बढ़ोतरी के केंद्रीय हुक्मरानों के फैसले को कोई भी कैसे जायज ठहरा सकता है?

अभी हाल ही के एक अध्ययन में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल (एसोचैम) ने शिक्षा के प्रति मौजूदा सरकार की नीयत को हतोत्साहित करने वाला करार दिया है और साफ -साफ कहा है कि अगर अब भी जीडीपी का 6 फीसदी शिक्षा मद में व्यय करने के फैसले भारत की सरकार नहीं करती है तो कतई भी नहीं के. कस्तूरी रंगन की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय समिति के 484 पन्नों के दस्तावेज दुनिया के शीर्ष दस विश्वविद्यालयों की सूची में भारत की मौजूदगी के सपने साकार कर सकते हैं और इतना ही नहीं भारत को विकसित देशों की तरह अपनी शिक्षा के स्तर को शीर्ष पर ले जाने में 126 वर्ष के अधिक लगेंगे। देश में समूचे शिक्षातंत्र को जमीनी स्तर पर दुरुस्त करने के लिए न सिर्फ वर्ष 2017 में गठित डॉ. के कस्तूरी रंगन समिति अपितु, वर्ष 2012 में गठित जस्टिस जेएस वर्मा समिति, वर्ष 2005 में गठित राष्ट्रीय ज्ञान आयोग, वर्ष 1995 में गठित प्रो. आर टकवाले समिति, वर्ष 1994 में गठित प्रो. खेरमा लिंग्दोह समिति, वर्ष 1993 में गठित रामलाल पारेख समिति, वर्ष 1992 में गठित प्रो. यशपाल समिति, वर्ष 1991 में गठित जी रामारेड्डी समिति, वर्ष 1989 में गठित एमबी बुच समिति, वर्ष 1990 में गठित आचार्य राममूर्ति समिति, वर्ष 1964 में गठित डॉ. डीएस कोठारी कमीशन, वर्ष 1953 में गठित मुदालियर कमीशन और वर्ष 1949 में गठित डॉ. एस राधा कृष्णन कमीशन तक ने शिक्षा मद में व्यय को बढ़ाने की सिफारिशें लगातार की है, लेकिन शिक्षा को बिजनेस बनाने पर तुली सरकारें किस की भी सुने तब ना।

शिक्षा की बदहाली से व्यथित तात्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वर्ष 2016 में सरेआम कहा था कि केंद्रीय सचिवालय के बंद कमरे में देश की जर्जर शिक्षा व्यवस्था पर बहुत चर्चाएं होती है, बोर्ड कमीशन गठित होते हैं, नीतियां बनती है, निर्देश जारी होते हैं, सर्वे रिपोर्ट जारी होती है और अंत में एजुकेशन सिस्टम में व्याप्त खामियों का ठीकरा शिक्षकों के सिर फोड़कर हमारे नीति नियंता अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। बहरहाल, आंख बंद कर लेने से नजारे बदल नहीं जाते। संयुक्त राष्ट्र की एजुकेशनल फॉर ऑल ग्लोबल मॉनिटरिंग की वर्ष 2019 की रिपोर्ट चीख-चीखकर ब्यां कर रही है कि भारत में निरक्षर युवाओं की तादाद इन दिनों 28 करोड़ से अधिक है और यह आंकड़ा दुनिया के निरक्षर युवाओं की कुल तादाद का तकरीबन 37 फीसदी है। भारत दुनिया का एकमात्र देश है, जहां कि टीचरों की ट्रेनिंग का अधिकतर दायित्व प्राइवेट हाथों में है एवं सरकार शैक्षणिक संस्थानों में ठेके पर कार्यरत शिक्षकों की संख्या तकरीबन 5 लाख से अधिक है तथा इनमें से करीब 53 फीसदी अप्रशिक्षित है और दु:खद हकीकत तो यह है कि बावजूद इसके 10 लाख से अधिक शिक्षकों के पद भारत के सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में इन दिनों खाली पड़े हैं। 60 हजार से अधिक सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में पेयजल की सुविधा नहीं है, भारत के 50 फीसदी से अधिक सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में बिजली की सुविधा नहीं, 40 फीसदी से अधिक सरकारी माध्यमिक एवं प्राथमिक विद्यालयों में खेल का मैदान नहीं है, 31 फीसदी से अधिक सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में शौचालय की सुविधा नहीं है, 21 फीसदी से अधिक सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय मौसम के अनुरूप भवन मानकों को पूरी नहीं करते हैं, जबकि 13 फीसदी से अधिक सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में हर मौसम में पहुंचने तक की सुविधा नहीं है।

