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पूर्वांचल के गैंगवॉर पर बनी रक्तांचल वेब सीरीज देखिये जरुर

Shiv Kumar Mishra
28 May 2020 3:43 AM GMT
पूर्वांचल के गैंगवॉर पर बनी रक्तांचल वेब सीरीज देखिये जरुर
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(रक्तांचल के बहाने)

अभी पूर्वांचल के गैंगवॉर पर बनी रक्तांचल वेब सीरीज देख के निपटा। पूरी रात चली गई। आखिरी के दृश्य देखते हुए सोच रहा था कि कितने साहसी होते थे पूर्वांचल के ये गैंग्स, कि एक के बुलाने पर दूसरे का मिलने जाना भी गर्व की बात होती थी। आपको पता है कि दुश्मन से मिलने जाना जानलेवा है, फिर भी आप जाते हैं, बतियाते हैं, गोली चलती है, मौत होती है। सोचिए, अगर ये गैंग्स विचारधारात्मक आधार पर ऑपरेट करते तब क्या होता?

ऐसे उदाहरण भी हैं जहां वैचारिक आधार वाला कोई डॉन विरोधी विचार वाले डॉन के न्योते पर उस से मिलने गया हो। फिल्में भी बनी हैं इस पर। ऐसे उदाहरण हालांकि विरल हैं। अगर कोई दो उलट वैचारिकी वाले गिरोह आज की तारीख में दुश्मन बन जाएं, तो असहिष्णुता और पवित्रता ऐसी है कि कोई एक दूसरे का मुंह तक न देखने जाए। फिर पता चला कि वैचारिक गैंग्स की भरमार हो गई और सब एक दूसरे से खुद को श्रेष्ठ समझते हुए ज़ुबानी जंग में ही लगे हैं। मेरी कमीज़ उसकी कमीज़ से सफेद है, यही साबित करने में सारा असलाहा जंग खा रहा है।

मुझे हमेशा से लगता रहा है कि अपराधी, माफिया, डॉन, किस्म के लोग वैचारिक गिरोहों और व्यक्तियों के बनिस्बत ज़्यादा सच्चे होते हैं। बहादुर तो होते ही हैं। और सबसे बड़ी बात, कि वे रिएलिटी को जीते हैं उसके तमाम जोखिमों के साथ। जैसे गुंडों से अकेले मिलने गया डॉन अमिताभ बच्चन। क्या सीन था। दूसरी ओर समाज में श्रेष्ठता बोध से ग्रस्त, एक बौद्धिक या बौद्धिकों का गिरोह कितना कम बहादुर, कम सच्चा और कितना ज़्यादा आभासी दुनिया का बंधक होता है। ज़मीन से कटा हुआ।

ऐसे बौद्धिकों से कहीं बेहतर समाज का एक औसत आदमी होता है जो अनुभव के आधार पर धारणा बनाता है। किसी आभासी दुनिया में नहीं जीता और अपने दुख सुख को किसी वैचारिक मुलम्मे में लपेट के प्रस्तुत नहीं करता। पत्रकारिता करते हुए दो दशक होने को आया, अब उम्र बढ़ने के साथ साथ मुझे लग रहा है कि हमारी वैचारिक ट्रेनिंग ही नकली हुई थी। मने विचार तो सही था, बस देसी फोटोकॉपी और अनुवाद के चक्कर में दिमाग जड़ हो गया और व्यक्तित्व पाखंडी। प्रैक्टिस ने पाखंड पर पाखंड की परत चढ़ा दी और हम अपने बनाए चक्रव्यूह में फंसते चले गए।

मुझे इस बात की खुशी है कि जल्द ही मैं खुद को अतीत के बैगेज से मुक्त होने की दिशा में जाता पा रहा हूं और बहुत संभव है कि चार छह महीने में मैं शायद फैले हुए सारे रायते को समेट कर कहीं सब्ज़ी का या चाट पकौड़ी का ठेला लगा लूंगा या थोड़ा सभ्य रहने का दबाव हुआ तो अख़बार पत्रिका का स्टॉल खोल लूंगा। अब अपराधी या डॉन बनने की उम्र तो रही नहीं, फिर भी मुझे मशाल फिल्म का विनोद कुमार नामक किरदार बहुत प्रेरित करता है, जिसे दिलीप कुमार ने निभाया था। उसकी गुंजाइश प्रबल है। बाकी, वे सभी मित्र जो अब भी अपने अपने तरीकों से अपने अपने आभासी जगत में फंसे पड़े हैं, उन्हें ईश्वर माफ करे। वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं।

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