भारत के सत्तर फीसदी से अधिक हायर सेकेंडरी स्कूलों में न तो सक्षम प्रयोगशालाएं हैं और न ही बेहतरीन पुस्तकालय है। यह कैसा डिजीटल इंडिया, जहां कि 97 फीसदी सरकारी स्कूलों में कंप्यूटर उपलब्ध नहीं है, जबकि 11 करोड़ से अधिक छात्र-छात्राओं की मौजूदगी आज की तारीख में सरकारी विद्यालयों में है और प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे छात्र-छात्राओं की तादाद तकरीबन सात करोड़ के आस-पास है। सच पूछिए तो काफी जद्दोजहद के बाद वर्ष 2010 में भारत में लोग हुए राइट टू एजुकेशन एक्ट 2009 के मानकों को देश के 92 फीसदी स्कूल पूरी नहीं कर रहे हैं। भारत में एक लाख 5 हजार प्राथमिक विद्यालय ऐसे हैं, जिनमें मात्र एक शिक्षक ही एक स्कूल में कार्यरत हैं, जबकि 7 हजार 966 स्कूल देश में इन दिनों ऐसे भी हैं, जिनमें एक भी शिक्षक नहीं है। देश में तकरीबन 60 हजार प्राथमिक विद्यालय ऐसे हैं, जहां केवल दो शिक्षक सौ से दो सौ बच्चों को पढ़ाने के अलावा मिड डे मील की देखरेख भी करते हैं। भारत के आधे से अधिक राज्यों में शिक्षकों के वेतन के लाले पड़े रहते हैं। देश के 55 फीसदी विद्यालय छात्र-शिक्षक अनुपात के अनुपालन में पीछे हैं और हालात इस कदर बदतर है कि अधिकतर प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में 60 स्टूडेंट्स पर एक टीचर हैं तथा एक कड़वा सच भी है कि भारत के तकरीबन 35 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों में अप्रशिक्षित शिक्षकों की मौजूदगी की वजह से कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती, जबकि कुशल शिक्षकों के बजाय कुशल मैनेजमेंट की वजह से देश में निजी स्कूलों का व्यापार फलफूल रहा है।

वर्ष 2019 में 6 से 11 साल की उम्र के तकरीबन 60 लाख से अधिक भारतीय स्कूलों से बाहर है, जो कि पूरी दुनिया में स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की कुल आबादी का 35 फीसदी है और यह दु:खद स्थिति इसलिए है कि भारत में डेढ़ लाख से अधिक स्कूलों तथा 12 लाख से अधिक शिक्षकों का आज की तारीख में जरूरत है। इसी तरह उच्चतर माध्यमिक शिक्षा से वर्ष 2019में वंचित भारतीय स्टूडेंट्स की तादाद 4.68 करोड़ है, जो कि पूरी दुनिया में सर्वाधिक है। भारत की शिक्षा की दशा और दिशा पर बीते पंद्रह सालों में पैनी निगाह रखने वाली मशहूर गैर सरकारी संस्था प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की वर्ष 2019 की एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट बताती है कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत भारत के सरकारी विद्यालयों में नियुक्त शिक्षकों में करीब बीस फीसदी के पास किसी भी विषय अथवा कि भाषा का न्यूनतम ज्ञान नहीं है और इसी का दुष्परिणाम है कि हायर सेकेंडरी स्कूल के 57 फीसदी स्टूडेंट्स को साधारण गुणा भाग करने में कठिनाई होती है, 40 फीसद स्टूडेंट्स को साधारण इंग्लिश सेंटेंस को पढ़ने में कठिनाई होती है, 25 फीसदी स्टूडेंट्स को अपनी मातृभाषा में सौ शब्दों को शुद्ध-शुद्ध लिखने में कठिनाई होती है, 14 फीसदी स्टूडेंट्स को भारत के मानचित्र की सही जानकारी नहीं है। दु:खद दिलचस्पी तो यह है कि भारत के प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों के 18 फीसदी शिक्षा को एवं 21 फीसदी स्टूडेंट्स को देश के राज्यों और उनकी राजधानियों के नाम तक मालूम नहीं है और 36 फीसदी स्टूडेंट्स ऐसे भी है जिन्हे भारत की राजधानी का नाम मालूम नही है।

ग्रामीण भारत के 60 फीसदी स्टुडेन्टस कम्प्यूटर व इंटरनेट से अब भी पूरी तरह वंचित है, बावजूद इसके कि स्वयं के केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के खुलासे पर यकीन करें तो भारत के 16 फीसदी स्टूडेंट्स तीसरी कक्षा उत्तीर्ण करने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं, जबकि गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत करने वाले भारतीय परिवारों के 51.9 फीसदी बच्चे आंगनबाड़ी केंद्रों तक ही सीमित रह जाते हैं तथा 34.9 फीसदी बच्चे शिक्षा से पूर्णत: ही वंचित रह जाते हैं। सवाल गंभीर है कि आखिर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बच्चों की पहुंच से कोसों दूर क्यों है? सरकारी शैक्षणिक संस्थानों की बदहाली से व्यथित इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल ने वर्ष 2015 में न्यायालय परिसर में सरेआम कहा था कि जब तक जनप्रतिनिधियों, मंत्रियों, अधिकारियों व न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में अनिवार्यत: नहीं पढ़ते तब तक इनकी दशा कतई भी सुधरने वाली नहीं, पर नरेंद्र दामोदर दास मोदी तो सिर्फ अपने मन की सुनाते हैं किसी के मन की तो कभी सनते नहीं है। भला इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नाम के ठीक नीचे अवस्थित सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन को यह पता नहीं है कि आर्थिक रूप से विपन्न छात्रों की संख्या सीबीएसई मान्यता प्राप्त प्राइवेट स्कूलों में कितनी है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने वर्ष 2012 में गरीब छात्रों के लिए प्राइवेट स्कूलों में 25 फीसदी सीटें आरक्षित करने का हुक्म केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय को दिया था।

यद्यपि, प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों की मौजूदा दुर्दशा के लिए धनाभाव के साथ-साथ विश्वविद्यालयी शिक्षा का संकट सर्वाधिक जिम्मेदार है। एयर होस्टेस एवं ब्यूटी पार्लर का कोर्स चला रहे विश्वविद्यालयी शिक्षा का संकट सर्वाधिक जिम्मेदार है। एयर होस्टेस एवं ब्यूटी पार्लर का कोर्स चला रहे विश्वविद्यालयों के बदौलत भारत को विश्व गुरू बनाने का कमाल तो यहां के राष्ट्रभक्त ही करा सकते हैं, अन्यथा कि विकसित देशों में प्राइवेट विश्वविद्यालयों के बंद होने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है, जबकि भारत की सरकार ऐतिहासिक धरोहरों के साथ-साथ पूरी की पूरी शिक्षा व्यवस्था को भी पूंजीपतियों के हवाले करने पर आमादा है और यही एकमात्र वजह है कि फीस वृद्धि के खिलाफ आंदोलन कर रहे जेएनयू के छात्र-छात्राओं पर पुलिस के संरक्षण में जानलेवा हमले हो रहे हैं, जबकि पूरी दुनिया इससे वाकिफ है कि जेएनयू में अध्ययन कर रहे 40 फीसदी से अधिक स्टूडेंट्स के परिवारों की मासिक आय 12 हजार रुपये से कम है, उत्तराखंड में 16 आयुर्वेदिक कॉलेजों के फीस वृद्धि के फैसले को निरस्त करने के हाईकोर्ट के आदेश की अनदेखी हो रही है, आईआईटी मुंबई एवं आईआईटीबीएचयू में एम टेक की फीस में हुई 300 फीसदी की बढ़ोतरी को लेकर आंदोलन चल रहा है, पर केंद्रीय हुक्मरानों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। भला प्रधानमंत्री को कौन समझाये कि विश्वविद्यालयों का काम अर्थव्यवस्था में बिल्कुल फिट होने के लिए स्टूडेंट्स पैदा करना नहीं है और स्किल इंडिया का पूरा विमर्श ही शिक्षा के प्रति सरकार की उदासीनता को दर्शाता है। मसलन, इतना तो शीशे की तरह साफ है कि सशक्त विश्वविद्यालयी शिक्षा के बगैर कुशल शिक्षकों की उत्पत्ति की कतई भी कल्पना नहीं की जा सकती है और बगैर कुशल शिक्षकों के स्कूली शिक्षा के स्तर को सुधारने के कोई भी प्रयास कोरी बकवास के सिवाय और कुछ भी नहीं है।

विगत तीन सालों से देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करने की हम सुन रहे हैं, लेकिन वर्ष 2020-21 के बजट में भी जीडीपी का 6 फीसदी शिक्षा मद में व्यय के प्रावधान नहीं है, बावजूद इसके कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति मसौदा समिति के प्रमुख डॉ. के कस्तूरी रंगन ने जीडीपी का 6 फीसदी शिक्षा मद में व्यय करने की जोरदार वकालत की है। वर्ष 1964 में शिक्षा सुधारों के लिए डॉ. डीएस कोठारी की अध्यक्षता में गठित आयोग ने भी जीडीपी का 6 फीसदी शिक्षा मद में व्यय करने का सुझाव सरकार को दिया था, मगर भारत की सरकारें जीडीपी का 2.50 फीसदी भी शिक्षा मद में व्यय करने की हिम्मत अब तक नहीं जुटा सकी है, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी अपनी शिक्षा व्यवस्था पर जीडीपी का क्रमश: 5.22 फीसदी, 5.72 फीसदी एवं 5.10 फीसदी हिस्सा खर्च करता है। इससे अधिक दर्दनाक स्थिति और क्या हो सकती है कि देश में उच्च शिक्षा का स्तर बेहद निम्न होने की वजहों से इन दिनों चार लाख से अधिक इंडियन स्टूडेंट्स आस्ट्रेलिया, चीन, कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड व जर्मनी सरीखे अन्य कई देशों के विश्वविद्यालयों में अपनी पढ़ाई पूरी करने में लगे हैं और भारत से सालाना 15 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा विदेशी खातों में जा रही है, बावजूद इसके कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यीजीसी) के मुताबिक भारत में आज की तारीख में 554 सरकारी और 296 निजी विश्वविद्यालयों समेत 37204 महाविद्यालय (कॉलेज) हैं। यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) के दावे पर यकीन करें तो भारत के सत्तर फीसदी से ज्यादा कॉलेज व यूनिवर्सिटी गुणवत्ता के मानकों को पर खरे नहीं उतरते। भारत के विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में 28 फीसदी से अधिक शिक्षकों के पद कई सालों से खाली पड़े हैं, जबकि एडहॉक व गेस्ट लेक्चरर 22 फीसदी पदों पर विराजमान हैं और 50 फीसदी से कम पदों पर स्थायी लेक्चरर एवं प्रोफेसर मौजूद हैं तथा सरकार का ध्यान सिर्फ खानापूर्ति में लगा है।

क्या यह शर्म की बात नहीं है कि भारत के मेधावी स्टूडेंट्स यहां से पलायन करें विदेशी विश्वविद्यालयों में चला जाता है और फिर अपनी पढ़ाई पूरी करने के पश्चात वहीं नौकरी में लग जाता है। हमारी प्रतिभा खुद हमारे ही काम नहीं आ रही है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि कैसी तो हमारी सरकारें हैं और कैसे उनके खोखले दावे हम देख रहे हैं? एक तरफ भारतीय युवा ऊर्जा की अपनी ही मातृभूमि पर दुर्दशा हो रही है और दूसरी ओर हमारे कर्णधार आर्थिक उदारीकरण को शिक्षा के संदर्भ में समझने के कोई प्रयास तक नहीं कर रहे हैं, जबकि भारत की उच्च शिक्षा पर 1991 की आर्थिक उदारीकरण की नीति का गंभीर प्रभाव पड़ा और निजी उद्यमिता को बढ़ावा देने के नशे में मदहोश भारत की सरकार ने संसद के भीतर अथवा कि बाहर कभी इसकी चर्चा तक नहीं की। ऐसा माहौल बनाया गया कि सब कुछ सामान्य है, जबकि सच्चाई यह है कि केंद्रीय स्तर पर बगैर कोई नीति निर्धारण किये प्रदेश के स्तर पर निजी विश्वविद्यालय खोलने के विधेयक एक के बाद एक पारित होते गये और सरकारी विश्वविद्यालयों से सरकारें अपनी वित्तीय एवं अन्य भूमिकाओं से धीरे-धीरे पीछे हटने लगी। अधिकतर राज्यों के सरकारी विश्वविद्यालयों में तो स्थायी लेक्चररों की नियुक्तियां ही करीब-करीब बंद हो गयी तथा कॉलेजों का पूरा का पूरा काम एडहॉक अथवा कि कांट्रेक्ट पर लेक्चरर रखकर चलने लगा, जबकि वर्ष 1992 में गठित प्रो. यशपाल समिति की रिपोर्ट ने सरकार को चेतावनी दी थी कि वह उच्च शिक्षा में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करें, वरना शिक्षा का स्तर गिरता जाएगा। लेकिन भारत में शिक्षा सुधारों के लिए गठित तमाम आयोगों व समितियों की सिफारिशें शिक्षा माफियाओं के सामने पनाह मांग रही है।

मध्य प्रदेश व्यावसायिक पर परीक्षा मंडल (व्यापम) घोटाले से पता चलता है कि राजनीति, नौकरशाही, निजी शैक्षणिक संस्थानों के संचालकों और सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों की प्रवेश समितियों के अध्यक्षों के बीच कितने बड़े पैमाने पर मिली भगत रही है। इससे अंदाजा लगता है कि बीते 20-25 सालों में शिक्षा किस तरीके से नियोजित दुर्गति का शिकार बनी। सचमुच इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उदारीकरण से संबंधित आर्थिक नीतियों के शिक्षा में क्या निहितार्थ है या उसके क्या प्रभाव है, इसको दो टूक आंकने को आज भी कोई तैयार नहीं है। कोई कहना नहीं चाहता कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से काफी पीछे हट चुकी है। अब इसकी जिम्मेदारियों कुछ अलग किस्म की बन गयी है जिनसे भारी विकृतियां पैदा हो गयी है।

मसलन, मेडिकल काउंसिल, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद, राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं बार काउंसिल ऑफ इंडिया सरीखे संस्थाएं उच्च शिक्षा में काम कर रही निजी संस्थाओं की निगरानी के लिए है, परंतु इन संस्थानों में एक चीज एक समान पाएंगे किये सभी आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी हुई है और सरकारी शैक्षणिक संस्थानों को नेस्तनाबूद करने में लगी है। हालात इस कदर बदतर है कि अखिल भारतीय तकनीकी की शिक्षा परिषद के दो दर्जन से अधिक आला अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज है और आधे दर्जन से अधिक शीर्ष अधिकारी जेल जा चुके हैं। यह अपने आपमें एक विकृत मान्यता है कि विश्वविद्यालय रोजगार के अनुरूप स्टूडेट्स पैदा करने में नाकाम रही है। वस्तुत: रोजगार के लिए जो-जो अपेक्षाएं हैं, उसे समझना और उस आधार पर प्रशिक्षण देना रोजगार देने वालों का काम है। विश्वविद्यालय का काम है कि वह किसी भी विषय में स्टूडेंट्स को गहराई से दृष्टि दे।

ज्ञान के क्षेत्र में उसको आगे बढ़ाए। यह जो पूरा विमर्श है हुनर का, वह अपने में एक विचलन है। अब ऐसा माना जाने लगा है कि विश्वविद्यालय व्यावसायिक व वोकेशनल शिक्षा की कोई संस्था है। यह प्रवृत्ति इसलिए बढ़ी है क्योंकि विश्वविद्यालयों में पैसे की भयंकर कमी होती चली गयी। विश्वविद्यालयों को ऐसे वोकेशनल पाठ्यक्रम शुरू करने पड़े जिनमें काफी फीस लेकर प्रवेश दिलाना आवश्यक हो गया। कई विश्वविद्यालय एयर होस्टेस, फूलों की खेती, यहां तक कि ब्यूटीपार्लर तक का कोर्स चला रहा है। तरह-तरह के पाठ्यक्रम शुरु करते-करते विश्वविद्यालयों की छवि ही बदल गयी है।

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Shiv Kumar Mishra

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